संस्मरण >> बोरूंदा डायरी बोरूंदा डायरीमालचंद तिवाड़ी
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इस डायरी-वृत्तान्त को पढना, डायरीकार को पढना दरअसल बिज्जी के अपने रचे समाज को, उनके कथा-संसार को पढना है
बिज्जी बिरले आधुनिक लेखक थे। वे पूर्व-आधुनिक से उसकी वाणी नहीं छिनते, उसका 'प्रतिनिधि' बनने की, उसे अपने अधीन लाने की और इस तरह अपने को श्रेष्ठतर जताने की औपनिवेशिक कोशिश नहीं करते। जैसे 'वाइट मेन' स बर्डन' होता है वैसे ही एक 'मॉडर्न मेन 'स बर्डन' भी होता है। बिज्जी के कथा-लोक में, उनकी 'बातां री फुलवाड़ी में, जो उनके लेखन का सबसे सटीक रूपक भी है और उनका मैग्नम ओपस भी, पूर्व-आधुनिक भी फूल हैं, 'पिछड़े', 'गंवार' नहीं। बिज्जी ताउम्र बोरुन्दा में रहे, वहीँ एक प्रेस स्थापित किया, प्रणपूर्वक राजस्थानी में लिखा और अपने गाँव में अपने प्रगतिशील, आधुनिक विचारों और नास्तिकताके बावजूद विरोधी भले माने गए हों, 'बाहरी' कभी नहीं माने गए। चौदह खंडो में 'बातां री फुलवाड़ी' रचकर उन्होंने भारतीय और विश्वसाहित्य के इतिहास में जिस युगांतकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था, वह अब भी हिंदी पाठकों को अपनी समग्रता में उपलब्ध नहीं था। बिज्जी के स्नेहाधिकारी और द्विभाषी लेखक मालचन्द्र तिवाड़ी उसके बड़े हिस्से का अनुवाद करने के लिए एक साल तक बिज्जी के साथ बोरुन्दा में रहे, वही एक साल जो बिज्जी के जीवन का अंतिम एक साल सिद्ध हुआ। इस डायरी में बिज्जी का वह पूरा साल है जब वे शारीरिक रूप से परवश होकर अपनी स्वभावगत सक्रियता का अनंत भार अपने मन पर संभाले रोग-शय्या पर थे। यह भी एक अर्थ-बहुल विदाम्बना है कि बिज्जी के शाहकार का अनुवाद एक ऐसे लेखकीय आत्म के हाथों संपन्न हुआ जो इस डायरी-वृत्तान्त में एक आस्तिक ही नहीं, एक पूर्व-आधुनिक की तरह प्रस्तुत है। इस डायरी-वृत्तान्त को पढना, डायरीकार को पढना दरअसल बिज्जी के अपने रचे समाज को, उनके कथा-संसार को पढना है जिसके साथ बिज्जी के द्वान्दात्मक लेकिन करुणामय सम्बन्ध का एक उदहारण इस डायरीकार के साथ बिज्जी का-और बिज्जी के साथ डायरीकार का-अपना निजी, जटिल और रागात्मक सम्बन्ध है।
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