आलोचना >> छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोधराजेन्द्र मिश्र
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छत्तीसगढ़ मुक्तिबोध की परिपक्व सर्जनात्मकता का अन्तरंग है।
छत्तीसगढ़ मुक्तिबोध की परिपक्व सर्जनात्मकता का अन्तरंग है। सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि यहाँ आकर उन्हें रचने और जीने का अपेक्षाकृत शान्त अवकाश मिला, बल्कि इस गहरे अर्थ में कि यहाँ आकर उन्हें आत्मसंघर्ष की वह दिशा मिली, जिस पर चलकर वे अपनी रचना में उन लोगों के संघर्ष का भी सृजनात्मक आत्मसातीकरण सम्भव कर सके, जिनका जीवन सहज-सरल अर्थ में संघर्ष का ही जीवन था। उनके संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की रचना के लिए यहाँ का परिवेश, यहाँ के लोग, यहाँ के तालाब, यहाँ के वृक्ष, यहाँ का समूचा साँवला समय उन्हें अँधेरे की आत्मीय आवाज़ में पुकारते थे, और बहुवाचकता से भरे इन स्वरों और पुकारों को, वे अपने सृजन क्षणों में इस तरह सुनते थे, जैसे वे उनकी अपनी धड़कनों में बसी आवाज़ें हैं, जैसे वे अँधेरे में कहीं हमेशा के लिए खो गई अनजानी ज्योति को जगाने के लिए ही उनके करीब आ रही हैं। बिम्बात्मकता के स्तर पर राजनांदगाँव के परिवेश के अनेक दृश्यों को उनकी कविता की बहुविध भावनाओं, विचारों की विविधरंगी भाषा में सहज ही पढ़ा जा सकता है, लेकिन इसके भीतर हर कहीं आत्मीयता और प्रेम की जो अन्त:सलिला है, उसमें मानो यहाँ की वह पूरी बिरादरी ही समाई हुई है, जिसके साथ उन्होंने रात-रात भर बातें की थीं। इसी गहरे प्रेम के अर्थ में ही उन्होंने इस भयावह संसार की मानवीय और मानवेतर उपस्थितियों के साथ एक अटूट रिश्ता बनाया था। इसी रिश्ते ने उन्हें अपने आत्मसंघर्ष की एक सर्वथा नई पहचान का वह रास्ता सुझाया था, जिस पर अनथक चलते हुए वे अनुभव कर पाए थे, कि नहीं होती, कहीं भी कविता खतम नहीं होती।
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