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हास्य-व्यंग्य >> विषकन्या

विषकन्या

रवीन्द्रनाथ त्यागी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1385
आईएसबीएन :81-263-0401-4

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प्रस्तुत है विषकन्या...

Vishkanya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैं रवीन्द्रनाथ त्यागी को एक श्रेष्ठ कवि व्यंग्यकार स्वीकार करता हूँ उनकी विशिष्टता का कारण यह है कि हमारे जो पुराने क्लासिक्स हैं, उनमें उनकी गति है। वे सचमुत बहुत अच्छा लिखते है। ऐसा प्रवाहमय विटसम्पन्न गद्य मुझसे लिखते नहीं बनता।
हरिशंकर परसाई

विषकन्या

दिल की चोरी के बारे में हम सभी लोग ज़रूरत से ज्यादा जानते हैं। मेरा अपना दिल एक सुन्दर युवती ने कोई पैंतीस वर्ष पहले चुराया था जो उसे अभी तक वापिस नहीं किया। लड़की क्या थी-एक क्लोकरूम थी। न जाने कितने नवयुवकों के दिल उसके पास सुरक्षित रहते थे। आँखे चुराने की बात भी कोई नयी नहीं है। दिल चुराने के बाद लोग अक्सर आँखें चुराते हैं। मगर कल जो खबर पढ़ने को मिली, उसे पढ़कर दिल दहल गया।

एक महानगर के एक नितान्त प्रतिष्ठित अस्पताल में डॉक्टरों ने एक रोगी का गुर्दा चुरा लिया। मामला पुलिस के हाथों में है। कहा जाता है कि गुर्दे की चोरी एक भयंकर षड्यन्त्र का रूप धारण करती जा रही है। एक-एक गुर्दा लाखों रुपया में बिकता है।
 एक में डॉक्टर बेचारे करें तो क्या करें ? अस्पताल भी एक दिलचस्प जगह हो गयी-नर्सें दिल चुराती हैं और डॉक्टर गुर्दे। पुलिस मामले की छानबीन कर रही है। और हालत यह होगी कि आज से पाँच साल बाद वह गोपनीय रिपोर्ट देगी, वह सरकार को बाद में मिलेगी और अखबार वालों को पहिले। ठक्कर आयोग की रिपोर्ट के साथ जो हुआ वह क्या और गोपनीय रिपोर्टों के साथ नहीं हो सकता ?

यह प्रसन्नता की बात है कि एक ओर आदमी का चरित्र गिरता जा रहा है और दूसरी ओर पशुओं का चरित्र उठता जा रहा है। सत्ताईस मार्च के ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ के अनुसार, दिल्ली के ‘परमार्थ मन्दिर’ में एक ऐसा कुत्ता है जो एकदम शाकाहरी है, प्याज और लहसुन तक नहीं खाता और दूरदर्शन पर जब ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दिखाये जाते हैं तो वह सबसे आगे बैठता है और पूरी तल्लीनता के साथ उन धार्मिक चलचित्रों को देखता है। इसी प्रकार एक बौद्ध मन्दिर में एक बिल्ली है जो सबके साथ अपने अगले पैर उठाती है और प्रार्थना करती है। मन्दिर के पुरोहित के अनुसार, यह बिल्ली जो है वह पिछले जन्म में एक नितान्त धर्मात्मा व्यक्ति रही होगी। स्थिति इतनी नाजुक हो गयी है कि मन्दिर में पूजा के लिए लोग कम आते हैं और बिल्ली को देखने ज्यादा। यह उचित ही है कि बड़े-बड़े लोग इसी कारण पशुओं पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं और आदमी पर कम।

अमेरिका के राष्ट्रपति बुश की पत्नी अपनी पालतू कुतिया से इतना ज्यादा स्नेह करती हैं कि जब उसके (यानी कि कुतिया के) प्रसव की रात आयी तो राष्ट्रपति की पत्नी ने राष्ट्रपति से किसी दूसरे कमरे में सोने को कहा। वे बेचारे ‘लिंकन के कमरे’ में अकेले सोये और उसकी कर्तव्यपरायणता पत्नी अपनी प्रिय कुतिया की सेवा-शुश्रूषा करती रहीं। प्रसव की रात क्या चली कि एक और ख़बर पढ़ने को मिली। भारत के एक प्रमुख नगर में ठीक उस वक्त जबकि फेरे फिर रहे थे, कन्या के पेट में भयानक दर्द उठा। उसे तुरन्त अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसने एक प्यारे बच्चे को जन्म दिया। चूँकि लड़का और लड़की- दोनों की घनिष्ठता के बारे में सब लोगों को सब कुछ पता था, इस घटना का उन दोनों के विवाह पर कोई असर नहीं पड़ा। अस्पताल से आने के बाद, उसकी शादी की बाकी रस्म भी पूरा कर दी गयी। पशुओं की चर्चा समाप्त करने से पूर्व, मैं उस यूनिवर्सिटी की चर्चा जरूर करूँगा जिसने कि ऐसे-ऐसे घटिया लोगों को मानद डॉक्टरेट दी कि नगर के बुद्धिजीवियों ने एक और कन्वोकेशन किया और एक गधे को ‘साहित्य के डॉक्टरेट’ की उपाधि दी। गधे को बाक़ायदा गाउन पहनाया गया और दीक्षान्त समारोह के बाद उसे नगर में शान के साथ घुमाया गया। कौन कह सकता है कि इस देश के लोग हास-परिहास और मौलिकता में किसी दूसरे देश से पीछे पड़ते हैं ?

विधान सभाओं में- और कभी-कभी तो संसद तक में- इतना शोरगुल होता है कि माननीय सदस्य क्या कह रहा है, यह किसी को सुनाई नहीं पड़ता। विधान सभाओं में तो हाथापाई तक की नौबत आ जाती है। अभी-अभी एक विधान सभा में विरोधी पक्ष की एक सुन्दर महिला तक से अभद्र व्यवहार किया गया। विरोधी पार्टियाँ इतनी ज़्यादा और इतनी स्वार्थी हैं कि आजादी के इतने वर्ष के बाद भी, कोई ऐसी सशक्त पार्टी नहीं है जो ज़रूरत पड़ने पर सरकार बना सके। राजगोपालाचारी जी ने कहा था कि जिस प्रजातन्त्र में सशक्त विरोधी पक्ष नहीं होता, वह प्रजातन्त्र तानाशाही से भी बदतर होता है।

मैं उन लोगों में से हूँ जो जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से प्रसन्न हो जाते हैं। अखबारों में भी जितना ध्यान मैं छोटी-छोटी घटनाओं पर देता हूँ, उतना ध्यान मैं गम्भीर मुद्दों पर कभी नहीं देता। मगर हमारे समाचार पत्र इतने स्वार्थी हैं कि वे मेरे-जैसे साधारण पाठकों पर भी कभी ध्यान ही नहीं देते। वे तो उन घटनाओं में दिलचस्पी रखते हैं जिनके छपने से उनकी ब्रिकी बढ़े। पिछले एक वर्ष से सारे-के-सारे समाचार पत्र केवल दो मुद्दों पर ही जुटे हैं; एक मुद्दा है बोफ़ोर्स तोपों की दलाली का और दूसरा है ठक्कर आयोग की रिपोर्ट का। इन मुद्दों को लेकर अख़बारनवीसों ने जितना धन कमाया है।, उतना इससे पहले शायद कभी नहीं कमाया। मैं पूछता हूँ कि क्या इन समाचारों और अटकलबाजियों के अलावा, देश-विदेश में कुछ और ऐसा नहीं घटा जिस पर विस्तार से ध्यान दिया जाता ?

विदेशों में पत्रकारिता के मापदण्ड कुछ अलग हैं। सबसे पहला समाचार पत्र शायद चीन में सन् छ: सौ उन्नीस में निकला था। अब तो स्थिति यह है कि अकेले इंगलैण्ड में लगभग दो हजार अमेरिका में लगभग बीस हजार समाचार पत्र रोज़ छपते हैं। लन्दन का ‘टाइम्स’ सन् सत्रह सौ पिचासी में निकला था और वह अपनी स्वतन्त्रता और निष्पक्षता के कारण आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण समझा जाता है जितना कि वह दो वर्ष पूर्व था। लॉयड़ जार्ज ने एक बार ‘हाउस ऑफ़ कॉमन्स’ में कहा था कि मेरे नाम से जो वक्तव्य अखबार में छपा है, वह सरासर गलत हैं मगर क्योंकि अखबार ‘टाइम्स’ है, मैं उसमें छपे वक्तव्य को सच स्वीकार करता हूँ और उस वक्तव्य के लिए खेद प्रकट करता हूँ।

समाचार पत्रों में जो नीरसता आती जा रही है, वह दो मुद्दों के कारण काफी टूट जाती है। एक मुद्दा है सलमान रुश्दी की किताब का और दूसरा मुद्दा है श्रीमती पामेला सिंह का। रुश्दी साहब ने अपना उपन्यास लिखकर कितनी गलती की, इसका अहसास उन्हें अब तक हो गया होगा। हाँ, अलबत्ता इतना जरूर है कि यदि वह उपन्यास पहले दस हज़ार बिकता तो अब दस लाख का बिकेगा। दूसरा मुद्दा है, पामेलो बोर्डस का जो जन्म से भारतीय हैं और जिनका असली नाम पामेला सिंह है। क्रिस्चन कीलर के बाद वे दूसरी रूपसी हैं जिन्होंने ब्रिटेन के समाज और वहां की सरकार तक को हिला दिया है। मुझे गर्व है कि वे जन्म से ही भारतीय हैं। मैं पूछता हूँ कि यदि हम रानी दुर्गावती, रानी अहिल्याबाई, रानी लक्ष्मीबाई और रानी सारन्धा जैसी वीर नारियों को जन्म दे सकते हैं तो क्या हम क्रिस्चन कीलर जैसी विषकन्या को पैदा नहीं कर सकते ?

(धर्मयुग, बम्बई)

बिहार, जनसंख्या और प्रेमगीत


बिहार


दो अगस्त सन् छियासी की ‘जनसत्ता’ में पढ़ा कि राँची मानसिक चिकित्सालय में एक रोगी की आंखें निकाल ली गयीं। अस्पताल के डोम में बताया गया कि वह ऐसी सैकड़ों लाशें फूँक चुका है जिनकी आँखें निकाल ली गयी थीं। इन आँखों को कब, किसने और क्यों निकाला, इसका उत्तर वह नहीं दे पाया। मेरा तो निश्चित मत है कि पागलखाने में काम करते-करते उस कर्मचारी का निज़ी दिमाग भी पटरी से उतर गया था। और अगर बह बात सही है तो जरूर चिन्ताजनक है।

 चिन्ताजनक इस कारण नहीं कि मामला आँखों का है (क्योंकि आँखें जो हैं वे मात्र चर्मचक्षु हैं, ज्ञानचक्षु जो होते हैं वे तो मनुष्य के भीतर फिट होते हैं), चिन्ता का कारण यह है कि यह क्रिया बिहार में ही सम्पन्न क्यों की गयी ? हरिजन जलाये जाते हैं तो बिहार में रेलगाडियाँ पुल तोड़कर नदियों से आलिंगन करती हैं तो बिहार में, कैदी अन्धे किये जाते हैं तो बिहार में, बिना अदालत में पेश किये सैकड़ों आदमी सालों तक यूँ ही जेलों में पड़े रहते हैं तो बिहार में और अब अन्त में चलकर पागलखाने में कुछ हादसा हुआ तो वह भी बिहार में। बुद्ध और महावीर की इस भूमि को क्या हो गया ? सारे अपराध बिहार में ही क्यों होते हैं ? क्या भारतवर्ष में और राज्य नहीं है जो बिहार का भार उठा सके ? मैं सरकार से प्रार्थना करता हूँ कि वह बिहार की इस ‘मोनोपाली’ को समाप्त करे और अपराधों का विकेन्द्रीकरण करे। नागार्जुन, रेणु और विद्यापति की भूमि कभी दूसरों का हक नहीं छीनेगी- यह मेरा विश्वास है। आज का अख़बार पढ़कर जहाँ यह दुःख हुआ कि हमारे भूतपूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वैद्य मारे गये, वहाँ यह देखकर सन्तोष भी हुआ कि कम-से-कम यह क्रिया बिहार में नहीं, वरन् महाराष्ट्र में सम्पन्न की गयी।

मेरा सरकार से निवेदन है कि वह अपराधों का कुछ इस प्रकार विकेन्द्रीकरण करे कि प्रत्येक राज्य किसी अपराध-विशेष के बारे में ‘स्पेशलिस्ट’ बन सके। उदाहरण के लिए यह निश्चित किया जाए कि जेब काटने की वारदातें सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही होंगी, हरिजन जलाए जाएँगे तो मात्र मध्य प्रदेश में ही जलाये जाएँगे और रेल-दुर्घटना करायी जाएँगी तो वे मात्र महाराष्ट्र में ही करायी जाएँगी। अगर कोई राज्य किसी दूसरे राज्य के काम में दखल देगा तो वहाँ गर्वनर का शासन लागू कर दिया जाएगा।

उपरोक्त सन्दर्भ में यह संतोष की बात है कि घर की बहूरानी को जला देने की प्रथा मात्र दिल्ली (जिसमें शाहदरा शामिल है) में प्रचलित है और वहाँ तो इसने एक कुटीर-उद्योग का स्थान प्राप्त कर लिया है हर तीसरे दिन कोई-न-कोई बहु स्टोव पकड़ते हुए आग पकड़ लेती है और सती हो जाती है। स्टोव की आग सास को क्यों नहीं पकड़ती, यह मेरी समझ में कभी नहीं आया। अपराधी पकड़ा जाता है, सैशन्स की अदालत उसे फाँसी की सजा देती है, हाईकोर्ट मुजरिम को निर्दोष पाता है और सुप्रीम कोर्ट जो है वह उसी व्यक्ति को फिर अपराधी ठहराता है। तथ्य वहीं रहते हैं, गवाह वहीं रहते हैं और कानून वहीं रहता है, मगर अदालतें हैं कि इतने गम्भीर मामले में भी अलग-अलग निष्कर्ष निकालती हैं। देश के नागरिक हैं जो अपनी पिछली टाँगों पर खड़े रहते हैं। इसके अलावा और चारा ही क्या है ?


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