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नृशंस
नृशंस
प्रकाशक :
राजकमल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2001 |
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 14102
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आईएसबीएन :8126701617 |
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शीर्षक कथा नृशंस समेत संग्रह की तमाम कहानियाँ मौजूदा समय में स्खलित होती सम्वेदना और सामाजिक सम्बन्धों के बीच चौड़ी होती दरारों की तरफ’ हमारा ध्यान खींचती हैं।
अवधेश प्रीत को समय और समाज से सम्वादरत ऐसे युवा लेखक के रूप में जाना जाता है, जो सच को सच की तरह कहता ही नहीं, बल्कि कई–कई अनुद्घाटित सच्चाइयों से भी परिचित कराता है। उनकी कहानियों से गुज़रना दुर्लभ अनुभवों के वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करना है, जिसकी फिज़ा में आदिमगन तैरती रहती है। लेकिन कथाकार इनसे बचने के लिए नाक पर रूमाल नहीं रखता वरन् उनके कारणों और परिणामों की चीड़–फाड़ करता है। शीर्षक कथा नृशंस समेत संग्रह की तमाम कहानियाँ मौजूदा समय में स्खलित होती सम्वेदना और सामाजिक सम्बन्धों के बीच चौड़ी होती दरारों की तरफ’ हमारा ध्यान खींचती हैं। भाषा की सहजता, शिल्प की सजगता और कथानक की व्यापकता इन कहानियों की खूबियाँ हैं। नृशंस नक्सलवाद के बहाने पूरे तन्त्र पर तीक्ष्ण प्रहार करती है तो अगली मंज़िल भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों की पीड़ा को सहानुभूतिपूर्वक उभारती है। ग्रासरूट सामाजिक विकृति के आयामों से सम्पृक्त होकर मानवीय चरित्र को चतुष्कोणीय दृष्टि से देखने का प्रयास करती है। फलितार्थ एक छतरी को केन्द्र में रखकर भारतीय किसान–मज़दूर की जद्दोजेहद को विस्तार देती है। यह कहानी किसान की आर्थिक दिक़्क़तों, नए दौर में पुरानी चीज़ों के प्रति मोह, संस्कृति एवं परम्पराओं से जुड़ी अन्तरंग भावनाओं के आयामों के दम तोड़ते समय को अंकित करने में सफल है। ग्रामीण जीवन को रेखांकित करते समय क्षेत्रीय बोलियों का यथोचित इस्तेमाल तथा किसान, मज़दूरों की धड़कन की गहरी अनुभूति कथाकार को एक विशिष्ट दर्जा प्रदान करती है। अधिकांश कहानियाँ अपनी ताज़गी, सादगी और बेबाकी के कारण चर्चित और प्रशंसित हुर्इं और अपनी सम्प्रेषणीयता, व्यापकता और ग्राह्यता के चलते इन्होंने नाट्य–निर्देशकों को भी आकर्षित किया है। ग्रासरूट, नृशंस, तालीम और फलितार्थ कहानियों का पटना से दिल्ली तक हुआ सफल मंचन इसका प्रमाण है।
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