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कहानी संग्रह >> फसादात के अफसाने

फसादात के अफसाने

जुबेर रेजवी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13863
आईएसबीएन :9788126716722

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इन सबसे अलग फ़सादात का जो चेहरा अपने असली रूप में हमारे सामने आता है वो केवल साहित्यकार, रचनाकार के जरिए ही आता है।

1947 से अब तक हमारी राजनीति फ़सादात कराने वाले को पहचानने में, उसे नंगा करने में आगे नहीं आई। कारण ये कि फ़सादात कराना सारे देश की राजनीति के दाँव-पेंच का अंग बन चुका है। राजनीति से जुड़े सारे दल एक दूसरे को इलज़ाम देते रहते हैं लेकिन फ़सादात की जाँच करनेवाले कमीशन कुछ और कहते हैं। इन सबसे अलग फ़सादात का जो चेहरा अपने असली रूप में हमारे सामने आता है वो केवल साहित्यकार, रचनाकार के जरिए ही आता है। लेखक और रचनाकार ही ने फ़सादात के बारे में सच-सच लिखा है। उसी ने फ़सादात के मुजरिम को पहचाना है। दुख झेलनेवाले के दुख को समझा है। इस संग्रह में कुछ अफ़साने तो वो हैं जो बँटवारे के फ़ौरन बाद होनेवाले साम्प्रदायिक दंगों पर लिखे गए और कुछ वो हैं जो बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से पहले और उसके बाद होनेवाले फ़सादात पर लिखे गए। इसमें कई अफ़साना-निग़ार ऐसे भी हैं जो खुद इस तूफ़ान से गुज़रे थे। फ़सादात के कारण बदलते रहे और साथ ही उनके बारे में लेखक का रवैया भी बदलता रहा, फ़सादात का अधिकतर शिकार बननेवाला समुदाय लेखक की सारी सहानुभूति समेटने लगा। वे राजनैतिक दल भी पहचान लिए गए जो फ़सादात की आग लगाते रहते हैं। पहले के अफश्सानों में हिन्दू मुसलमान की और मुसलमान हिन्दू की जानो-माल की हिफ़ाजत करते हैं लेकिन बाद के फ़सादात में लेखक ने ये महसूस किया कि फ़सादात जब भी भड़कते हैं तो हिन्दू-मुसलमान के मेल-जोल में एक फ़ासला-सा आ जाता है। इस ट्रेजिडी की गूँज ‘नींव की ईंट’, ‘सिंघारदान’, ‘जिन्दा दरगोर’ जैसे अफ़सानों में सुनाई देती है। फ़सादात ने हमारे जीवन और सायकी में एक मुस्तक़िल दहशत और लूटे जाने का खौफ़ और भय पैदा कर दिया है। इस भय, डर और खौश्फश् की सायकी को ‘बग़ैर आसमान की ज़मीन’, ‘आदमी’ और ‘खौफ़’ जैसे अफ़सानों में महसूस किया जा सकता है।

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