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चाँदनी बेगम

कुर्रतुल ऐन हैदर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :310
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 140
आईएसबीएन :81-263-1256-4

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उर्दू की महान कथाकार का लखनऊ के परिवेश में रचा-बसा एक मर्मस्पर्शी उपन्यास। उर्दू से हिन्दी में।

Chandni Begam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गले-सुर्ख़

नदी-किनारे निचली ज़मीन का वह बड़ा हिस्सा रंग-बिरंगे फूलों से पट गया है-गुल अब्बास, गेंदा, हजा़रा, सूरजमुखी और चाँदनी। बंजारे यहाँ पड़ाव करते हैं और जुम्मा धोबी कपड़े सुखाता है। अपने गधों को फूलों में चरने के लिए छोड़ देता है और अरहर की खेती भी करता है। कभी-कभार कोई टूटी हुई ज़ंग लगी हुई चीज़ हल की नोक से टकरा जाती है। वह उसे उठाकर ग़ौर से देखता है और मायूसी के साथ दूर फेंक देता है भुरभुरी मिट्टी के अन्दर केंचुए अपने काम में लगे रहते हैं—सारी उम्र अपने काम में मसरूफ़। खै़र, केंचुओं की क्या उम्र और क्या ज़िंदगी  मगर वे अपने घर बनाने में जुटे हुए हैं और गीली मिट्टी की नन्हीं-नन्हीं ढेरियाँ बनाते रहते हैं। एक तरफ़ ग्वालों और घोसियों ने सब्ज़ियाँ उगा ली हैं। बहुत ही उपजाऊ मिट्टी है। जिस फ़स्ल में जो चाहिए बोइये, उगाइए।

भारी-भरकम, सिल्वर ग्रे बाल, काले फ्रेम की ऐनक, मुँह में हवाना सिगार, कामियाब और मुतमव्वल1 बैरिस्टर की क्लासिक तस्वीर। शेख़ अज़हर अली ज़मीन-जायदाद के पेचीदा मुक़द्दमें जीतने के लिए मशहूर थे। उनका बेटा क़ंबर अली नई चाल का नौजवान स्टूडेण्ट यूनियन में प्राइवेट प्रापर्टी के ख़िलाफ धुँआधार तक़रीरें करता। बाप के बरअक्स दुबला-पतला ज़र्द-रू, नाज़ों का पला इकलौता बेटा, ज़बान में थोड़ी-सी हकलाहट, जो लोगों का कहना था कि बाप के रोब-दाब की वजह से बचपन में पैदा हो गई थी। उस पर क़ाबू पाने के लिए ही उसने फ़न्ने-तक़रीर की मश्क़ की और रफ्ता-रफ्ता स्टूडेण्ट लीडर बन गया। उसकी माँ बदरुन्निसा अज़हर अली जो कि बिट्टो बाजी कहलाती थीं, सोशल रिफॉ़र्मर थीं; ज़नाना जलसो में औरतों के हक़ूक़ पर स्पीचें देतीं। मुमताज़ ख़वातीन के जो वफ़्द2 सुर्ख़ चीन, यूरोप, या मिस्र वग़ैरह भेजे जाते उनमें शामिल होती थीं।
1.मालदार 2.प्रतिनिधि मण्डल ।

माँ-बाप और बेटा अपनी-अपनी जगह तीनों मुक़र्रिर1 और ज़बानदाँ। का़जी़ के घर के चूहे सयाने, बैरिस्टर के पुराने मुंशी सोख़्ता नामी शायर थे। कुछ लोगों का ख़याल था कि बिट्टो बाजी की पेशख़िंदमत अलहम्दो किसी डोमेस्टिक साइंस कॉलेज में लेक्चरर हो सकती है, क्योंकि वह कोठी के नौकरों को कंट्रोल में रखने के लिए सुबह से शाम तक फ़साहत2-ओ-बलाग़त के दरिया बहाती रहती थी।
नौकरों की टोली अपनी सजधज से इस तरह की थी जैसे लखनऊ के कुम्हारों के बनाए हुए नौकर-नौकरानियों के नफी़स व नाज़ुक छोटे-छोटे मॉडल आतिशदान पर एक क़तार में रखे जाते थे, जिनका सेट अंग्रेज़ एक ज़माने में अपने साथ विलायत ले जाते थे।

शाही3 में यह इलाक़ा शहर से बाहर और बैरिस्टर अज़हर अली के पुरखों की मिल्कियत था। अंग्रेजी़ राज होते ही इस तट पर कोठियाँ बनने लगीं। बैरिस्टर साहबके दादा ने अपनी ज़मीन का बड़ा हिस्सा बेंचकर बची-खुची ज़मीन पर कोठी बनायी। आम और अमरूद का बाग़ लगवाया, इसके साथ कच्ची बंगलिया, अस्तबल, ज़मींदोज़ मुर्ग़ीख़ाना, धूपघड़ी, बहुत बड़ा सेवकालय4 जिसमें अब अलाउद्दीन ड्राइवर, रमज़ानी ख़ानसाम, ईदू ख़ितमतगार अपने बाल-बच्चों के साथ रहते थे। बिट्टो बेगम की पेशख़िदमत अलहम्दो बेवा थीं। क्वार्टर के नुक्कड़ पर नत्था धोबी और उनके घरवालों का राज था। क़रीब ही उनकी भट्ठी थी। सामने भांग के पौधे उग आये थे। भगवानदीन माली और फटकू चौकीदार बाग़ के कॉटेज में रहते थे। होली के दिन बूटी घोंटते और लहक-लहक कर गाते। बिट्टो बेगम भाँग की हरी-भरी खेती का सफ़ाया करवा देतीं, लेकिन वह फिर उग आती। भैसों का बाड़ा किचन गार्डेन के नज़दीक था। हिरन और एक नील गाय भी वहीं पले हुए थे जो क़ंबर मियाँ के शिकारी दोस्त रघुवीर प्रसाद सिंह ने उनको लाकर दिए थे। बैरिस्टर साहब भी शिकारी थे। जंगलो से वापसी पर हिरन के कबाब की दावत की जाती। रमज़ानी जब कबाब बनाते, अलहम्दो फ़लसफ़ियाना5 अंदाज़ में कहतीं—इस बेज़बान जानवर के नसीब  साधू इसकी खाल पर बैठें। शायर इसकी आँखों पर कबित्त बनावें—दुखिया जलकर कबाब !
कुछ लोगों के नसीब ऐसे थे कि उनको हर चीज मयस्सर6 थी—कपड़े धुलवाने के लिए नदी, अपने बाग के फल और सब्जियाँ, खिदमत के लिए घरेलू नौकर। जो अब कुछ चीजें सरकती जा रहीं थी, जैसे उर्दू-रस्मुलखत7, तरक्कीपसन्द तहरीक8 और खानदानों की अटूटता। खानदान अब ऐसे हो गए थे जैसे नाक में मुर्गी का पर—आधा इधर-आधा-उधर।

1.मीठी बोली (खुशगोई), 2.शालीन बोलचाल, 3.किंग ग़ाजीउद्दीन हैदर (1835 ई. से लेकर 1857 ई. तक) जब अवध की नवाबी को ईस्ट इंडिया कंपनी ने शाही में बदल दिया था। 4.नौकरों के घर, 5.दार्शनिक, 6.उपलब्ध, 7.उर्दू-लिपि, 8.प्रगतिशील आंदोलन।

ख़ानदानों की अटूटता। ख़ानदान अब ऐसे हो गये थे जैसे नाक में मुर्ग़ी का पर-आधा इधर आधा उधर।
नदी के किनारे कोठी की चहल-पहल में चमन के सारे बासी शामिल थे—तोते, मैनाएँ, कोयलें, लालसरे। बैरिस्टर अज़हर अली नामी क़ानूनदाँ। बिट्टो बाजी मशहूर समाजी कार्यकर्ता। क़ंबर अली स्टूडेण्टस् के नेता। सुबह से शाम तक भाँति-भाँति के आदमियों का ताँता बँधा रहता। पहले तालुक़ेदार अपने अनन्त मुक़द्दमों के सिलसिले में लंबी मोटरों से बरसाती में उतरते थे। हिन्दू राजाओं के मोटे-ताज़े गोद लिए हुए बेटे जो आम तौर पर ‘बेबी’ कहलाते थे, बग्घियों पर सवार रेशमी कुर्ते और झाग ऐसी धोतियाँ पहने हुए हीरे चमचमाते आते थे।

अचानक सीन बदला। तालुक़ेदार व बेगमात कारों, पालकियों और बग्घियों समेत ग़ायब। बहुत जल्द ताँगे और एक्के भी ओझल हो गए। साइकिलों और रिक्शाओं की बाढ़ आ गयी। उन पर सवार ऐसे मुवक्किल बस्ते थामे बरसाती में दाख़िल होते जिनकी इमलाक1 किसी एक रिश्तेदार के पाकिस्तान चले जाने से मतरुका2 हुई मान ली गई थी। इनमें से बहुत से ऐसे थे जो इससे पहले मोटरों पर आया करते थे।
जो बेदख़्ल किसान मतरुका क़रार दिए जाने वाले खेतों के सिलसिले में फ़रियाद लेकर आते, अज़हर अली निःशुल्क उनकी क़ानूनी मदद करते। वे बेचारे अक्सर बतौर नज़राना3 उनके लिए डलिया में ताज़ा सब्ज़ी या गुड़ की भेलियाँ ले आते और इन्तज़ार में सब्र से आम के पेड़ों के नीचे बैठे रहते। नमाज़ के वक़्त बाग़ के कोने में बनी छोटी-सी पुरानी टूटी मसजिद में जाकर नमाज़ पढ़ आते और फिर इन्तज़ार शुरू कर देते।

बाग़ के दूसरे कोने में नदी की तरफ़ पीपल का बूढ़ा पेड़ था। उसकी जड़ में किसी ज़माने में किसी ने नदी से निकालकर एक काला गोल पत्थर गाड़ दिया था, उसके चारों तरफ़ लखौरी ईंटों का चबूतरा था। मुंशी भवानी शंकर, भगवानदीन और फटकू वहाँ पूजा-पाठ करते।
बेदख़्ल किसानों के अलावा कोठी पर नान व नुफ़क़ा (रोटी, कपड़े और बच्चों का ख़र्च) की मुहताज, तलाक़ दी हुई औरतों की भीड़ बढ़ी। ‘लाला’ के पौधों के बीच से गुज़रती खामोश काले बुर्क़ों वाली औरतें, अदब के रसिया क़ंबर अली को वह लोरका की किसी भयंकर स्पेनिश ट्रेजडी की किरदार मालूम होतीं। अक्सर मुंशी सोख़्ता उनको बेगम साहिबा के पास अंदर पहुँचा देते; वह उनके मसायल4 हल करने की कोशिश करतीं। उन बेसहारा औरतों में से कुछ की लड़कियों ने हिन्दुओं से शादी कर ली थीं। बिट्टो बेगम के कमरे में अलहम्दो इस्तम्बोली ग़लीचे पर बैठकर हुस्नदान सामने रखकर सबके लिए पान लगातीं और इज़हारे-ख़याल1 करती जातीं, ‘‘बेगम साहब बरे क्या करो—लड़के गूलर का फूल हुए जा रहे हैं ! सब चले गए।’’
1.जायदाद, 2.त्यागी हुई, 3.उपहार, 4.समस्याएँ।

चाँदी की थाली में पान रखकर बेगम साहब को पेश करतीं। वह बुर्क़ावालियों को भी देतीं जो उँगलियों में गिलोरियाँ थाम झुककर आदाब अर्ज़ करतीं, और उनमें से कोई एक कहती—
‘‘अल्लाह बिट्टो बाजी, हमारी चार लड़कियाँ घर में बैठी हैं, कोई रिश्ते बतलाइए।’’
वह सोचतीं—अल्लाह रखे हमारे एक ही लड़का है, यह दुखियारी लड़कियाँ बेशुमार। इनमें से किसी एक को ब्याह लावें तो कितना पुण्य कमाएँ !
क़ंबर अली अपने वालिद के इन मुवक्किलों की परेशान सूरतों को देखते-देखते ही अपने सियासी खयालात में ज़्यादा कट्टर होते गए। अंग्रेज़ से आज़ादी, बुर्ज़ुआ जमहूरियत सब बकवास  अब उनके मियाँ जान यह उम्मीद किस तरह कर सकते थे कि वह राजा अनवर हुसैन ऑफ तीन कटोरी की सबसे छोटी बेटी सफ़िया सुल्ताना से शादी करेंगे जिनकी उनसे ठीकरे की माँग थी ?
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई।
राजा साहेब के एक पुरखे ने कैथ के जंगल में किसी पैदल प्यासे गुद़ड़ीपोश को तीन कटोरी सत्तू पिलाया था। कहते हैं वह बुज़ुर्ग एक पहुँचे हुए फ़कीर थे। ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि कुछ दिनों के बाद ही उनके पुरखे को बादशाहे-वक़्त ने जागीर दी, जो तीन कटोरी राज कहलाता है।

राजा अनवर हुसैन से जलनेवाले उनकी तीन साहबज़ादियों को तीन कटोरी के नाम से याद करते। बड़ी ज़रीना सुल्ताना उर्फ जेनी की मियाँ से ठनी रही। वह कराची चले गए। जेनी अपने बच्चों शहला, आमिना और परवेज़ समेत मैके में रहती थीं। मँझली परवीन उर्फ पेनी का बी.ए. करते ही टेलीफ़ोन पर ब्याह हुआ। वह भी कराची सिधारीं। छोटी साफ़िया बहुत खूबसूरत थीं और बहुत पढ़ी-लिखी। लेकिन नौउम्री में पोलियो ने उसका बाँया हाथ बेकार कर दिया था।
सफ़ेद रंग का तीन कटोरी हाउस और बैरिस्टर अज़हर अली की पीली कोठी तक़रीबन आमने-सामने थीं। बीच में रुपहली नदी। सफ़िया की सहेलियाँ कभी गुनगुनातीं, धीरे बहो नदियों ‘धीरे बहो नदिया धीरो बहो, हम उतरबा पार’ तो पहले वह मुस्करा देती थीं, अब चिढ़ने लगीं। परवीन बाजी कराची से आती तो शिकायत करती, वहाँ हम लोग तंज़2 करते हैं, कहते हैं तुम्हारे यहाँ की तो सब मुसलमान लड़कियाँ हिन्दुओं से शादी कर रही हैं,
1.विचार प्रकट करना 2.व्यंग्य

अपनी छोटी बहन की ख़ैर मनाओ। हम बहुत समझाते हैं कि आठ करोड़ की आबादी में गिनती की चंद लड़कियों ने ऐसा किया तो इसे जनरलाइज़ न करो। आठ करोड़ में अगर आधी औरतें हैं और उनमें से आधी अगर बिन ब्याही, तो उनके ख़याल में दो करोड़ लड़कियों ने....मगर सही आँकड़े कौन देखता है ! रानी सौलत ज़मानी यह सब सुनकर दहला करतीं। सफ़िया नाक-भौं सिकोड़े बैठी रहतीं। बड़ी बज़िया ज़रीना बात आगे बढ़ातीं--‘‘और हमारे यहाँ के तो बेस्ट फ़ेमलीज़ के एक से एक बढ़िया लड़के जो यहीं मौजूद हैं, इंडिया में एक से एक अच्छे ओहदों पर, वो अदबदाकर हिन्दू लड़कियों से शादी कर रहे हैं। कॉलेज, दफ़्तर, क्लब हर जगह तो वही उनको मिलती हैं।’’
‘‘अपनी लड़कियों को दमपुख़्त1 रखिएगा तो यही होगा। इन्हीं बेचारी फ़ेनी को आप लोगों ने किलाबन्द कर रखा है।’’ परवीन उर्फ पेनी जवाब देतीं। वह कराची में रहकर बहुत मॉडर्न हो गयी थीं। वहाँ जिमख़ाना क्लब में जाकर बालरूम डांस भी करती थीं।
तंग आकर सफ़िया सुल्ताना उर्फ पेनी ने तीन कटोरी हाउस की दूसरी मंजिल पर ‘सेंट जॉन्स कॉन्वेंट’ का बोर्ड लगाया और स्कूल खोल लिया।
बेगम बदरुन्निसा अज़हर अली को नए हिन्दुस्तान में जहालत और बेवक़ूफ़ी और अहमक़ाना2 पश्चिमी तहज़ीब3 के इस सैलाब ने बेहद दुःखी कर रखा था। एक शाम रानी साहिबा से मिलने आयीं। बरसाती पर स्कूल का बोर्ड लगा देखा तो अंदर गईं। सफ़िया को आड़े हाथों लिया--‘‘गज़ब ख़ुदा का बिटिया, तुम तो ख़ुद सेंट एगन्सिएज़ की पढ़ी हो। इतनी जाहिल हो गईं ? क्या तुम कैथोलिक नन बन गई हो और यह ख़ानक़ाह4 क़ायम की है, पोप ऑफ़ रोम से इजाज़त लेकर ? आखिर यह तुमसब को हुआ क्या है ? धड़ाधड़ यह बोगस कॉन्वेंट खुल रहे हैं।’’

सफ़िया ने चिढ़ कर जवाब दिया—‘‘बिट्टो चची ! इंग्लिश मीडियम स्कूल अगर कॉन्वेंट न कहलाए तो लोग अपने बच्चे नहीं भेजते। अब तो यहाँ दुर्गादास कॉन्वेंट और अब्राहम लिंकन कॉन्वेंट भी खुल गए हैं। और चची, मैं अभी परवीन बाजी के पास कराची गयी थी, वहाँ भी गली-गली कॉन्वेंट नज़र आए। वह तो इस्लामी मुल्क है। ख़ुद परवीन बाजी की चचेरी ननद ने स्कूल खोला है, उसका नाम रखा है पाक कॉन्वेंट।’’
बिट्टो बाजी सर थामे बैठी रहीं--‘‘डिपार्टमेंट ऑफ़ एजुकेशन भी इस कूड़मग़ज़ी और धाँधली पर कुछ नहीं करता ?’’
1.वह, खाना जो हाँडी के ढक्कन को आँटे से मूँदकर पकाया जाता है ताकि भाप बाहर न निकले, बुर्का-बंद, 2.मूर्खतापूर्ण, 3.संस्कृति, 4.आश्रम।
सफ़िया ने जवाब नहीं दिया। बेवक़्त की रागिनी छेड़ना बिट्टो चची की पुरानी आदत थी। हमेशा किसी न किसी सुधार के पीछे ? यह नहीं कि अपने हीरो बेटे को कुछ नसीहत करें।
युनिवर्सिटी छोड़ने के बाद नदिया के पार बसने वाले सैयाँ जी बैरी हो गए। पुराने सिस्टम के खिलाफ़ ऐलान-ए-जंग1 कर दिया।
इस मक़सद से एक पन्द्रह-रोज़ा मैगज़ीन निकालने का इरादा किया। बाप ने लाड़ले बेटे को उसकी पसंद के हल्के-फुल्के काम में लगाए रखने के लिए मैगज़ीन के लिए, बड़ी रकम का एक एकाउंट खोल दिया। वह पंडित जवाहरलाल नेहरू का गोल्डन एरा था, मैगज़ीन का नाम भी इसीलिए ‘रेड रोज़’ रखा। मैगज़ीन निकलते ही हिट हो गई।
तीन कटोरी ज़ब्त हो चुकी थी, मगर राजा साहब एक छोटे से पहाड़ी होटल और कैथ के एक जंगल के अभी तक मालिक थे। छोटे साहबज़ादे अबरार मियाँ उर्फ़ बॉबी की शादी एक कलेक्टर साहेब की बेटी से तय हो गई थी, जो चाहते थे कि रिटायर होकर अलीगढ़ में सेटेल होने से पहले अपने फ़र्ज़ से मुक्त हो जाएँ। दोनों जानिब तैयारियाँ शुरू हुईं। बिट्टो बाजी समाज-सुधार करते-करते थक गईं थीं। एक-चौथाई सदी पहले यह फ़र्ज़ अपने ज़िम्मे लिया था। उस वक़्त उनकी समझ में न आया था कि कहाँ से शुरू करें। लेकिन निहायत ख़ैरख़्वाह क़ौमपरस्त2 ख़वातीनों का एक गिरोह उनके साथ था। वह सब तरह के सुधारों में जुटी रहतीं। वह ज़माना भी अचानाक ख़त्म हो गया। वो नेक बीवियाँ ज़्यादातर अपनी आख़िरी उम्र को पहुँचकर जन्नतनशीन और स्वर्गवासी हुईं। उनकी औलादें आदर्श के बजाय अपने फ़ायदे और समझौते की तरफ़ बढ़ीं।

सँभल के बैठ गए महमिलों3 में दीवाने।
बिट्टो बाजी के शौहर और बेटे, दोनों उनकी तरह अब तक आदर्शवादी थे। एक दिन वह तीन कटोरी हाउस से वापस आईं तो बहुत ज़्यादा उदास थीं। शाम को डिनर-टेबल पर शौहर और बेटे से कहा—वह बात करती थीं तब भी लगता था कि तक़रीर कर रही हैं--‘‘हमारी कम्युनिटी के मौजूद हालात यूँ ही अच्छे नहीं हैं, ऊपर से काहिली, बेज़ारी, बेहिम्मती ने लुटिया डुबो दी ! और जो पैसेवाले हैं, उनके वहाँ वही अलल्ले-तलल्ले  एक तो सफ़िया सुल्ताना का कॉन्वेंट स्कूल देखकर जान जली। बॉबी मियाँ के ब्याह की तैयारियों में जो रुपया वो लोग बहा रहे हैं, उससे तो ग़रीब औरतों के लिए एक इंडस्ट्रियल होम खोल सकते थे।’’
1.युद्ध की घोषणा, 2.राष्ट्रवादी महिलाएँ, 3.ऊँटों पर स्त्रियों के बैठने के कजावे।

क़ंबर अली ने जवाब दिया--‘‘अम्मीजान ! इन जवालपरस्तों1 से बहस फुज़ूल है।’’ क़ंबर मियाँ अपनी गुफ़्तगू में जो नई परिभाषाएँ इस्तेमाल करते थे, वह बिट्टो बाजी ने भी सीख ली थीं। पैदावारी रिश्ते, ज़वालपरस्ती, रुजअत पसंदी2, मेहनतकश अवाम का इस्तेहसाल3।
‘अक़दार की शिकस्त4 व रेख़्त’ अभी चलन में नहीं आया था, न ‘सनअती तमद्दुन में इनसान की तन्हाई और बेचेहरगी’5।
मुँशी भवानी शंकर सोख़्त पुरानी चाल के आदमी थे। दूसरी सुबह सबेरे हाते में बने अपने पीपलवाले मंदिर से लौटकर अन्दर गए और शुभ घड़ी जान के बेगम साहब से बात शुरू की--‘‘सरकार, राजा साहब के मैनेजर कालीचरन हमें कल अमीनाबाद में मिले थे।’’
‘‘अच्छा, कालीचरन नैनीताल नहीं गए ? हमारा ख़याल था, राजा साहब ने उन्हें अपने होटल पर भेज दिया है।’’
‘‘वही तो कह रहे थे। बॉबी मियाँ के ब्याह के साथ-साथ अगर सफ़िया बिटिया के लिए भी तय हो जाए, तो वही नैनीताल लौटकर होटल के कमरे-वमरे उनके लिए ठीक करवा दें।’’
‘‘भवानी शंकर  भय्या रईसज़ादियों से बिदकने लगे हैं। अच्छा ज़रा उन्हें बुलाना तो सही !’’
‘‘सरकार ! भय्या शरबरी देवी के साथ प्रेस गए हैं।’’
बिट्टो बेगम के कान में घंटी बजी—शरबरी, करुना, सरिता, शोभा....
‘‘यह भी तो नई हवा चली है भवानी शंकर !’’
‘‘हवा-सी हवा ! झक्कड़ चल रहा है बेगम साहब !’’
हमपल्ला6 वालिदैन की बेटियाँ, जर्नलिस्ट—आर्टिस्ट, क्लासिकल डांसर......
इंटर-कम्यूनल शादियाँ अगर बहुत ऊँचे तबक़े में हो रही थीं, तो दोनों तरफ़ के हमरुतबा माँ-बाप आमतौर पर ख़ामोश रहते थे। बच्चों के नाम बे-माने7 क़िस्म के कबीर, राहुल, समीर, मोना, सीमा, या रूसी नाम नीना, मीरा, ज़ोया, नताशा रखे जाते । ईद-दीवाली बतौर कल्चरल फ़ेस्टिवल, उनके घरों पर मनाई जातीं।
क़ंबर अली लंच के लिए घर आए। ख़ुद ही शरबरी का ज़िक्र छेड़ाः ‘‘आज शरबरी बहुत झुँझलाई हुई थीं।’’
1.पतनवादी, 2.रूढ़िवादिता, 3.शोषण, 4.मूल्यों का भंग होना, 5.औद्योगिक सभ्यता में मनुष्यों का अपनी पहचान खो देना, 6.एकसमान पद-प्रतिष्ठा के, 7.निरर्थक।

‘‘क्या हुआ ?’’ बैरिस्टर अली ने पूछा।
‘‘मियाँ जान1 ! वह इंग्लिश डिपार्टमेण्ट में मॉडर्न लिटरेचर एम.ए. क्लास को पढ़ाती हैं। उनकी दो शागिर्दों की हो गई शादी। वह माँग में खूब सिंदूर रचा के आने लगीं। शरबरी इन दिनों सार्त्र पढ़ा रही है। उनसे कहा—जब तुम लोग माँग में इतना सिंदूर भरोगी, सार्त्र तुम्हारी समझ में क्या आएगा ?’’
बैरिस्टर साहब मुस्कराए--‘‘सिंदूर का सार्त्र से क्या ताल्लुक है ?’’
‘‘मियाँ जान ! सिंदूर हिंदू औरतों की गुलामी की निशानी है, दक़ियानूसियत का सिम्बल—हम लोगों के यहाँ काँच की चूड़ियाँ, हैदराबाद में काली पोथ, साउथ में मंगलसूत्र।’’
‘‘बेटा, सुहागिनों के लिए इन चीज़ों की बड़ी अहमियत है।’’ बिट्टो बेगम ने कहा।
‘‘मर्द क्यों नहीं कुछ पहनते ? शादी के बाद नाक में सेफ़्टी पिन ही लटका लिया करें। शरबरी ने उन लड़कियों से कहा—सिंदूर पोंछ डालो, वरना सार्त्र मैं नहीं पढ़ाऊँगी।’’
‘‘है....है ! हिन्दू सुहागन सिंदूर पोंछ डाले ! यह तुम्हारी शरबती तो दीवानी मालूम होती है और ख़ुद ब्राह्मण बंगालन।’’
‘‘अम्मीजान ! औरतें बेवा हो जाएँ तो चूड़ियाँ तोड़ डालें, सफ़ेद कपड़े पहनें। सारे सिंबल इन्हीं के लिए हैं।’’
बैरिस्टर साहब प्यार से मुस्कराते रहे।
‘‘अपनी-अपनी तहज़ीबी2 रवायात3 का एहतराम4 करना चाहिए अगर वो नुक़सानदह न हों। ’’ उन्होंने कहा।
‘‘सिन्दूर नुक़सानदेह नहीं है ? इसे लगाकर एक औरत मॉडर्न माइंड की मालिक कैसे हो सकती है ?’’
शेख साहब लाडले बेटे की बातों से बहुत लुत्फ़-अंदोज़ हुए। खाना ख़त्म करके कोर्ट चले गए। बिट्टो बेगम ने बेटे से दरियाफ़्त किया--‘‘यह शरबरी का चक्कर क्या है ’’
जब वह नर्वस होते थे, जरा-सा हकलाने लगते थे--‘‘यह....हमारी....का.....कामरेड है।’’
‘‘शादी-वादी का कुछ इरादा है ?’’
‘‘कतई नहीं। झक्की है।’’
‘‘कोई सही दिमाग़ की लड़की तलाश करें, जो सुर्ख़ काँच की चूड़ियाँ पहनने पर एतराज न करे ?’’
1. पिता को आदर से कहते हैं, 2. सांस्कृतिक, 3. परंपरा, 4. सम्मान।

‘‘ज़रूर ! मगर दो शर्तें हैं—नंबर एक कम-से-कम एम.ए., नंबर दो ग़रीब घराना और नंबर तीन ख़ूबसूरत।’’
‘‘शादी के दिन माँग में अफ़शाँ चुनने की इजाज़त है ?’’
‘‘ओ.के.। मगर निकाह के वक़्त नाक में नथ हरगिज़ न पहने, गाय, भैसों की तरह—औरतों की गुलामी का सिंबल।’’
‘‘माँ-बेटे मिलकर घर को साबरमती आश्रम बनाए दे रहे हैं। अब हम अनवर हुसैन को क्या दवाब दें ? भवानी शंकर, कोई तरकीब बतलाओ।’’ बैरिस्टर अली ने मुंशी सोख़्ता से कहा--‘‘अब सुनिए कि बेगम साहिबा आज ज़फ़रपुर तशरीफ़ लिए जा रही हैं किसी ग़रीब लड़की की तलाश में।’’
‘‘यहाँ कुछ कमी है ?’’
‘‘फ़रमाती हैं चैरिटी घर से शुरू करनी चाहिए।’’
अलीमा बानो बिट्टो बाजी की बचपन की सहेली थीं। बड़ी ही मुसीबत की मारी। उनकी भी वही कहानी—शौहर पाकिस्तान फ़रार हुए, वहाँ से तलाक लिख भेजी। अलीमा बानो ने मैट्रिक शादी से पहले किया था, अब बी.ए., बी.टी.। स्कूल में नौकरी करके बेटी को एम.ए., बी.एड. करवाया। दोनों माँ बेटियाँ क़स्बा जफ़रपुर में अपने पुरखों के खंडहर के बचे दो कमरों में रहती थीं और एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा रहीं थी। कॉलेज की मालिक और प्रिंसिपल डेढ़-डेढ़ सौ रुपया की मासिक रसीदें उनसे लेतीं और अस्सी-अस्सी रुपए दोनों को थमा देतीं।
ज़फ़रपुर बिट्टो बेगम का मैका था। हमेशा की तरह अपने छोटे भाइयों के घर उतरीं। अलीमा बानों से मिलने गईं। उनसे कुछ गोल-मोल बात की। अलीमा बानों को अपने कानों पर य़कीन न आया। बिट्टो बाजी ने उनकी लड़की को बचपन के बाद अब देखा। बहुत प्यारी शक्ल की बच्ची थी। बस एक ऩुक्स1 ज़रूर था। मोटे शीशों की ऐनक ने आधा चेहरा छुपा रखा था। खैर, धब्बे तो चाँद पर भी हैं। क़ंबर अली भी तो कोई ऑयल पेंटिंग नहीं थे।

‘‘बहन, क्या करूँ ! लगातार तंगी....बिजली कट गई। लालटेन की रोशनी में पढ़ाई करके इसने अपनी आँखें फोड़ लीं।’’
(1) कमी।
बिट्टो खामोश रहीं। बच्ची हर तरह से अच्छी थी। क़ंबर की दोनों शर्तों पर पूरी उतरती थी। इसके अलावा ग़रीब घर की—दब के रहेगी।
तस्वीर जिसमें वह गाउन पहने डिग्री का रोल हाथ में लिए खड़ी थी, लखनऊ वापस आकर क़ंबर मियाँ को दिखलाई। तस्वीर में उसने ऐनक उतार दी थी। क़ंबर मियाँ देखते-के-देखते रह गए--‘‘बस ऐसी लड़की तो हम चाहते हैं—पढ़ी हुई और ग़रीब घर से ताल्लुक रखने वाली।’’
‘‘ऐसा-वैसा ग़रीब  एक एजुकेशनल शार्क कॉलेज-प्रिंसिपल के रूप में इन माँ-बेटियों की और इन-ऐसी बहुत-सी टीचरों की मजबूरी का फ़ायदा उठा रही हैं।’’
बिट्टो बेगम ने फिर एकदम तक़रीर शुरू कर दी--‘‘तुम अगले महीने के पर्चे में प्राइवेट स्कूलों, कॉलेजों के इस रैकेट पर एक ज़ोरदार नोट भी लिखो।’’
‘‘यक़ीनन1 अम्मीजनियाँ, और हम पहली फुर्सत में आपके साथ ज़फ़रपुर भी चलेंगे। उस बहादुर बा-हिम्मत सिपाही लड़की से मिलेंगे और अगर पसंद आयी, और क्या वजह कि पसंद न आये तो उससे शा.....शादी भी करेंगे।’’
बैरिस्टर अज़हर अली कमरे में आ चुके थे। क़ंबर अली के बाहर जाने के बाद उन्होंने बीवी से पूछा, ‘‘यह तुम लोग क्या अड़ंग-बड़ंग हाँक रहे थे ?’’

‘‘आप देखते जाइए। फिलहाल शरबरी देवी की तरफ से ध्यान हटाने को ख़याल अच्छा है।’’
क़ंबर मियाँ ‘रेड-रोज़’ के सालनामा2 की तैयारियों में बहुत ज़्यादा मसरूफ3 थे। ज़फ़रपुर वाली लड़की के इस जिक्र को भुला दिया। उनकी माँ अपने ग़ैर-मुल्की सफ़र के बंदोबस्त में लग गयीं। ख़वातीन की आलमी4 कॉन्फ्रेंस में शिरकत के लिए जिनेवा गई। मास्को और ताशकन्द होती हुई लौटीं तो देखा कि शौहर पर फ़ालिज गिर चुका है।
बैरिस्टर अज़हर अली छह महीने की बीमारी के बाद खुदा को प्यारे हुए।
बिट्टो बाजी चुने हुए अबरक़ के रंगीन दुपट्टे, बढ़िया रेशमी ग़रारे, कानों में चंबेली के फूल, कलाइयों में सुर्ख़ या सब्ज काँच की चूड़ियाँ, खुशरंग5 रेशमी साड़ियों के लिए मशहूर थीं। अब सफेद खादी, सिल्क की साड़ी या सफेद गरारे के जोड़े में बुझकर रह गईं। रानी सौलत ज़मानी, दूसरी सहेलियों और सबसे ज़्यादा अलहम्दो के इसरार पर कि अल्लाह रखे जवान बेटे की माँ है, खुदा उसकी हज़ारी उम्र करे, उन्होंने काँच की चूड़ियाँ
(1) अवश्य (2) वार्षिकांक (3) व्यस्त (4) अंतर्राष्ट्रीय (5) चटख रंगों की।

अलबत्ता नहीं तोड़ीं। इद्दत1 गुज़ारकर अपना गम गलत करने के लिए और भी ज़्यादा लगन के साथ भलाई के काम में जुट गईं। औरतों के हुकूक़ पर होने वाले एक सेमिनार की सदारत करने दिल्ली गईं। वापसी पर ज़फ़रपुर उतरीं। क़स्बे के रेलवे स्टेशन से बाहर आकर ताँगा किया। भाइयों के घर पहुँचीं। बरोठे के दरवाज़े पर मोटा सा ताला पड़ा था। धक से रह गईं। एक जुलहा पीठ पर गट्ठर लादे आवाज़ लगाता गली में से गुजरा। उनको देखकर चुप रहा; सलाम करके आगे निकल गया। बिट्टो बेगम का सर चकराया। आँखों-तले आँधेरा छा गया। ताँगे का डंडा पकड़ा। कोचवान को दूसरे मुहल्ले का पता बताया, जहाँ एक दूर के रिश्तेदार रहते थे।
बन्ने चचा बरसाती में मोढ़ा बिछाए ताज़ा अखबार पढ़ रहे थे। बिट्टो बेगम के सलाम का जवाब देकर उस जुलाहे की तरह वह भी ख़ामोश रहे। फिर धीरे से बोले, ‘‘क्या बतलाएँ बिट्टो बी, हमने बहुत मना किया मगर माने ही नहीं ! कहने लगे फ़ौजें आमने-सामने ठनी खड़ी हैं, इससे पहले कि रास्ते बंद हो जाएँ....हमने बहुत समझाया—मियाँ, यहाँ जमे-जमाए बैठे हो, मगर उन पर धुन सवार थी। बड़े तो बेटी की चाहत में गए। ब्याह कर इतनी दूर क्वेटा भेज दी। जब से उठते-बैठते माँ-बाप उसे याद करते थे। ऊपर से उसकी बीमारी का तार आया। बस एकदम चल पड़े। छोटों ने कहा चलिए, हम भी आपके साथ चलें।’’
‘‘मुझे इत्तिला2तो कर देते  ऐसे ख़ून सफ़ेद हुए......’’
‘‘नहीं बिट्टो.....’’
‘‘इनके तीजे-चालीसवें3 में सब आये थे तब भी ज़िक्र न किया !’’
‘‘नहीं बिट्टो ! ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि तुम रोकतीं, ज़िद करतीं कि न जाओ। वह तुम्हारा दिल नहीं तोड़ना चाहते थे।’’
‘‘अब तो बड़ा दिल जोड़कर गए हैं !’’ बिट्टो बेगम ने सिसकी भरी।
बन्ने चचा ने उनके कंधे पर हाथ रखा--‘‘चलो, अपनी चची के पास चलकर आराम करो।’’
बन्नी चची बरोठे में बैठी खेतों से आया हुआ ग़ल्ला तुलवा रही थी। सलाम का जवाब देकर वह भी
ख़ामोश रहीं। बिट्टो उनके नज़दीक पीढ़ी पर बैठ गईं।
1.तीन महीना दस दिन का समय जो हर एक मुस्लिम विधवा नारी को अपने पति के घर में ग़ुजारना आवश्यक है, 2.सूचना, 3.किसी मुस्लिम के मृत्यु के तीसरे और चालीसवें दिन किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठान।

‘‘पिछली बार यूरोप जाते हुए रुकी थी। मँझले का कुछ सामान बँधा देखा, तो उनकी दुल्हन फ़ौरन बोलीं—नैनीताल की तैयारी है। मैंने यह न सोचा कि यह पहाड़ का कौन सीज़न है ? इसका मतलब है इन्तज़ाम जभी से शुरू कर दिए थे।’’
गोलू ने चाय की ट्रे लाकर फ़र्श पर रख दी। वहाँ मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं।
‘‘तौबा है ! यह गन्ने का सीज़न कमबख्त आया और सारे ज़फ़रपुर पर मिट-गई मक्खियों ने हल्ला बोला। चलो, अंदर चलो !’’ बन्नी चची ने कहा। यह रुहेला घराना पछवा उर्दू बोलता था।
बड़े कमरे में छोटी बहू के दहेज में लाया हुआ सनमाइका का फ़र्नीचर चमचमा रहा था। गोदरेज की अलमारी के ऊपर नए कमख़्वाब1 के ग़िलाफ़ 2में लिपटे कुरआन शरीफ रखे थे; दीवारों पर नये-पुराने कलेंडर। ऊन के गोले से खेलती विलायती बिल्ली की तस्वीर। अल्लाह रसूल के तुग़रे3। कारचोबी झालर वाले आतिशदान के ऊपर शीशे के केस में जापानी गुड़ियाँ। जमा-जमाया घर। बिट्टो बेगम ने मसहरी पर बैठकर आँखें बंद कर लीं। क्रोशिया के मेज़पोश से ढके रेडियो सेट का बटन दबाकर बन्नी चची की लड़की ने देहली लगाया—ख़बरें आ रही थीं। अचानक बिट्टो बाजी का नाम सुनाई दिया--‘‘गोष्ठी का उद्घाटन करते हुए बेगम अज़हर अली ने कहा—

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