कहानी संग्रह >> सूखते स्रोत सूखते स्रोतजयनन्दन
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प्रस्तुत है सूखते स्त्रोत कहानी संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जयनन्दन की कहानियों में जीवन के प्रति गहरा रागतत्व है मगर यह व्यक्ति से
कम, अपने समय के भूगोल से ज्यादा जुड़ता है। साहित्य को समाज से
जोड़नेवाले लेखकों में जयनन्दन की भूमिका किसी से कमतर नहीं आँकी जा सकती।
अपने वक्त की चुनौतियों को महसूस करने की तिलमिलाहट उनकी कहानियों में
देखी जा सकती है। समाज को कमजोर करने वाले तत्त्वों और दरारों की वे
शिनाख्त करते हैं और अपने कथाकार के जरिये वे उसे सामने लाते हैं, जयनन्दन
आज के उन खतरों को भी समझते हैं जो पूँजीवादी देशों द्वारा गरीब देशों पर
थोपे जा रहे हैं।
जयनन्दन के कथाशिल्प को इसी दृष्टि से देखना चाहिए कि वे अपनी रचना में कभी कोई ‘चमत्कार’ नहीं रचते, वे सिर्फ परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। ये कहानियाँ इतनी सहज होती हैं कि पाठकों के लिए अत्यन्त पारदर्शी हो जाती हैं। इसलिए उस खतरे को समझने में पाठक को कोई दिक्कत नहीं होती, जिससे जयनन्दन रू-ब-रू होते हैं।
समाज-तत्त्व की प्रधानता के बावजूद ये कहानियाँ स्थूल नहीं है जैसाकि ऐसी कहानियों के बारे में प्रायः समझा जाता है। मानव मन का सूक्ष्म चित्रण तो इनमें है ही परस्पर विरोधी भावों और विचारधाराओं की क्रौंध भी व्यंजित होकर कहानी के प्रभाव में वृद्धि करती है।
जयनन्दन के कथाशिल्प को इसी दृष्टि से देखना चाहिए कि वे अपनी रचना में कभी कोई ‘चमत्कार’ नहीं रचते, वे सिर्फ परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। ये कहानियाँ इतनी सहज होती हैं कि पाठकों के लिए अत्यन्त पारदर्शी हो जाती हैं। इसलिए उस खतरे को समझने में पाठक को कोई दिक्कत नहीं होती, जिससे जयनन्दन रू-ब-रू होते हैं।
समाज-तत्त्व की प्रधानता के बावजूद ये कहानियाँ स्थूल नहीं है जैसाकि ऐसी कहानियों के बारे में प्रायः समझा जाता है। मानव मन का सूक्ष्म चित्रण तो इनमें है ही परस्पर विरोधी भावों और विचारधाराओं की क्रौंध भी व्यंजित होकर कहानी के प्रभाव में वृद्धि करती है।
सूखते स्रोत्र
सन्धिनी भाभी को लगा था जैसे परिवर्तन की एक पागल आँधी ने उसे भारत से
उठाकर अमेरिका में फेंक दिया हो। जिस एक मात्र बेटे से परिवार बसने और
बढ़ने की उसकी बहुत सारी हसरतें टिकी थीं, उसने एक दुर्गम और अलंघ्य पर्वत
की तरह अपना एक ऐसा फैसला सामने रख दिया था जो कम से कम इस देश की प्रकृति
को तो बिल्कुल ही नहीं था। उसने कहा, ‘‘अब मुझसे शादी
करना
सम्भव नहीं होगा, माँ। घर-गृहस्थी में देने के लिए मेरे पास एकदम टाइम
नहीं है, न सिर्फ मेरे पास, बल्कि लिपि के पास भी। देख ही रही हो, हम
दोनों के ही जॉब की माँग ऐसी है कि रात ग्यारह बजे तक हमें एक तिल फुर्सत
नहीं रहती। इसलिए हमने मिलकर तय कर लिया है कि फिलहाल शादी के भँवर में न
फँसें।’’
सन्धिनी ने महसूस किया जैसे कोई अवांछित और दमघोंटू जलावेग उसके नाक से ऊपर पहुँच गया हो- दोनों एक अर्से से एक-दूसरे को प्यार कर रहे हैं.....साथ-साथ जीने मरने की कसमें खा रहे हैं और अब कहते हैं कि अलग-अलग रहकर ही वे अपने प्यार को सुरक्षित रख सकते हैं। भाभी को अनायास याद आ गया सन्मुख शर्मा। भरी जवानी में जब पति कैंसर से लड़ते-लड़ते चल बसे तो जिन्दगी जैसे हर चीज के लिए मोहताज होकर एक याचक बन गयी। उसकी खुशनसीबी थी कि जब भी उसे मदद की जरूरत पड़ी, कुछ लोग हमेशा सामने खड़े मिले। इनमें कुछ तो निहायत मतलबी लोग थे मगर कुछ मतलबों से बहुत ऊपर। इन्हीं कुछ ऊपर दिखने वालों में सबसे ज्यादा विश्वस्त सन्मुख शर्मा था। उम्र में भाभी से दस साल छोटा, लेकिन दुनियादारी के पहाड़े पढ़ने में मानो बीस साल बड़ा। पता नहीं भाभी की किस चीज ने कब उसे कायल या मुरीद कर दिया था कि उसकी एक-एक जरूरत पर, एक-एक ख्वाहिश पर उसने खुद को तत्पर और मुस्तैद बना दिया। क्रमश: वह इतना ध्यान रखने लगा....इतना भला करने लगा कि हर पहलू में हर कदम पर उसकी संलिप्तता अपरिहार्य होती गयी।
भाभी बचपन में ही प्रेम के लिए उतावली रहने वाली प्राणी थी। उसमें प्रेम का प्याला हमेशा छलकता रहता था। उसके सगे-संबंधी कहा करते थे कि इस लड़की के जिगर में एक समन्दर भरा है जिसमें अनन्त लहरें हैं, वे लहरें किसी के रोके नहीं रुक सकतीं। लहरों को इसकी कोई परवाह नहीं कि वे व्यर्थ जाती हैं या किसी काम में आती हैं। ऐसा कई बार हुआ कि जरा-सा सान्निध्य जताकर, जरा-सी सहानुभूति-दया-करुणा जगाकर किसी ने उसे ठग लिया, किसी ने लूट लिया, किसी ने जीत लिया, किसी ने मूर्ख बना दिया। वह मानों जानबूझकर लुट जाने के लिए, ठगे जाने के लिए, हार जाने के लिए तैयार बैठी रहती थी। स्वभाव की इस तरल बनावट में जाहिर है, सन्मुख की निष्ठा से वह असम्पृक्त और उदासीन कैसे रह लेती ?
शराफत का वह मानो एक पुतला था। कितना कुछ कर देता लेकिन बदले में प्रतिदान की कोई जुम्बिश नहीं.....आन्तरिक चाहत की होंठों से कोई अभिव्यक्ति नहीं, मगर आँखें, भवें, पेशानी और चेहरे के रंग आसक्ति से परिपूर्ण। वह चुप रहकर भी मानों किसी स्निग्ध-शान्त झरने की तरह निरन्तर बहता रहता था। भाभी के अहर्निश दर्शनों का चिर अभिलाषी। अलग होने के नाम पर व्याकुलता और प्राणहीनता की स्थिति तक पहुँच जानेवाला जल से मीन वियोग का एक जीता-जागता उदाहरण। ज्योंही भाभी मुम्बई आने की योजना बनाती, वह निस्तेज हो जाता और उसके जाने के दिन पास आते ही बीमार पड़कर बिस्तर पर ढह जाता। उसके बीमार पड़ जाने पर सन्धिनी अपनी यात्रा स्थगित कर देती। सन्मुख ने कभी नहीं कहा कि वह क्यों बीमार पड़ जाता है और सन्धिनी ने कभी नही कहा कि वह क्यों रुक जाती है। दोनों में कुछ न कहने के बावजूद वह जानते थे कि अनुराग की एक अदृश्य बहती सरिता के वे दो किनारे बन गये हैं।
भाभी मुम्बई आयी थी (दूसरी और आखिरी बार) तो उसे लगा था जैसे वह अपने कलेजे पर कोई पत्थर रख रही है। बहुत भारी मन से उसने सन्मुख को सच्चाई की कठोरता से रू-ब-रू करवाया था, ‘‘बेटा चाहता है कि मैं जब तक पूरी तरह मुम्बई शिफट न कर लूँ, वह अपनी गृहस्थी नहीं बनाएगी।’’ सन्मुख जानता था कि बेटा ही उसके जीने का अभिप्राय रहा और मंजिल भी। लिहाजा धर्मसंकट में डालने के लिए उसका बीमार पड़ना लाजिमी नहीं। मगर बीमार न पड़ना उसके वश में कहाँ था, उसके वश में यह था कि वह कोई-सा बहाना बनाकर भाभी के जाने से पहले कहीं अन्तर्धान हो जाये। भाभी जानती थी कि ऐसा करते हुए उसे अपने मन पर कितना अत्याचार करना पड़ा होगा....सन्मुख भी जानता था कि मजबूर होकर मुम्बई जाने के अन्तिम निर्णय पर पहुँचने में भाभी ने अन्तर्द्वन्द्वों के कितने बड़े-बड़े बीहड़ पार किये होंगे।
तो यह था एक प्यार जिसकी नित स्मरणीय कथा उसके रोम-रोम पर लिखी थी। इस कथा से ऊर्जा लेकर ही वह आज अपने को गतिशाल रख पा रही थी।
बेटे के रुख से सन्धिनी भाभी की विवेक ग्रन्थि यह स्पार्क देने लगी कि मुम्बई और न्यूयार्क में शायद अब कोई फर्क नहीं रह गया है। कुछ ही समय पहले उसकी एक सहेली ने बताया था कि न्यूयार्क में रह रहा उसका भाई नौकरी करने की धुन में पचास साल तक अकेले रह गया और जब रिटायरमेण्ट ले लिया, तब शादी रचायी, वह भी एक पच्चीस साल की लड़की से। लड़की ने दो साल ही साथ निभाया फिर उसे छोड़कर एक दूसरे मर्द के साथ रहने चली गयी। यह अमेरिका धीरे-धीरे क्या पूरे देश को अपने रंग में लील लेगा ? जितना ही वह उससे कुढ़ती और चिढ़ती थी तथा उसके साये तक से मुँह फेरकर रखना चाहती थी, अमेरिकापन उतना ही उसे अपने इर्द-गिर्द बेहया झाड़ी की तरह उगता जान पड़ता था। नयी पीढ़ी के तो जवान हो रहे प्राय: सभी बच्चे मानों अमेरिका के ही सपने देखकर बड़े हो रहे थे। इनमें उसका बेटा भी शामिल था। सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनते ही उसकी पहली ख्वाहिश थी अमेरिका में जॉब करने की। सन्धिनी ने एकदम वीटो लगा दिया था, ‘‘अमेरिका जाओगे तो मुझे पूरी तरह भुलाकर और मुझसे सारे लगाव खत्म करके जाना होगा।’’
निर्झर रुक गया, लेकिन इण्डिया में होकर भी मानो अमेरिकन ही बनकर रहा। कम्पनी का एक कॉण्ट्रैक्ट मीट करने के बहाने एक माह के लिए अमेरिका प्रवास का स्वाद वह किसी तरह चख आया। बस, अमेरिका के प्रति उसकी दीवानगी और भी परवान चढ़ने लगी। जब भी फुर्सत का कोई सौहार्दपूर्ण अच्छा लम्हा होता, वह घुमा-फिराकर अमेरिका-राग अलापने लग जाता, ‘‘तुम चाहे जो कहो माँ, देश है तो अमेरिका.......काम की इज्जत है वहाँ.......समय का अनुशासन है वहाँ, स्वीपर भी कार से आता है....कारें वहाँ रेगती नहीं, उड़ती हैं; रफ्तार अस्सी से सौ किलोमीटर प्रति घण्टा। पुलिस की मदद चाहिए....कॉल करते ही मिनट भर में हाजिर। अपराध करके वहाँ कोई बच नहीं सकता। पोस्ट ऑफिस, टेलीफोन, बिजली, रेल, वायुयान-सबका निहायत ही सुचारु और व्यवस्थित संचालन.....जरा-सा कोई अवरोध हुआ कि पूरा महकमा सक्रिय.....गतिशाल। मानवीय धूल की गुंजाइश निम्न से निम्नतर.....चीत्कार, हाहाकार, गदुहार, विद्रोह और क्षोभ की गुंजाइश लगभग नगण्य। सर्वत्र सुख, समृद्धि और वैभव का ठाट....।’’
सन्धिनी भाभी को अमेरिका-चालीसा सुनकर यों लगता है जैसे वहाँ आदमी भी किसी रोबोट में बदल गये हैं। उसने पूछा था अपने बेटे से, ‘‘तू ऐसी नौकरी ही क्यों करता है, जिसमें बारह से चौदह घंटे समय देना पड़ता हैं ? आखिर ऐसी नौकरी करने से क्या फायदा क्या जिसमें अपने सुख-आराम के लिए भी वक्त न हो ?’’
‘‘कॉम्पटीशन माँ, कॉम्पटीशन। मैं नहीं करूँगा तो मेरे पीछे लम्बी लाइन लगी है करने वालों की।’’
‘‘लाइन तो सब दिन लगी रही बेरोजगारी की इस देश में, बावजूद इसके एक अनुशासन रहा है, एक सिस्टम रहा है। नौकरी मैंने भी की है, तुम्हारे पापा को भी देखा है। सन्मुख भी कर रहा है। आठ घण्टे के बाद एकदम फ्री। कभी जरूरत पड़ गयी ज्यादा रुकने की तो इसके एवज में ओवरटाइम के तौर पर डबल पारिश्रमिक।’’
‘‘माँ, अब वह जमाना नहीं है, अब हम नौकरी नहीं जॉब करते हैं। हम इस समय अपने जॉब के साथ एक ऐसे बाज़ार में हैं जहां पर कोई हमें पटकनी देने के लिए किसी जानी-दुश्मन से भी आक्रामक मुद्रा में घात लगाये खड़ा है। हमें ज्यादा समय देकर, ज्यादा एकाग्रता से काम को सही-सही और समय पर पूरी सफाई और गुणवत्ता के साथ निपटा लेना होता है ताकि हमारी साख के परचम को कोई खरोंच न आये।’’
‘‘निर्झर, काम के नियत घण्टे का मतलब तू जानता है ? इसके लिए दुनिया-भर में आन्दोलन हुए, शिकागों में कई लोग मारे गये। आज हम उन्हीं की याद में एक मई को मजदूर दिवस मनाते हैं। एक रिवाज जो काफी संघर्ष के बाद कायम हुआ, एक अधिकार जो काफी बलिदानों के बाद हासिल हुआ, दुख रही हूँ, तुम लोग उसका मटिया मेट करके हालात को फिर उसी रसातल में पहुँचा देना चाहते हो जहाँ से सफर शुरू हुआ था। उस वक्त ठीक ऐसी ही स्थिति थी कि मालिक जितनी देर चाहता था, मजदूरों को रोक रखता था। काम के कोई घण्टे तय नहीं थे। इसमें उसकी मनमानी चलती थी। मजदूर अपने घर-परिवार और आराम-सुख की कीमत चुकाकर पिसने और घिसने के लिए बाध्य था। आज तुम्हारे पास भी क्या वही आलम नमूदार नहीं है ?’’
‘‘माँ, अब मालिक और मजदूर की पहले वाली परिभाषा और स्थिति नहीं रही। मालिक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ सन्मुख अंकल हमें जो बताते रहे हैं, वह सारा कुछ अब निराधार साबित हो गया है। मालिक से ज्यादा अब काम करने वालों को अपने अस्तित्व और सरवाइवल की परवाह है। आज यह काम करने वालों की चिन्ता में शामिल हो गया है कि कम्पनी फायदे में नहीं रही तो बंदी का पिशाच सामने आ खड़ा होगा। फिर मामला यह भी है कि हम पहले की तरह बँधी सैलरी और इन्क्रीमेण्ट में काम भी नहीं करना चाहते। हमें फटाफट चाहिए और बहुत चाहिए। और जब यह सब चाहिए तो फिर काम में बँधे घण्टे में रहकर कोई कैसे इसकी अपेक्षा कर सकता है ?’’
सन्धिनी इसी मुद्दे पर अटक जाती थी, ‘‘तुम्हें या किसी को भी बहुत क्यों चाहिए ? जहाँ करोड़ों बेरोजगार हैं और उनकी कोई आय नहीं, वहाँ मुटे्ठी-भर लोगों को इतनी बड़ी आमदनी क्यों ? पहाड़ और खाई के इस अन्तर से क्या कभी खुशहाल और शान्त रह सकता है ? माना कि पैसे बहुत होंगे, लेकिन उसे भोगने के वक्त तो होंगे ही नहीं तुम्हारे पास। हमारे पास पैसे कम थे लेकिन हमने उसका पूरा उपयोग किया।’’
माँ, तुम्हारी तरह हमें धैर्य नहीं है-लम्बे समय तक इतने कम पैसे में खिच-खिच करके नौकरी करना लक्ष्य है। उसके बाद हमारे पास समय ही समय होगा। यही तो निर्णय कि पहले जमकर नौकरी की जाय और फिर उससे मुक्त होकर जमकर ऐश किया जाये।’’
सन्धिनी इस अवधाणा पर तरस खाकर रह गयी। भला जीवन क्या इस तरह गुणा-भाग कर फार्मूला के आधार पर जिया जा सकता है ? अपने देश में तो जीने की शैली ऐसी रही कि हर उम्र लुत्फ हासिल हों। हर उम्र का अपना एक अलग एहसास और स्वाद होता है, उसका अनुभव उसी उम्र में लिया जा सकता है। सोलह से बाईस वर्ष की उम्र का अल्हड़पन, तेईस से तीस वर्ष की उम्र का जोश-उमंग और आवेग चालीस-पैंतालीस में क्या महसूस किया जा सकता है ? उम्र क्या कोई आभूषण या कपड़ा है कि उसे रख दिया सँजोकर-तहाकर और बाद में मोहलत मिलने पर पहन लिया निकालकर ?
सन्धिनी ने महसूस किया जैसे कोई अवांछित और दमघोंटू जलावेग उसके नाक से ऊपर पहुँच गया हो- दोनों एक अर्से से एक-दूसरे को प्यार कर रहे हैं.....साथ-साथ जीने मरने की कसमें खा रहे हैं और अब कहते हैं कि अलग-अलग रहकर ही वे अपने प्यार को सुरक्षित रख सकते हैं। भाभी को अनायास याद आ गया सन्मुख शर्मा। भरी जवानी में जब पति कैंसर से लड़ते-लड़ते चल बसे तो जिन्दगी जैसे हर चीज के लिए मोहताज होकर एक याचक बन गयी। उसकी खुशनसीबी थी कि जब भी उसे मदद की जरूरत पड़ी, कुछ लोग हमेशा सामने खड़े मिले। इनमें कुछ तो निहायत मतलबी लोग थे मगर कुछ मतलबों से बहुत ऊपर। इन्हीं कुछ ऊपर दिखने वालों में सबसे ज्यादा विश्वस्त सन्मुख शर्मा था। उम्र में भाभी से दस साल छोटा, लेकिन दुनियादारी के पहाड़े पढ़ने में मानो बीस साल बड़ा। पता नहीं भाभी की किस चीज ने कब उसे कायल या मुरीद कर दिया था कि उसकी एक-एक जरूरत पर, एक-एक ख्वाहिश पर उसने खुद को तत्पर और मुस्तैद बना दिया। क्रमश: वह इतना ध्यान रखने लगा....इतना भला करने लगा कि हर पहलू में हर कदम पर उसकी संलिप्तता अपरिहार्य होती गयी।
भाभी बचपन में ही प्रेम के लिए उतावली रहने वाली प्राणी थी। उसमें प्रेम का प्याला हमेशा छलकता रहता था। उसके सगे-संबंधी कहा करते थे कि इस लड़की के जिगर में एक समन्दर भरा है जिसमें अनन्त लहरें हैं, वे लहरें किसी के रोके नहीं रुक सकतीं। लहरों को इसकी कोई परवाह नहीं कि वे व्यर्थ जाती हैं या किसी काम में आती हैं। ऐसा कई बार हुआ कि जरा-सा सान्निध्य जताकर, जरा-सी सहानुभूति-दया-करुणा जगाकर किसी ने उसे ठग लिया, किसी ने लूट लिया, किसी ने जीत लिया, किसी ने मूर्ख बना दिया। वह मानों जानबूझकर लुट जाने के लिए, ठगे जाने के लिए, हार जाने के लिए तैयार बैठी रहती थी। स्वभाव की इस तरल बनावट में जाहिर है, सन्मुख की निष्ठा से वह असम्पृक्त और उदासीन कैसे रह लेती ?
शराफत का वह मानो एक पुतला था। कितना कुछ कर देता लेकिन बदले में प्रतिदान की कोई जुम्बिश नहीं.....आन्तरिक चाहत की होंठों से कोई अभिव्यक्ति नहीं, मगर आँखें, भवें, पेशानी और चेहरे के रंग आसक्ति से परिपूर्ण। वह चुप रहकर भी मानों किसी स्निग्ध-शान्त झरने की तरह निरन्तर बहता रहता था। भाभी के अहर्निश दर्शनों का चिर अभिलाषी। अलग होने के नाम पर व्याकुलता और प्राणहीनता की स्थिति तक पहुँच जानेवाला जल से मीन वियोग का एक जीता-जागता उदाहरण। ज्योंही भाभी मुम्बई आने की योजना बनाती, वह निस्तेज हो जाता और उसके जाने के दिन पास आते ही बीमार पड़कर बिस्तर पर ढह जाता। उसके बीमार पड़ जाने पर सन्धिनी अपनी यात्रा स्थगित कर देती। सन्मुख ने कभी नहीं कहा कि वह क्यों बीमार पड़ जाता है और सन्धिनी ने कभी नही कहा कि वह क्यों रुक जाती है। दोनों में कुछ न कहने के बावजूद वह जानते थे कि अनुराग की एक अदृश्य बहती सरिता के वे दो किनारे बन गये हैं।
भाभी मुम्बई आयी थी (दूसरी और आखिरी बार) तो उसे लगा था जैसे वह अपने कलेजे पर कोई पत्थर रख रही है। बहुत भारी मन से उसने सन्मुख को सच्चाई की कठोरता से रू-ब-रू करवाया था, ‘‘बेटा चाहता है कि मैं जब तक पूरी तरह मुम्बई शिफट न कर लूँ, वह अपनी गृहस्थी नहीं बनाएगी।’’ सन्मुख जानता था कि बेटा ही उसके जीने का अभिप्राय रहा और मंजिल भी। लिहाजा धर्मसंकट में डालने के लिए उसका बीमार पड़ना लाजिमी नहीं। मगर बीमार न पड़ना उसके वश में कहाँ था, उसके वश में यह था कि वह कोई-सा बहाना बनाकर भाभी के जाने से पहले कहीं अन्तर्धान हो जाये। भाभी जानती थी कि ऐसा करते हुए उसे अपने मन पर कितना अत्याचार करना पड़ा होगा....सन्मुख भी जानता था कि मजबूर होकर मुम्बई जाने के अन्तिम निर्णय पर पहुँचने में भाभी ने अन्तर्द्वन्द्वों के कितने बड़े-बड़े बीहड़ पार किये होंगे।
तो यह था एक प्यार जिसकी नित स्मरणीय कथा उसके रोम-रोम पर लिखी थी। इस कथा से ऊर्जा लेकर ही वह आज अपने को गतिशाल रख पा रही थी।
बेटे के रुख से सन्धिनी भाभी की विवेक ग्रन्थि यह स्पार्क देने लगी कि मुम्बई और न्यूयार्क में शायद अब कोई फर्क नहीं रह गया है। कुछ ही समय पहले उसकी एक सहेली ने बताया था कि न्यूयार्क में रह रहा उसका भाई नौकरी करने की धुन में पचास साल तक अकेले रह गया और जब रिटायरमेण्ट ले लिया, तब शादी रचायी, वह भी एक पच्चीस साल की लड़की से। लड़की ने दो साल ही साथ निभाया फिर उसे छोड़कर एक दूसरे मर्द के साथ रहने चली गयी। यह अमेरिका धीरे-धीरे क्या पूरे देश को अपने रंग में लील लेगा ? जितना ही वह उससे कुढ़ती और चिढ़ती थी तथा उसके साये तक से मुँह फेरकर रखना चाहती थी, अमेरिकापन उतना ही उसे अपने इर्द-गिर्द बेहया झाड़ी की तरह उगता जान पड़ता था। नयी पीढ़ी के तो जवान हो रहे प्राय: सभी बच्चे मानों अमेरिका के ही सपने देखकर बड़े हो रहे थे। इनमें उसका बेटा भी शामिल था। सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनते ही उसकी पहली ख्वाहिश थी अमेरिका में जॉब करने की। सन्धिनी ने एकदम वीटो लगा दिया था, ‘‘अमेरिका जाओगे तो मुझे पूरी तरह भुलाकर और मुझसे सारे लगाव खत्म करके जाना होगा।’’
निर्झर रुक गया, लेकिन इण्डिया में होकर भी मानो अमेरिकन ही बनकर रहा। कम्पनी का एक कॉण्ट्रैक्ट मीट करने के बहाने एक माह के लिए अमेरिका प्रवास का स्वाद वह किसी तरह चख आया। बस, अमेरिका के प्रति उसकी दीवानगी और भी परवान चढ़ने लगी। जब भी फुर्सत का कोई सौहार्दपूर्ण अच्छा लम्हा होता, वह घुमा-फिराकर अमेरिका-राग अलापने लग जाता, ‘‘तुम चाहे जो कहो माँ, देश है तो अमेरिका.......काम की इज्जत है वहाँ.......समय का अनुशासन है वहाँ, स्वीपर भी कार से आता है....कारें वहाँ रेगती नहीं, उड़ती हैं; रफ्तार अस्सी से सौ किलोमीटर प्रति घण्टा। पुलिस की मदद चाहिए....कॉल करते ही मिनट भर में हाजिर। अपराध करके वहाँ कोई बच नहीं सकता। पोस्ट ऑफिस, टेलीफोन, बिजली, रेल, वायुयान-सबका निहायत ही सुचारु और व्यवस्थित संचालन.....जरा-सा कोई अवरोध हुआ कि पूरा महकमा सक्रिय.....गतिशाल। मानवीय धूल की गुंजाइश निम्न से निम्नतर.....चीत्कार, हाहाकार, गदुहार, विद्रोह और क्षोभ की गुंजाइश लगभग नगण्य। सर्वत्र सुख, समृद्धि और वैभव का ठाट....।’’
सन्धिनी भाभी को अमेरिका-चालीसा सुनकर यों लगता है जैसे वहाँ आदमी भी किसी रोबोट में बदल गये हैं। उसने पूछा था अपने बेटे से, ‘‘तू ऐसी नौकरी ही क्यों करता है, जिसमें बारह से चौदह घंटे समय देना पड़ता हैं ? आखिर ऐसी नौकरी करने से क्या फायदा क्या जिसमें अपने सुख-आराम के लिए भी वक्त न हो ?’’
‘‘कॉम्पटीशन माँ, कॉम्पटीशन। मैं नहीं करूँगा तो मेरे पीछे लम्बी लाइन लगी है करने वालों की।’’
‘‘लाइन तो सब दिन लगी रही बेरोजगारी की इस देश में, बावजूद इसके एक अनुशासन रहा है, एक सिस्टम रहा है। नौकरी मैंने भी की है, तुम्हारे पापा को भी देखा है। सन्मुख भी कर रहा है। आठ घण्टे के बाद एकदम फ्री। कभी जरूरत पड़ गयी ज्यादा रुकने की तो इसके एवज में ओवरटाइम के तौर पर डबल पारिश्रमिक।’’
‘‘माँ, अब वह जमाना नहीं है, अब हम नौकरी नहीं जॉब करते हैं। हम इस समय अपने जॉब के साथ एक ऐसे बाज़ार में हैं जहां पर कोई हमें पटकनी देने के लिए किसी जानी-दुश्मन से भी आक्रामक मुद्रा में घात लगाये खड़ा है। हमें ज्यादा समय देकर, ज्यादा एकाग्रता से काम को सही-सही और समय पर पूरी सफाई और गुणवत्ता के साथ निपटा लेना होता है ताकि हमारी साख के परचम को कोई खरोंच न आये।’’
‘‘निर्झर, काम के नियत घण्टे का मतलब तू जानता है ? इसके लिए दुनिया-भर में आन्दोलन हुए, शिकागों में कई लोग मारे गये। आज हम उन्हीं की याद में एक मई को मजदूर दिवस मनाते हैं। एक रिवाज जो काफी संघर्ष के बाद कायम हुआ, एक अधिकार जो काफी बलिदानों के बाद हासिल हुआ, दुख रही हूँ, तुम लोग उसका मटिया मेट करके हालात को फिर उसी रसातल में पहुँचा देना चाहते हो जहाँ से सफर शुरू हुआ था। उस वक्त ठीक ऐसी ही स्थिति थी कि मालिक जितनी देर चाहता था, मजदूरों को रोक रखता था। काम के कोई घण्टे तय नहीं थे। इसमें उसकी मनमानी चलती थी। मजदूर अपने घर-परिवार और आराम-सुख की कीमत चुकाकर पिसने और घिसने के लिए बाध्य था। आज तुम्हारे पास भी क्या वही आलम नमूदार नहीं है ?’’
‘‘माँ, अब मालिक और मजदूर की पहले वाली परिभाषा और स्थिति नहीं रही। मालिक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ सन्मुख अंकल हमें जो बताते रहे हैं, वह सारा कुछ अब निराधार साबित हो गया है। मालिक से ज्यादा अब काम करने वालों को अपने अस्तित्व और सरवाइवल की परवाह है। आज यह काम करने वालों की चिन्ता में शामिल हो गया है कि कम्पनी फायदे में नहीं रही तो बंदी का पिशाच सामने आ खड़ा होगा। फिर मामला यह भी है कि हम पहले की तरह बँधी सैलरी और इन्क्रीमेण्ट में काम भी नहीं करना चाहते। हमें फटाफट चाहिए और बहुत चाहिए। और जब यह सब चाहिए तो फिर काम में बँधे घण्टे में रहकर कोई कैसे इसकी अपेक्षा कर सकता है ?’’
सन्धिनी इसी मुद्दे पर अटक जाती थी, ‘‘तुम्हें या किसी को भी बहुत क्यों चाहिए ? जहाँ करोड़ों बेरोजगार हैं और उनकी कोई आय नहीं, वहाँ मुटे्ठी-भर लोगों को इतनी बड़ी आमदनी क्यों ? पहाड़ और खाई के इस अन्तर से क्या कभी खुशहाल और शान्त रह सकता है ? माना कि पैसे बहुत होंगे, लेकिन उसे भोगने के वक्त तो होंगे ही नहीं तुम्हारे पास। हमारे पास पैसे कम थे लेकिन हमने उसका पूरा उपयोग किया।’’
माँ, तुम्हारी तरह हमें धैर्य नहीं है-लम्बे समय तक इतने कम पैसे में खिच-खिच करके नौकरी करना लक्ष्य है। उसके बाद हमारे पास समय ही समय होगा। यही तो निर्णय कि पहले जमकर नौकरी की जाय और फिर उससे मुक्त होकर जमकर ऐश किया जाये।’’
सन्धिनी इस अवधाणा पर तरस खाकर रह गयी। भला जीवन क्या इस तरह गुणा-भाग कर फार्मूला के आधार पर जिया जा सकता है ? अपने देश में तो जीने की शैली ऐसी रही कि हर उम्र लुत्फ हासिल हों। हर उम्र का अपना एक अलग एहसास और स्वाद होता है, उसका अनुभव उसी उम्र में लिया जा सकता है। सोलह से बाईस वर्ष की उम्र का अल्हड़पन, तेईस से तीस वर्ष की उम्र का जोश-उमंग और आवेग चालीस-पैंतालीस में क्या महसूस किया जा सकता है ? उम्र क्या कोई आभूषण या कपड़ा है कि उसे रख दिया सँजोकर-तहाकर और बाद में मोहलत मिलने पर पहन लिया निकालकर ?
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