आलोचना >> मध्यकालीन बोध का स्वरूप मध्यकालीन बोध का स्वरूपहजारी प्रसाद द्विवेदी
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प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य द्विवेदी के पाँच व्याख्यान संकलित हैं, जो उन्होंने टैगोर प्रोफेसर के नाते पंजाब विश्वविद्यालय में दिए थे।
मध्यकाल को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझने-समझाने के लिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जो साधना की थी वह अभूतपूर्व है, स्वयं द्विवेदी जी के शब्द उधार लेकर कहें तो ‘असाध्य साधन’ है। उनके कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ इसी असाध्य साधन को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं, और मध्यकालीन बोध का स्वरूप उनमें विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य द्विवेदी के पाँच व्याख्यान संकलित हैं, जो उन्होंने टैगोर प्रोफेसर के नाते पंजाब विश्वविद्यालय में दिए थे। इन व्याख्यानों में आचार्य द्विवेदी ने सबसे पहले तो यह स्पष्ट किया है कि ‘मध्यकाल’ से क्या तात्पर्य है और फिर मध्यकालीन साहित्यबोध का विस्तार से विवेचन किया है। इस सारे विवेचन से न केवल मध्यकाल और मध्यकालीन बोध की अवधारणा को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है बल्कि आधुनिक बोध को समझने में भी बड़ी सहायता मिलती है। डॉ. इंद्रनाथ मदान के शब्दों में - मध्यकालीन बोध को समझे बिना आधुनिक बोध को समझना मेरे लिए कठिन और अधूरा था। परंपरा में डूब जाना एक बात है, लेकिन परंपरा से कट जाना दूसरी बात। इसका मतलब मध्य- कालीनता से जुड़ना भी नहीं है, लेकिन इसे हठवश नकारकर आधुनिकता को समझना कम-से-कम मुझे मुश्किल लगा है। इन व्याख्यानों की सहायता से आधुनिक बोध अधिक स्पष्ट होने लगता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने निष्कर्षों को ठोस आधार दिया है, मध्यकालीन साहित्य इनकी रगों में समाया हुआ है। यह कैसे और किस तरह है - इसके बारे में इनके व्याख्यान बोलेंगे, हम नहीं।
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