गजलें और शायरी >> लम्स लम्समोनिका सिंह
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उम्मीद है हिन्दी पाठकों को ये गज़लें अपनी-सी लगेंगी।
गज़ल एक विधा के रूप में जितनी लोकप्रिय है, गज़ल कहने वाले के लिए उसे साधना उतना ही मुश्किल है। दो मिसरों का यह चमत्कार भाषा पर जैसी उस्तादाना पकड़ और कंटेंट की जैसी साफ समझ माँगता है, वह एक कठिन अभ्यास है। और अक्सर सिर्फ अभ्यास उसके लिए बहुत नाकाफी साबित होता है। यह तकरीबन एक गैबी है जो या तो होती है या नहीं होती। मोनिका सिंह की ये गज़लें हमें शदीद ढंग से अहसास कराती हैं कि उन्हें गैब का यह तोहफा मिला है कि ज़ुबान भी उनके पास है और कहने के लिए बात भी। और बावजूद इसके कि ये उनका मुख्य काम नहीं है उन्होंने गज़ल पर गज़ब महारत हासिल की है। अपने भीतर की उठापटक से लेकर दुनिया-जहान के तमाम मराहिल, खुशियाँ और गम वे इतनी सफाई से अपने अशआर में पिरोती हैं कि हैरान रह जाना पड़ता है। शब्दों की किसी बाज़ीगरी के बिना और बिना किसी पेचीदगी के वे अपना मिसरा तराशती हैं जिसमें लय भी होती है और मायने भी। 'यह सबक मुझको सिखाया तल्खी-ए-हालात ने, साफ-सीधी बात कहनी चाहिए मुबहम नहीं।' मुबहम यानी जो स्पष्ट न हो। यही साफगोई इनकी गज़ल की खूबी है, और दूसरे यह कि जि़न्दगी से दूर वे कभी नहीं जातीं। वे पूछती हैं—'जिस मसअले का हल ज़माने पास है तेरे, क्यूँ बेसबब उसकी पहल तू चाहता मुझसे।' दिल के मुआमलों में भी उनके खयालों की उड़ान अपनी ज़मीन को नहीं छोड़ती। दर्द का गहरा अहसास हो या कोई खुशी उनकी गज़ल के लिए सब इसी दुनिया की चीज़ें हैं। 'ढल रहा सूरज, उसे इक बार मुड़ के देख लूँ, रात लाती कारवाँ ज़ुल्मत भरा वीरान सब खौफ आँधी का कहाँ था, गर मिलाती खाक में, बारहा मिलते रहे मुझसे नए तूफान सब।' उम्मीद है हिन्दी पाठकों को ये गज़लें अपनी-सी लगेंगी।
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