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धन्न नरबदा मैया हो

प्रभाष जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :576
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13820
आईएसबीएन :9788126716074

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इनमें पर्यावरण और संस्कृति के मेरे सरोकार हैं और कुछ यात्रा विवरण हैं, जो यात्रा वृत्तान्त की तरह नहीं अपनी अन्तर्यात्रा में अपनी तलाश के किस्से हैं।

‘धन्न नरबदा मइया हो’ पुस्तक में प्रभाष जोशी के ज्यादातर लेख व्यक्तिगत हैं। हालाँकि इस संकलन में परम्परा और संस्कृति, यात्राओं तथा पर्यावरण से सम्बन्धित आलेख भी संकलित हैं, लेकिन इन सबका रुझान व्यक्तिगत ही है। प्रभाष जोशी अपनी भूमिका में लिखते हैं: ‘‘इस पुस्तक का शीर्षक - धन्न नरबदा मइया हो - दरअसल अपनी किशोर वय में जबलपुर के एक गीतकार से एक कवि सम्मेलन में सुने मछुआरों के एक गीत से लिया है। हैया हो हो हैया हो, धन्न नरबदा मइया हो। पहले का दिया शीर्षक था - बार-बार लौटकर जाता हूँ नर्मदा। इस शीर्षक की आत्मा को ज्यों का त्यों रखते हुए इन निबन्धों को पढ़ने के बाद मैंने शीर्षक धन्न नरबदा मइया हो कर दिया। ये निबन्ध खड़ी बोली के औपचारिक गद्य में नहीं लिखे गए हैं। इनमें बोली की अनगढ़ता लेकिन अनुभूति की सघनता, आत्मीयता और भावुकता है। ये मेरी कोठरी के भीतर की कोठरी की ऐसी खिड़की है जो घर के आँगन और उस पर छाए आकाश में खुलती है। ये निहायत निजी कहे जानेवाले निबन्ध हैं लेकिन ऐसी निजता के जो बाहर के ब्रह्मांड से तदाकार हो गई है। सच, इनमें निजी कुछ नहीं है। हजारीप्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए मैंने जो अपना मालव मानव-संसार बनाया है, ये निबन्ध उनमें आपको बुलाने के बुलव्वे हैं। इनमें पर्यावरण और संस्कृति के मेरे सरोकार हैं और कुछ यात्रा विवरण हैं, जो यात्रा वृत्तान्त की तरह नहीं अपनी अन्तर्यात्रा में अपनी तलाश के किस्से हैं।’’

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