आलोचना >> कोलाज : अशोक वाजपेयी कोलाज : अशोक वाजपेयीपुरुषोत्तम अग्रवाल
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अशोक वाजपेयी की कविताओं से गुजरते हुए यह एहसास बहुत शिद्दत से होता है कि हम ऐसे कवि से मुखातिब हैं जिसके यहाँ लौकिक और लोकोत्तर संवादरत हैं
अशोक वाजपेयी की कविताओं से गुजरते हुए यह एहसास बहुत शिद्दत से होता है कि हम ऐसे कवि से मुखातिब हैं जिसके यहाँ लौकिक और लोकोत्तर संवादरत हैं जिसके पास समकालीन यथार्थ की विकरालता को समझने की क्षमता ही नहीं, इस यथार्थ के समानांतर जीवनपरक सम्भावनाएँ देखने और उनका उत्सव मनाने की भी क्षमता है जो कविता को किसी भी विचार का उपनिवेश बनाने के प्रयत्नों का सतत मुखर प्रतिवादी स्वर बनकर बहुत प्रसन्न है, और इन प्रयत्नों को विचार मात्र से विमुखता का पर्याय मान लिए जाने से बहुत उदास। जिसका मानना है कि कविता की प्रामाणिकता किसी विचार-विशेष का अनुगमन करने में नहीं, मानवीय वेदना और संवेदना को मुखरित करने में है। वैसे ही जैसे नारद भक्ति-सूत्रों का रचयिता मानता है कि भक्ति को कहीं बाहर से सर्टीफिकेट हासिल करने की जरूरत नहीं, यह स्वयं ही प्रमाण है: ‘प्रमाणान्तरस्यानपेक्षात्वात् स्वयं प्रमाणत्वात’!
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