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अन्तर्गाथा

पी.वी.नरसिंह राव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :492
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1411
आईएसबीएन :9788170282839

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भारतीय राजनीति के सत्य का उद्घाटन करनेवाला विस्फोटक उपन्यास....

Antargatha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंह राव का यह उपन्यास एक तरह से भारतीय राजनीति के पिछले पचास वर्षों की ही कहानी है। इसमें उन्होंने अपने अनुभवों के माध्यम से तथा कुछ कल्पना का भी जामा पहनाकर वह सब कुछ कह डालने का प्रयत्न किया है जो उन्होंने देखा भोगा और जिसे वे गहराई से समझ पाने का प्रयत्न करते रहे।

सारांश


स्वाधीनता-पूर्व के देशी राज्य हैदराबाद के जन-नेता तथा मुक्तिदाता, जो आजीवन ‘भूमि समस्या’ से संतप्त रहे, श्री रामतीर्थ आश्रम के अध्यक्ष, स्व. स्वामी रामानन्द तीर्थ को, उनके अनुयायी द्वारा यह विनम्र कृति श्रद्धापूर्वक समर्पित है कृशगात, निरन्तर कारावास से दुर्बल, दीर्घकाल तक गृहस्थ-जीवन से वंचित, जनहित तथा लोकतंत्र के लिए पूर्ण समर्पित संन्यासी जिन्होंने शक्तिशाली तथा अत्याचारी शासक निज़ाम के विरुद्ध यह घोषणा करके मोर्चा लिया, कि ‘मैं टूट जाऊँगा, परन्तु झुकूँगा नहीं !’

प्रकाशकीय

पूर्व प्रधानमंत्री श्री पी.वी.नरसिंह राव के बृह्द उपन्यास ‘दि इनसाइडर’ का हिन्दी संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। यह अपनी प्रकार का एक बिलकुल अलग उपन्यास है जिसे ‘राजनीतिक’ उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। भारत में तो इस तरह का कोई उपन्यास आज तक प्रकाशित नहीं हुआ। बहुभाषी विद्वान श्री राव ने अपने समग्र जीवन का अनुभव एक विशेष दृष्टि के अन्तर्गत इसमें रख दिया है। इस दृष्टि से यह न केवल एक रोचक कथा कहता है जो वर्तमान राजनीति का एक आईना प्रस्तुत करती है, उसे बड़े ही मनोरंजक ढंग से भी सामने रखता है।

तीन लाख से अधिक शब्दों के इस उपन्यास का अनुबन्ध ये पंक्तियाँ लिखे जाने के दो मास पूर्व ही हुआ। इसे यथाशीघ्र प्रकाशित करना अभीष्ट था, परन्तु इतने कम समय में यह सारा अनुवाद तथा सम्पादन-कार्य एक-या-दो व्यक्तियों द्वारा सम्पूर्ण किया जाना संभव नहीं था। इसे पूरा करने में विविध स्तरों पर अनेक व्यक्तियों ने सहयोग दिया। सर्वश्री राजेन्द्र अवस्थी, मुकेश कौशिक, शिवशंकर अवस्थी तथा विश्वमित्र शर्मा के प्रति हम आभारी हैं कि उन्होंने अपनी व्यस्तताओं से समय निकालकर इसे निर्धारित समय में प्रकाशित कर पाने में मूल्यवान योगदान किया।

आभार

सर्वप्रथम उन अनेक मित्रों, सहयोगियों तथा व्यक्तियों का जिनके नाम बदलकर आवश्यक परिवर्तनों के साथ इस उपन्यास के चरित्रों की रचना की गई है। उनके रक्त और मज्जा, मिजाज़ और सनकों तथा स्वभाव को लेकर कथा का विस्तार किया गया हैं।
अपने साहित्यिक गुरु स्व. श्री गरलापति राघव रेड्डी का, जिन्होंने मुझे भारतीय साहित्यिक परम्परा का अध्ययन करने तथा आत्माभिव्यक्ति को महती प्रेरणा प्रदान की।
अपने विद्वान् परिवार-बन्धु स्व. पी. सदाशिव राव का, जिन्होंने मुझे लिखने और लिखते रहने के लिए, मेरी बार-बार राजनीति में उतरते रहने की प्रबल प्रवृत्ति के बावजूद, प्रेरणा दी।
प्रसिद्ध तेलुगु लेखिका सुश्री ए. छायादेवी का जिन्होंने इस उपन्यास की पहली पाण्डुलिपी देखी और अनेक मूल्यवान सुझाव दिये।
प्रसिद्ध पत्रकार सुश्री कल्याणी शंकर का जिन्होंने पाण्डुलिपि का परीक्षण किया, उसके प्रकाशन में बहुविध सहायता की, तथा सबसे अधिक, उसके नाम का सुझाव दिया।

लेखकीय

इस उपन्यास का आरम्भ बीस से अधिक वर्ष पूर्व आत्मकथा के रूप में किया गया था। तभी मैंने एक अपूर्ण रूपरेखा काग़ज़ पर उतार ली थी परन्तु व्यस्तताओं के कारण उसे पूरा नहीं कर सका। एक भिन्न नाम से इसका आरम्भिक मसौदा भी तैयार हुआ परन्तु व्यक्ति ने, मेरे विश्वास का उल्लंघन करके, उसे मीडिया को दे दिया। उसके बाद यह उपन्यास लगभग पूरा बिलकुल नए सिरे से लिखा गया है और अब इसके वर्तमान स्वरूप, विषय-निर्वचन तथा कथा से मैं संतुष्ट हूँ।
यह न तो नियमित आत्मकथा है और न पूरी तरह काल्पनिक उपन्यास ही है, जिसमें लेखक को इच्छानुसार चरित्रों का निर्माण तथा स्थितियों की कल्पना करने की स्वतन्त्रता होती है। यह दो खण्डों में भारतीय राजनीति की, जो पिछली अर्द्धशताब्दी के विस्तार में फैली हुई है, कथा है जिसमें मैंने ऐतिहासिक यथार्थ को कुछ पूरी और कुछ आधी कल्पना से गढ़े चरित्रों से मिला-जुलाकर कहने की कोशिश की है, जिससे कथा का प्रवाह खण्डित न हो तथा जो पाठकों को पसंद भी आये। इसका केन्द्रीय चरित्र प्रायः मेरे स्वयं के अनुभवों से प्रभावित है-जिसने भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के अंतिम चरण में भाग लिया तथा बाद में आठ प्रधानमंत्रियों के शासनकाल में, स्वयं उसी पद को ग्रहण करने से पूर्व, राजनीति से जुड़ा रहा। जीवन के अधिकांश वर्षों में राजनीति के केन्द्र में भीतरी व्यक्ति के रूप में कार्यरत रहने के कारण यह कहानी उस व्यक्ति की दृष्टि से राजनीति की सत्यकथा है।

यह कथा वास्तव में एक ही भीतरी व्यक्ति के अनुभव और अवलोकन की कहानी है, अतः इस अनेकपक्षीय विशाल विषय की सम्पूर्ण अथवा प्रतिनिधि कथा होने का दावा नहीं करती।

यह कहानी 1973 तक की है, जब इंदिरा गाँधी अपनी लोकप्रियता और शक्ति के शिखर पर थीं। इसके पश्चात् राष्ट्रीय चिन्तन, आकांक्षाओं और सामाजिक-राजनीतिक क्रियाकलापों में जो महत्त्वपूर्ण बदलाव आए, उन्हें इस कृति के दूसरे खण्ड में, जो मैं आगामी कुछ महीनों में प्रस्तुत करना चाहता हूँ, लिख रहा हूँ।
जनवरी 1998 नई दिल्ली
-पी.वी.नरसिंह राव

अन्तर्गाथा

खंड-1

जन्म के ग्यारह दिन बाद, रीति के अनुसार, उसका नाम आनन्द रखा गया। जन्म लेते ही उसको जो पहला अनुभव हुआ वह था, कि जब कभी वह रोता, उसके मुँह में कोई मुलायम-सी वस्तु डाल दी जाती। वह मां के स्तन इस तरह चूसने लगता मानो गर्भ में रहते हुए ही वह यह कला सीख गया हो। दिन बीतने लगे और वह अपने वातावरण में घुलने-मिलने लगा। उसने अपनी मां की आवाज़ को पहचानना सीखा, अपने गालों पर उसके मुलायम ओठों का स्पर्श उसे अच्छा लगने लगा। यह सब उसे बहुत प्रिय लगता था। परंतु जब अपने इर्द-गिर्द इकट्ठे लोगों में से खुरदरी ठुड्डी और बदबूदार सांस वाला कोई उसे चूमता तो वह विरोधस्वरूप चीखना शुरू कर देता और, मनाने-पुचकारने की आवाजों से कहीं ज़्यादा तेज़ उसका रोना-विरोध प्रकट करना होता था।

जब वह कुछ महीने का हुआ, तो उसके मुंह में छोटे तीखे दांत निकलने लगे। इनका पहला उपयोग उसने मां के स्तनों पर किया-जब भी वह उसे दूध पिलाती, वह जोर से उसके स्तन काट लेता। मां पीड़ा से कराह उठती और वह हंसने लगता। काटने में उसे मज़ा आता था; फिर यह आदत बन गई। इसका कुछ उपाय करना आवश्यक लगा। एक दिन जब उसने और ऊंचे सुर में चीखना शुरू कर दिया। अब हंसने की मां की बारी थी। पड़ोस की जो औरतें वहां मौजूद थीं, वे भी उसकी इस परेशानी पर हंसने लगीं। उन्होंने भी अपने बच्चों का दूध छुड़ाने के लिए इसी उपाय का प्रयोग किया था। नुस्खा बहुत आसान था। नीम के पत्ते घिसकर छातियों पर लगा दिये जाते और बच्चा दूध पीना छोड़ देता था।

मां हर सुबह तेल से उसकी मालिश करती और गर्म पानी से नहलाती, तो उसे बहुत अच्छा लगता था। मां जमीन पर बैठ कर घुटनों तक अपनी साड़ी खींच लेती और पैर आगे फैला देती। फिर बच्चे को जांधों पर लिटा कर कभी उसे सीधा और कभी उलटा करके तिल के तेल से उसके सारे बदन की मालिश करती-फिर उसके कान, आंख और नथुनों में तेल की कुठ बूंदें डालती। फिर गुनगुने पानी में उसे नहलाती। उसे लगता, मानो वह रबड़ की गुड़िया है, और खून तेजी से उसके शरीर में चक्कर लगाता। यह सब उसे अच्छा लगता परंतु जब तेल की बूंदें उसकी आंखों में पड़तीं तो उसे तीखी चुनचुनी मचती और लगता, मानो आंखें जल उठी हैं। वह चिंघाड़ने लगता और मां के पेट और छातियों पर लातें चलाने लगता।
अब मां उसे झूले पर लिटा देती और सुगंधित धूप का पात्र कुछ क्षण उसके ऊपर से घुमा देती। इसके प्रभाव से वह तुरंत गहरी नींद में सो जाता।

कभी-कभी, जब वह गहरी नींद में होता, तो उसका चेहरा अचानक इस तरह विकृत हो जाता मानो कोई बड़ा कष्ट उस पर आ पड़ा हो-और कभी-कभी वह प्रसन्नता से खिल उठता। जैसा प्रायः सभी बच्चों के साथ होता है, इस परिस्थियों में वह अपनी अन्तर्चेतना में मानव अस्तित्व के, देश और काल दोनों से परे, रहस्यमय अनुभवों से साक्षात् करता था। क्या मालूम, उसकी वेदना मानव जाति की ही-भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों में फैली वेदना ही रही हो। अपने मन की आंखों से वह युद्ध की विभीषिका, अणुबम, या भारत की मिट्टी में हत्यारों द्वारा मारे गये महात्मा गांधी, इन्दिरा गाँधी और राजीव गांधी के रक्त को मिलते हुए ही न देखता हो-कौन जाने !

फिर, उसी नींद में जब कभी वह प्रसन्नता से मुस्कराता या किलकारी लेता, तो शायद वह यही स्वप्न देखता हो कि वह विश्व का सबसे महान व्यक्ति है। हो सकता है, वह स्वयं को भारतीय पुराणों की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी, इन्द्रदेव की कान्ता शची के साथ ही रमण करते हुए देखता हो। जो हो, मां को इससे चिन्ता होती। परेशान होकर उसने एक भूत-वैद्य को बुलाया जो उसके शिशु पुत्र को कष्ट देने वाले भूत-प्रेतों का शमन करे। सपने तो आते और चले जाते, परंतु भूत-वाद्य अच्छी दक्षिणा और यश कमा लेता।

फिर मां ने उसे हल्का-सा नमक डालकर मुलायम पकाया हुआ अन्न देना आरंभ किया पहले तो उसने इसे चिढ़ से देखा और मुंह में जाते ही थूक दिया-परंतु भूख तो लगती ही थी। थोड़ा खाने के बाद उसे यह अच्छा भी लगने लगा। वह ज्यादा खाने के लिए मचलता परंतु मां उतना ही देती जितना उसे आसानी से हज़्म हो जाये। वह खाद्य की मात्रा धीर-धीरे ही बढ़ाती थी।

कुछ समय बाद ही वह घुटनों के बल चलने लगा-और परिवार को यह बहुत अच्छा लगा। घर की कोई भी चीज़ अपनी जगह पर रह नहीं पाती थी। दाहिने पैर का जूता यदि सामने के द्वार पर ही रखा रहता तो उसका बायें पैर का जोड़ा घर के बिलकुल अंत में या पीछे की खाली जगह में पहुंच जाता। कई दफा चीजें रहस्यमय ढंग से गायब हो जातीं। यह रहस्य तब खुला जब किसी ने घर के एक बर्तन को तीर की तरह उड़कर बाहर बने कुएं में जाते हुए देखा। एक गोताखोर को बुलाकर कुएं में नीचे भेजा गया, तो वहां से खोई हुई और भी अनेक वस्तुएं प्राप्त हुईं।

इन्हीं दिनों उसे अपने शैशव का सबसे दुखद अनुभव प्राप्त हुआ-हर पखवाड़े पेट साफ रखने के लिए कैस्टर आइल की एक खुराक पीना। बच्चों के लिए कैस्टर आइल जरूरी थी। मां यह उसे जबरदस्ती पिलाती थीं-जैसे उसकी अपनी मां ने उसे पिलाया था, और पीढ़ियों से तो जो इसी प्रकार पिलाया जाता चला आया था। गांव के वैद्य जी कैस्टर आइल की प्रशंसा में एक लंबा लेक्चर देते थे-जिसमें संस्कृत के श्लोक भी होते थे। उनका विश्वास था कि आयुर्वेद के अनुसार, पेट ही मनुष्य की बीमारियों की जड़ है। कहावत थी, कि पेट को साफ रखो और सौ साल जिओ। वे, दवाओं की बू से सराबोर अपने मुचड़े हुए कपड़ों को ठीक करते हुए कहते, कि बच्चों से ही इसका आरंभ किया जाना चाहिए। न वह समय बता सकता था और न दिन गिन सकता था, लेकिन किसी मूलवृत्ति से संचालित, उसे पता चल जाता था कि कैस्टर ऑयल किस दिन पिलाया जाएगा। परिवार के सभी लोग इस कठिन परिस्थिति के लिए तैयार रहते। वह छिपकर उन्हें चकमा देने की कोशिश करता और सारे घर में उसकी तलाश शुरू हो जाती-पलंगों के नीचे, अलमारियों के भीतर और घर के पीछे खाली पड़े मैदान की झाड़ियों में...हर दफा वह छिपने की कोई नई जगह ढूंढ निकालता। एक दफा परेशानी की हालत में वह लकड़ी के एक बड़े बक्से के भीतर घुस गया। अगर समय रहते आया बक्से को खोलकर उसे बाहर न निकाल लेती तो सांस घुटकर वह मर भी सकता था।

हर दफा बच्चे को ढूंढ पाने में घर वालों का घण्टाभर तो लगता ही था। जब वे उसे चारों तरफ से घेर लेते, तब भी वह बच निकलने की एक आखिरी कोशिश जरूर करता। फिर जब वह समझ लेता कि अब बच पाना बिलकुल सम्भव नहीं है तो वह हाथ से, पैरों से, दांतों से, काटता और चीखता-चिल्लाता और बिल्कुल अंत में दांतों में कसकर बंद करके कैस्टर ऑयल न पीने का प्रयत्न करता। लेकिन सब मिलकर उसे बस में कर लेते मुंह में चम्मच डालकर उसका जबड़ा खोल देते थे। उसके हाथ-पैर कसकर पकड़ लिये जाते जिससे न वह काट सके और न उलटी कर सके...और कैस्टर ऑयल आसानी से उसके गले में चलता चला जाय। अब वह निराश हो उठता-लेकिन मां तुरंत उसके मुंह में थोड़ी सी चीनी डाल कर उसे प्रसन्न कर देती। वह दार्शनिक भाव से यह सोचकर इसे भी निगल जाता कि कुछ बुरा खाना पड़ा तो कुछ अच्छा भी खाने को मिल रहा है।

सप्ताह गुज़रते गये और उसके मुंह से निकलनेवाली अस्पष्ट ध्वनियां अब स्पष्ट शब्दों में परिवर्तित होने लगीं। वह उनका अर्थ नहीं जानता था, न यह जानता था कि किसी शब्द का कोई अर्थ क्यों होना चाहिए, अथवा ‘अर्थ’ शब्द का मतलब क्या है। फिर उन ध्वनियों और शब्दों को वह व्यक्तियों से जोड़ने लगा। ‘अम्मा’ यानी मां-मां के अलावा और कोई नहीं। इस प्रकार शब्दों को उसने व्यक्तियों के साथ जोड़ना आरम्भ कर दिया। फिर कुछ विशिष्ट ध्वनियों या शब्दों के बोले जाने पर उसने इन्हें स्वयं के लिए स्वीकार करना आरम्भ कर दिया-जो, बाद में उसे पता चला, कि उसका ‘नाम’ था। उसका नाम-उसका अपना नाम-केवल उसका ही नाम। उसने धीरे-धीरे स्वयं अपने नाम का उच्चारण करना आरम्भ कर दिया। अना...अनाद...और अन्त में आनन्द। इस प्रकार ‘आनन्द’ नाम धारण करके वह मनुष्य जाति का सबसे अलग व्यक्तित्व बन गया।

क्रमशः आत्म-विश्वास का विकास होने पर आनन्द ने घर से बाहर निकलना आरम्भ कर दिया। यह दुनिया उसे जादू से बनी लगी। घर की गोशाला उसे विशेष रूप से आकृष्ट करती थी। हर शाम को गायों को यहां वापस लौटते देखता। खुरों की धूल से छाये आसमान से वे बाहर निकलतीं और गलों में बजती घण्टियों से पता चल जाता कि वे आ रही हैं।
मां आनन्द को गायों के पास जाने नहीं देती थी-विशेष रूप से उन गायों के पास जिनके सींग तीखे और नुकीले होते और जो सावधानी से अपने बछड़ों की रक्षा करती थीं। घर के बड़े भी इनसे डरते लेकिन आनन्द को, डर क्या है, यही ज्ञात नहीं था-उसके लिए वे मात्र आश्चर्य का विषय थीं। मां जब चौके में होती अथवा जब उसे मन्दिर से लौटने में देर हो जाती, तब आनन्द चुपचाप उनके पास जाता। आश्चर्य की बात थी कि गायें उसे कोई हानि नहीं पहुंचाती थीं-एक दफा तो एक गाय ने प्यार से उसके माथे पर चाट भी लिया। परन्तु आया ने देख लिया और शोर मचा दिया तथा झपटकर आनन्द को उठा ले गई।

आनन्द के लिए सबसे अधिक आनन्ददायी समय सबेरे का होता था जब गायें घास चरने चली जातीं और बछड़े गोशाला में ही बंधे रहते। वह एक अनोखी भाषा में बछड़ों से बात करता जो मनुष्यों को समझ में तो नहीं आता लेकिन बछड़े इसे भली-भांति समझ लेते थे। वह स्वयं तथा बछड़े दोनों ही अब तक व्याकरण और वाक्य-रचना से अपरिचित थे-गलत समझने की इस कारण कोई गुंजाइश ही नहीं थी। लेकिन मां को बछड़ों से आनन्द की यह दोस्ती अच्छी नहीं लगी क्योंकि लौटने पर आनन्द धूल-मिट्टी और गोबर से सना होता था। उसे पकड़ने के लिए मां को उसका पीछा करना पड़ता जो अपने में एक कठिन काम था। फिर वह उसकी अच्छी धुनाई करती और सख्त चेतावनी देती कि फिर से वह गोशाला की तरफ न जाए। लेकिन आनन्द जानता था कि मां को इस रहस्य का ध्यान नहीं है-इसलिए मौका मिलते ही फिर वह गोशाला पहुँच जाता। आया जब उसे रोकने का प्रयत्न करती तो वह उस पर चिल्लाने लगता और बछड़े भी तेज स्वर में उसका समर्थन करते।

फिर, जैसे ही उसकी एक छोटी बहन हुई, वह घर वालों की आंखों का तारा बनता बंद हो गया और परिवार का सारा ध्यान बहन के पालन-पोषण की ओर चला गया। फिर भी. मां जब बेटी के साथ व्यस्त होती, तो कुछ लोग उस पर ध्यान देते रहते। एक चाचा थे जो हर वक्त उससे बात करते। अक्सर शाम के समय वे आनन्द के गांव के बाहर तालाब के किनारे घुमाने ले जाते। वह आनन्द चाचा की छड़ी, जो स्वयं उससे लम्बी थी, पकड़ लेता और उसका उपयोग करता। कभी वह घोड़ा बनाकर उस पर बैठ जाता और सिरे को लगाम की तरह पकड़कर उसे चलाता। कभी वह उससे बन्दूक का काम लेता और आसमान में चिड़ियों पर, मुंह से ठांय की आवाज निकालकर, उसे चलाता। राह चलते लोगों की तरफ बन्दूक तानकर उन्हें डराता। वे भी डर जाने का अभिनव करते-इससे आनन्द को बड़ा सुख मिलता।
चाचा उसे बहुत पसन्द थे, लेकिन पिता से डर लगता था। क्यों, यह तो आनन्द जानता नहीं था लेकिन शायद इसलिए कि वे सख्त मिजाज़ के थे, वह पिता से इज़्जत से पेश आता।

मां-पिता के बीच का अन्तर उसे स्पष्ट था। वह मां की बांहों में चाहें जब दौड़कर चला जाता, मानो यह उसका अधिकार हो-वह जब भी बनावटी या असली गुस्सा दिखाता। तो मां व्याकुल होकर उसे प्रसन्न करने में लग जाती। लेकिन पिता की बांहों में वह, उनका संकेत पाने पर ही जा सकता था। पिता उसे प्यार तो करते थे परन्तु उसे व्यक्त नहीं करते थे। शायद इसी कारण वे जब भी प्यार जताते तब उसे बहुत ही अच्छा लगता था। लेकिन इसकी पूर्ति वे दूसरे ढंग से कर देते थे। वे उसे अपने हाथों में उठाकर ऊपर उछालने और किलकारी भरते हुए जब वह नीचे आता, तो बीच में ही उसे लपक लेते थे। वे उसके शरीर में गुदगुदी मचाते, बालों पर हाथ फेरते, गालों को थपथपाते और ऐसे कई दूसरे काम करते जो और कोई नहीं करता था। उसे सबसे ज्यादा मजा तो तब आता जब पिता पीठ के बल लेटकर कमर से पैरों को ऊपर उठाते और टांगों में बिठाकर उसे ऊपर-नीचे झुलाते। अक्सर वे एक पर ही बिठाकर उसे फिर नीचे ले जाते जिससे आनन्द भय और खुशी दोनों की किलकारियां मारने लगता। इस उछल-कूद में उसे बहुत सुख मिलता-लेकिन भूख लगते ही वह मां की ओर दौड़ पड़ता।

पिता शरीर से बहुत हष्ट-पुष्ट थे। जवानी में उन्होंने लाठी भांजने में सिद्धहस्तता दिखाई थी और गांव में जमीन-जायदाद तथा अन्य बातों पर होने वाले छोटे और अक्सर काफी बड़े झगड़ों में भाग लिया था। यही कारण था कि उस गांव के तथा अन्य पड़ोसी गांवों के लोग भी उनकी इज़्ज़त करने लगे थे। वे जानते थे कि समय आने पर वे ही उन्हें नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। यह वह समय था जब अफरोज़ाबाद राज्य की सरकार ने गांव की जमीन का सरकारी बंटवारा नहीं किया था। इसके परिणास्वरूप गांव की जमीनों की सीमाएं परम्परा से, बातचीत से, और दोनों के असफल रहने पर बाजुओं की ताकत से तय की जाती थी। जब कभी बातचीत से ही मामला सुलझ जाता, तब भी दोनों पक्षों के लोग एक-दूसरे की ताकत आजमाने के लिए कुछ-न-कुछ हाथापाई जरूर करते थे। शान्ति तभी होती, जब एक गांव की दूसरे की तुलना में शक्तिशाली मान लिया जाता। इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेने के बाद पिता गांव के अधिकारी के रूप में कार्य करने लगे।
आनन्द के लिए पिता अध्यापक भी थे। हर रात भोजन के पश्चात् वे आंगन में, अथवा सर्दी के मौसम में घर के भीतर, अपनी प्रिय चारपाई डालकर पैर फैलाकर लेट जाते। आनन्द को वे अपने सीने पर बिठा लेते और भगवद्गीता का बिल्कुल आरम्भ से पाठ शुरू कर देते। आनन्द को पता नहीं चलता था कि वे कितने समय तक गीता का पाठ करते रहे अथवा उन्होंने कितने श्लोक बोले-क्योंकि बीच में ही उसे नींद आ जाती और वह सो जाता था।

कुछ सप्ताह बीतने पर आनन्द ने भी गीता का पाछ आरम्भ कर दिया। पिता कुछ देर उसका साथ देते, फिर चुप हो जाते और आनन्द स्मृति के आधार पर पाठ जारी रखता। उसे जब अड़चन आती, तो पिता फिर उसका साथ देने लगते। धीरे-धीरे आनन्द विना रूके गीता का पाठ करने लगा। अभी वह चार साल का नहीं हुआ था परन्तु उसकी स्मृति असाधारण थी। गांव के ‘इमदादी’ अध्यापक ने जब उसका अक्षराभ्यास कराया तो पंडित के समान श्लोक बोलकर उसने उसे चकित कर दिया।

पांच साल होने तक आनन्द ने गांव के स्कूल की सारी शिक्षा पूरी कर ली। अब यहां उसके सीखने लायक कुछ नहीं था। राज्य की सरकार का शायद यह मानना था कि आनन्द की तरह हजारों छात्र तीसरी कक्षा तक पहुंचकर रुक जायें और फिर धीरे-धीरे अशिक्षा की ओर वापस लौटने लगे। शासन जनता पर अपना नियन्त्रण उसे अशिक्षित रखकर ही बनाये रख सकता था। पिता यह जानते थे क्योंकि वे भी इतना ही पढ़ सके थे। पुराण तथा काव्य के श्लोक तो उन्हें रटे पड़े थे परन्तु यह उन्होंने अपने प्रयत्न से ही प्राप्त किया था। राज्य की भाषा फारसी थी, जिसका एक शब्द भी उन्हें नहीं आता था। इससे होने वाले अपने अपमान से वे परिचित थे इसलिए उन्होंने आनन्द को ‘आधुनिक’ शिक्षा दिलाने का निश्चय किया।
इस दिशा में पहले कदम के रूप में उन्होंने 20 मील दूर अपने छोटे भाई के गांव आनन्द को भेजने का प्रबन्ध कर दिया। यहां एक प्राइमरी स्कूल था।

(2)

अप्रैल का महीना था। जून में, गर्मियों की छुट्टियों की समाप्ति पर आनन्द को जाना था। माँ बहुत उदास थी, हालाँकि प्रसन्न दिखायी देने की कोशिश कर रही थी। आनन्द भी भविष्य के बारे में चिन्तित था, लेकिन हमेशा की तरह छुट्टियों के मज़े ले रहा था।

परिवार मध्यमवर्गीय था-सच कहें तो मध्यम में भी मध्यमवर्गीय-संवेदनशील, और जिननी ताड़ना की जा सकती थी तथा आघात भी दिया जा सकता था। उच्चवर्गीय परिवारों के लोग विशिष्ट जन और शाशक कुलीन वर्ग के माने जाते थे। उनके मानक भिन्न थे- यह कहना बेहतर होगा कि उनके कोई मानक थे ही नहीं। नतीजतन वे बेफिक्र होकर समाज के सब निर्देशों और विधानों को नज़रअन्दाज़ कर जो मन में आये, करते रहते थे। वे सर्वोच्च वर्ग के ऊपर बारीक पपड़ी के समान थे, और उनका प्रभाव भी बहुत था। सिर पर लाल ऊंची मुस्लिम फ़ेज टोपी और सामन्तशाही की ‘लवाज़िमात’ की प्रतीक। खास सज-धज और निराली भंगिमा के कारण उनकी अलग पहचान थी। उनमें कपटी सामन्त भी थे जो हमेशा हाकिम की नज़दीकी मंडली के सदस्य के रूप में दिखाई देने की तिकड़मों में लगे रहते थे। इस सब के बावजूद वे अन्त में एक मज़ाक बन कर ही रह जाते थे। इस अहसास के बावजूद कि जिस चीमड़पन के साथ वे विशिष्ट लोगों के इर्द-गिर्द बेहयाई से घूमते रहते थे, उन्हें देखकर उन पर रहम ही आता था।

वर्गों के इस क्रम में अन्त में आते थे-सबसे निचले वर्ग के लोग। संख्या में वे सबसे अधिक थे, लेकिन उनके पास न ताक़त थी, न दौलत। इनकी कोई हैसियत नहीं थी, ये सिर्फ जीना चाहते थे, किसी भी हालत में। पेट भर भोजन रोज़ न भी मिले, तो चलेगा, लेकिन शाम को भरपूर ताड़ी के बिना नहीं। लात, ठोकर, गालियों और असहनीय अपमानों के अभ्यस्त ये लोग ‘मालिक’ की एक कृपादृष्टि के एवज़ में उनकी सब लातों, ठोकरों, गालियों और अपमानों को भूल जाने को तैयार रहते थे। इनके बारे में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि वे अपने पशुवत् जीवन से भी सन्तुष्ट थे।

मध्यमवर्गीय लोग इन दोनों वर्गों के बीच में होते हैं। अति भावुक, अति संवेदनशील लेकिन साथ ही अति तुनुकमिज़ाज, इस वर्ग के लोग मूक और अशक्त होने के कारण प्रायः अन्दर-ही-अन्दर, अपने को जलाते रहते हैं। उच्चवर्गीय लोग उनका मज़ाक उड़ाते हैं, और निम्नवर्गीय लोग उनसे नफरत करते हैं। शिक्षित और अपने परिष्कृत संस्कारों के कारण वे आम आदमी से ज्यादा सुसंस्कृत होते हैं ! ग्रामीण समाज में वे अपना अलग स्थान बना लेते हैं लेकिन उनमें से जो ग्राम-अधिकारी बन जाते हैं, वे आम किसान से इस कारण अलग हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें सरकारी तंत्र का एक भाग मान लिया जाता है। उनमें से कुछ स्वयं निरंकुश और अत्याचारी होने के अतिरिक्त भ्रष्टाचार के अवतार भी हो जाते हैं और आम आदमी के घृणापात्र बनकर, उससे और ज्यादा कट जाते हैं।

चूँकि उनमें से अधिकांश राजतंत्र का अनिवार्य अंग होते हैं और सरकार के सब अलोकप्रिय और धोखाधड़ी के काम उनके द्वारा ही होते हैं, इसलिए समाज में उनकी छवि जनप्रिय नहीं होती। उधर, उनके उच्चाधिकारी भी उनकी ज्यादा परवाह नहीं करते और उन्हें अपनी उन्नति की सीढ़ियाँ मात्र समझते हैं। नतीजतन, उनकी हालत ‘न घर के, न घाट के’ जैसी हो जाती है, और वे सबकी सहानुभूति खो बैठते हैं। चूँकि प्रायः सभी अलोकप्रिय और धोखाधड़ी के कार्यों में प्रत्यक्षतः उन्हीं का हाथ होता है, इसलिए सारे दोष भी उन्हीं के मत्थे आ जाते हैं, और उनके उच्चाधिकारी मौक़ा-ए-वारदात से दूर होने की वजह से जाल में नहीं फँस पाते।

आनन्द के गाँव का नाम अनन्तगिरि था। जब वह छोटा था, तब वहाँ की आबादी दो हज़ार के करीब थी। गाँव में कई प्राचीन ऐतिहासिक स्थल थे, लेकिन उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता था। जिन तीन अवशेषों की ओर गाँववालों की निगाह कभी-कभी जाती थी, वे थे-दो सौ साल पुराना एक अर्द्ध-ध्वस्त बुर्ज, एक शिव-मंदिर तथा हनुमानजी की एक प्रभावशाली मूर्ति, जो अपनी ऊँचाई और बुलन्दी की वजह से सारे गाँव पर छायी-सी लगती थी। मूर्ति के निकट स्थित था-दो फुट चौड़ा और सात फुट ऊँचा एक शिलाखंड। अज्ञात लिपि में अंकित एक लेख मूर्ति के निकट दिखाई देता था।
यह मूर्ति इस बात का प्रमाण थी कि बहुत पहले इस गाँव के निवासियों ने भूत-प्रेतों और पिशाचों से गाँव को मुक्त रखने के लिए मूर्ति का निर्माण करवाया था। इस तथा अन्य गाँवों की महिलाओं को इस मूर्ति से इतना लाभ हुआ था कि प्रेत व पिशाच बाधा से मुक्त होने के लिए वे 40 दिनों तक हनुमानजी की पूजा करती थीं। गांव के लोगों की मान्यता थी कि पवन-पुत्र हनुमान अपने भक्तों की सब इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं। मूर्ति में भक्तों की गहरी आस्था का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब मूर्ति का सिन्दरी लेप क्षीण हो जाता था, तब वे आपस में चन्दा करके और स्थानीय पंडितों से परामर्श करके, शास्त्रोक्त विधि से मूर्ति पर नया लेप लगवाते थे।

गाँव के बुजुर्गों के अनुसार, उनके बाल्यकाल में गाँव का पेड़ोंवाला इलाक़ा घने वन से सटा हुआ था। वे यह भी बताते हैं कि वन के भेड़िये और तेंदुए घरों और गौशालाओं में आकर बछड़ों को उठाकर ले जाते थे। लेकिन अब सत्तर-अस्सी साल बाद ज़माना बदल गया है, और वह इलाका अब तीन-चार मील पीछे चला गया है। अब पहले की भाँति वृक्षों को पूज्य और वन्दनीय नहीं माना जाता, हालाँकि प्रतीक रूप में कहीं-कहीं उनकी पूजा अभी-भी होती है।

बुजुर्गों को यह भी याद है कि जब दूसरे गाँवों के घुसपैठिये अनन्तरिगी में घुस कर गाँव के वृक्षों को काटने की कोशिश करते थे, तब उन्हें फौरन पकड़ लिया जाता था और खूब पिटाई की जाती थी। मगर आज तो ऐसी हालत हो गई है कि अपने ही गाँव के कुछ निकम्मे लोग इन चारों की मदद करते हैं। वे एक-दूसरे से पूछते रहते हैं-कौन बचाएगा अब इस गाँव और उसके पेड़ों आदि को। फिर, गहरी साँस लेकर खुद ही अपने सवाल का जवाब देते हैं-कोई नहीं ! सब इसी नतीजे पर पहुँचते हैं- ज़माना बड़ा खराब होता जा रहा है। आनन्द बचपन से ही अपने बुजुर्गों से इसी किस्म की बातें सुनता चला आ रहा है।

गाँव भारत के एक बड़े राज्य अफरोजाबाद में स्थित था। राज्य का इतिहास बड़ा रंग-बिरंगा और उतार-चढ़ावों से भरा था। इसकी शुरुआत तब हुई थी जब क्रमशः अशक्त होते जा रहे मुगल साम्राज्य के सूबेदार नासिर जाह ने अपनी आज़ादी का ऐलान किया था। इस राज्यवंश के डेढ़ सौ वर्षों तक इस नवनिर्मित राज्य पर राज किया। दसवें वंशज के राज में भारत के स्वाधीनता-संग्राम की पच्चीसवीं वर्षगाँठ मनाई गई। जब नासिर जाह ने नए राज्य की स्थापना का ऐलान किया था, तब एक सन्त ने इस नये राज्य को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि उसके दसवें वंशज के राज्यकाल में ही उसका अन्त हो जायेगा। सन्त की भविष्यवाणी सच निकली और राज्य अब अपने दसवें वंशज का कार्य-काल पूरा कर रहा था। अब यदि इस भविष्यवाणी के उत्तरार्ध को भी सच निकलना है तो दसवें वंशज के कार्यकालकी समाप्ति भी हो जानी चाहिए। और जिस गति से भारत का स्वाधीनता आन्दोलन सफलता की ओर अग्रसर हो रहा है, उससे इस बात की प्रबल संभावना है कि यह राज्य स्वतंत्र भारत का उसमें विलीन होकर एक अंग बन जाएगा।

पिछले कई दशकों से राज्य की निरंकुश और जुल्मी सत्ता राज्य के लोगों पर घृणित और बीभत्स अत्याचार करती चली आ रही है। राजा के मुलाज़िम ग़द्दारी और शक के झूठे आरोपों की आड़ में रियाया के लोगों की हत्याएँ कर रहे हैं, लूटमार कर रहे हैं, औरतों पर बलात्कार कर रहे हैं। सामूहिक जुर्माना और आगजनी की घटनाएँ आम हो गयी हैं। देश को मिलने वाली आज़ादी की प्रचंड लहर के आगे राजा और उसके मुलाज़िम हताश हो चले हैं। सन्त की भविष्यवाणी का पता उन्हें भी है, और राज्य के लोगों को भी। राज्य के लोग दबे शब्दों में उसकी चर्चा करते हैं और उत्सुकता से अपनी गुलामी से आज़ाद होने की घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

महात्मा गाँधी अंग्रेजी राज्य को नष्ट करने के उद्देश्य से अपने ‘नागरिक अवज्ञा आन्दोलन’ के साथ भारत के राजनीतिक क्षितिज पर एक विस्फोट के रूप में प्रकट हुए थे। उनके इस आन्दोलन ने देश भर में आशा, हर्ष, सेवा और बलिदान की लहर प्रवाहित की। राष्ट्र-प्रेम का उत्साह और जोश के कोने-कोने में, हर भारतीय के चेहरे पर दिखायी देने लगा।
लेकिन यह सरगर्मी रियासतों में दिखाई नहीं दी। इसके दो कारण थे। पहला-सभी राजा या नवाब अंग्रेजों के आज्ञाकारी ताबेदार थे। दूसरा-वे अपनी-अपनी रियासतों के देश-प्रेमियों पर अमानवीय अत्याचार करके उनकी ज़बान बंद करने में लगे थे। अफरोज़ाबाद के राजा ने तो अपने राज्य के लोगों के शेष भारत के लोगों से मिलने और उनसे सम्पर्क करने के सब रास्ते बन्द दिये थे। भारत के अन्य राज्यों से अफरोज़ाबाद से आने वाले रेल-यात्रियों को राज्य में उतरने की इजाज़त नहीं थी। राज्य के गाँवों में न रेडियों थे और न वहाँ कोई अखबार भेजा जा सकता था। किसी महासागर में जो हालत प्रवाल द्वीप वलय की होती है, वही भारत में अफरोज़ाबाद की थी।

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