संस्मरण >> डोला बीबी का मजार डोला बीबी का मजारजाबिर हुसैन
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जाबिर हुसेन अपनी डायरी के इन पन्नों को बेखाब तहरीसे' का नाम देते हैं।
मैंने कब कहा कि मैं कहानियां लिखता हूँ। मैं तो बस अपने आसपास जो कुछ देखता हूँ, महसूस करता हूँ, वही लिखता हूँ। मेरे किरदार मेरी उन अनगिनत लडाइयों की खोज और उपज हैं, जो दशकों बिहार के गांवों में लड़ी गयी हैं, बल्कि आज भी लड़ी जा रही हैं। मैंने ये भी कब कहा कि मेरे पास गांवों के दुखों का इलाज हैं। मैं तो बस अपने किरदारों के यातनापूर्ण सफरनामे का एक अदना साक्ष्य हूँ। एक साक्ष्य, जो कभी अपने किरदारों की रूह में उतर जाता है, और कभी किरदार ही जिस के वजूद का हिस्सा बन जाते हैं। मैं तटस्थ नहीं हूँ। मैं तटस्थ कभी नहीं रहा। आगे भी मेरे तटस्थ होने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं खुद अपनी लडाइयों का एक अहम् हिस्सा रहा हूँ, आज भी हूँ। मेरी नजर में, तटस्थता किसी भी संवेदनशील आदमी या समाज के लिए आत्मघाती होती है। मैंने झंडे उठाये हैं, परचम लहराये हैं, नारे बुलंद किये हैं। जो ताकतें सदियों राज और समाज को अपनी मर्जी से चलाती रही हैं, उनकी बख्शी हुई यातनाएं झेली हैं। लेकिन अपनी डायरी के पन्ने स्याह करते वक्त मैंने, कभी भी, इन यातनाओं को बैसाखी की तरह इस्तेमाल नहीं किया है। न ही मैंने इन्हें अपने डायरी-शिल्प का माध्यम ही बनने दिया है। अतः मैं आप से कैसे कहूँ कि इस पुस्तक में शामिल तहरीरों को आप कहानी के रूप में स्वीकारें।
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