कविता संग्रह >> कुरुज कुरुजमदन कश्यप
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कवि मदन कश्यप का यह नया संग्रह केवल एक और नया संग्रह नहीं, बल्कि विकास की एक नयी ज़मीन और नयी दिशा का संकेत करनेवाला संग्रह है।
कवि मदन कश्यप का यह नया संग्रह केवल एक और नया संग्रह नहीं, बल्कि विकास की एक नयी ज़मीन और नयी दिशा का संकेत करनेवाला संग्रह है। इसमें एक ऐसा मँजाव और ऐसी प्रौढ़ता दिखाई पड़ती है, जो एक लम्बे अनुभव के बाद ही नसीब होती है। मदन कश्यप इस संग्रह के साथ विकास के उस धरातल पर खड़े दिखाई पड़ते हैं, जहाँ अनुभूत यथार्थ और आजमायी हुई भाषा, दोनों में तोड़–फोड़ की ज़रूरत पड़ती है। यहाँ यह कवि कला की इन दोनों ज़रूरतों से न सिर्फ रू–ब–रू होता है, बल्कि किसी हद तक उनसे टकराता भी है। इस टकराहट की अनेक सुखद फलश्रुतियाँ इस संग्रह में देखी जा सकती है। इस कवि की कई चिन्ताएँ हैं सच्ची और गहरी चिन्ताएँ। एक चिन्ता है पूर्वी कविता (पश्चिम के बरक्स) के अपने चरित्र को लेकर। एक कविता है एशिया में कविता, जिसमें एक पंक्ति आती हैµयोरप में तो जो लिखा, वही हो जाती कविता/एशिया में यह क्योंकर हो ? बीसवीं सदी योरप केन्द्रित सदी थी केवल आर्थिक–राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं कविता में भी। मदन कश्यप की, एशियाई कविता की खोज की यह विकलता, उनके पूरे संग्रह की कविताओं में ‘अंडर करेंट’ की तरह मौजूद है। एक अच्छी बात यह है कि इस कवि के पास ताजे अनुभवों के साथ एक गहरी आलोचनात्मक दृष्टि भी है, जो कविता के रग–रेशों को जाँचती–परखती चलती है। इस सबके बीच जो मूल्यवान है, उसे बचा लेने की एक कोशिश भी यहाँ देखी जा सकती है। छंद का आजमाया हुआ माध्यम उन्हीं में से एक है, जिसका सफल प्रयोग कई कविताओं में किया गया है। बोली से लाए गए ‘फाव’ और ‘मतसुन’ जैसे शब्द हों, या बहेलियों का पेशागत शब्द ‘कुरुज’ इन सबके द्वारा कवि अपने अनुभव और भाषा दोनों के विस्तार की सूचना देता है और इस तरह अपने पूरे काव्य–बोध को अधिक विश्वसनीय बनाता है। कैक्टस के फूलों को बैल की जीभ जैसा कहने वाले इस कवि के पास अपना एक देसी चेहरा है, जिसे अलग से देखा और पहचाना जा सकता है। संग्रह के अंत में दी गई लम्बी कविताओं में इस जनपदीय चेहरे को अधिक निकट से देखा जा सकता है, जिसे इस तरह उकेरा गया है कि अन्ततः वह पूरे देशीजन का चेहरा बन जाता है। इस संग्रह में पाठक को एक नये मदन कश्यप का साक्षात्कार होगा।
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