इतिहास और राजनीति >> बिहार एक ऐतिहासिक अध्ययन बिहार एक ऐतिहासिक अध्ययनओम प्रकाश प्रसाद
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लोक-जीवन में ऊर्जा ग्रहण करते हुए भी ये कविताएँ प्रतिगामी आस्थाओं और विश्वासों को लक्षित करना नहीं भूलतीं और उनके पुनर्संस्कार की प्रेरणा देती हैं।
बिहार में ऐतिहासिक गतिविधियों की शुरुआत उत्तरवैदिक काल से होती है। इस इलाके में ई.पू. छठी शताब्दी के दौरान विकास की गति तेज हो गई। प्रारम्भ में इसे मगध के नाम से जाना गया। राजगृह और गया का इलाका प्रारंभ में तथा मौर्यकाल के दौरान गंगा नदी के उत्तर और दक्षिण का इलाका ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया। पाटलिपुत्र विश्व के प्रमुख नगरों में से एक हो गया। शुंग और कुषाण राजवंश के बाद संपूर्ण आधुनिक बिहार के इलाके पर किसी एक राजवंश का प्रशासनिक नियंत्रण नहीं रहा। पूर्व मध्यकाल में आधुनिक बंगाल और उत्तर प्रदेश के शासकों ने बिहार को खंडित कर दिया। यह सिलसिला बाद के सैकड़ों वर्षों तक चलता रहा। मराठों का आधिपत्य भी इसके कुछ हिस्से पर स्थापित रहा। शेरशाह और अकबर के जमाने में बिहार का पुनः एक राजनीतिक नक्शा तैयार हुआ। अंग्रेजीकाल में बिहार का अस्तित्व बंगाल के उपनिवेश के समान 1912 ई. और उसके बाद तक बना रहा। मौर्यकाल के बाद बिहार की आर्थिक स्थिति अफगानों और मुगलशासकों के काल में बेहतर हुई। बिहार के कई छोटे-छोटे कस्बे आर्थिक बेहतरी और उद्योग के केन्द्र रहे। अंग्रेजीकाल में चीनी मिलें बिहार के करीब 30 स्थानों में स्थापित हुईं। बिहार में नदियों की भूमिका काफी अनुकूल रही। तिरहुत की जमीन भारतवर्ष में सर्वाधिक उपजाऊ थी। भारतवर्ष में सबसे ज्यादा पेय जल-सुविधा आज भी यहीं है। बीच का रास्ता नहीं होता पाश की कविता हमारी क्रांतिकारी काव्य-परंपरा की अत्यंत प्रभावी और सार्थक अभिव्यक्ति है। मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित व्यवस्था के नाश और एक वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए जारी जनसंघर्षों में इसकी पक्षधरता बेहद स्पष्ट है। साथ ही यह न तो एकायामी है और न एकपक्षीय, बल्कि इसकी चिंताओं में वह सब भी शामिल है, जिसे इधर प्रगतिशील काव्य-मूल्यों के लिए प्रायः विजातीय माना जाता रहा है। अपनी कविता के माध्यम से पाश हमारे समाज के जिस वस्तुगत यथार्थ को उद्घाटित और विश्लेषित करना चाहते हैं, उसके लिए वे अपनी भाषा, मुहावरे और बिंबों-प्रतीकों का चुनाव ठेठ ग्रामीण जीवन से करते हैं। घर-आँगन, खेत-खलिहान, स्कूल-कॉलेज, कोट-कचहरी, पुलिस-फौज और वे तमाम लोग जो इन सबमें अपनी-अपनी तरह एक बेहतर मानवीय समाज की आकांक्षा रखते हैं, बार-बार इन कविताओं में आते हैं। लोक-जीवन में ऊर्जा ग्रहण करते हुए भी ये कविताएँ प्रतिगामी आस्थाओं और विश्वासों को लक्षित करना नहीं भूलतीं और उनके पुनर्संस्कार की प्रेरणा देती हैं। ये हमें हर उस मोड़ पर सचेत करती हैं, जहाँ प्रतिगामिता के खतरे मौजूद हैं; फिर ये खतरे चाहे मौजूदा राजनीति की पतनशीलता से पैदा हुए हों या धार्मिक संकीर्णताओं से; और ऐसा करते हुए ये कविताएँ प्रत्येक उस व्यक्ति से संवाद बनाए रखती हैं जो कल कहीं भी जनता के पक्ष में खड़ा होगा। इसलिए आकस्मिक नहीं कि काव्यवस्तु के संदर्भ में पाश नाज़िम हिकमत और पाब्लो नेरुदा-जैसे क्रांतिकारी कवियों को ‘हमारे अपने कैंप के आदमी’ कहकर याद करते हैं और संबोधन-शैली के लिए महाकवि कालिदास को। संक्षेप में, हिंदी और पंजाबी साहित्य से गहरे तक जुड़े डॉ. चमनलाल द्वारा चयनित, संपादित और अनूदित पाश की ये कविताएँ मनुष्य की अपराजेय संघर्ष-चेतना का गौरव-गान हैं और हमारे समय की अमानवीय जीवन-स्थितियों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप।
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