आलोचना >> फिलहाल फिलहालअशोक वाजपेयी
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कविता को फिर जीवित तात्कालिकता देने के लिए और काव्य-भाषा को, जो बिंबों में फँसकर गतिहीन और जड़ हो चुकी थी; ताजगी और जीवंतता देने के लिए, युवा कवियों ने अगर सपाटबयानी की ओर रुख किया तो यह स्वाभाविक और जरूरी ही था।
फ़िलहाल ‘युवा लेखकों के विचार-विरोध और ऊब या अबौद्धिकता का एक और पक्ष कविता में इधर बढ़ी सपाटबयानी से भी जुड़ा हुआ है। नई कविता में बिंबों और प्रतीकों की ऐसी भरमार हो गई थी कि कविता शब्दाडंबर होने लगी थी और उसकी अनुभवात्मक तात्कालिकता नष्ट-सी हो गई थी। कविता को फिर जीवित तात्कालिकता देने के लिए और काव्य-भाषा को, जो बिंबों में फँसकर गतिहीन और जड़ हो चुकी थी; ताजगी और जीवंतता देने के लिए, युवा कवियों ने अगर सपाटबयानी की ओर रुख किया तो यह स्वाभाविक और जरूरी ही था। लेकिन सपाटबयानी जल्दी ही सतही और यांत्रिक बखान का पर्याय बन गई है और समकालीन यथार्थ का बड़ा अबोध बयान उसके माध्यम से हो रहा है: इसकी तह में समझ को अनुभूति को नियंत्रित न करने देकर यथार्थ का कामचलाऊ और निरा इंद्रिय-बोधी सरलीकरण करने की प्रवृत्ति भी कहीं न कहीं जरूर घर करती जान पड़ती है।’ ‘नए लेखक ने अपने बुनियादी लगावों को कैसे उनके व्यापक अर्थों तक ले जाने की कोशिश नहीं की, इसका एक दिलचस्प उदाहरण उपन्यास के प्रति उसकी उदासीनता है। कहानी के सुविधापूर्ण माध्यम को काफ़ी मानकर नए कथाकार ने आत्मतुष्टि अनुभव की। छोटे-छोटे अनुभवों को एक व्यापक धरातल पर सार्थक और व्यवस्थित दृष्टि से गूँथने और व्यक्ति-संबंधों को सामाजिक सच्चाई से जोड़कर उन्हें प्रासंगिकता और गहराई देने की कोशिश बहुत कम हुई है।’ ‘आज का सच्चा कवि अपने मानवीय होने के पूरे संश्लिष्ट अनुभवों को व्यक्त करना चाहता है - उसकी अभिव्यक्ति भी अनिवार्यतः संश्लिष्ट होती है। पहले, यानी मोटे तौर पर नई कविता के पहले, कविता की भाषा, रोजमर्रा के जीवन-कर्म की भाषा और ज्ञान के अनुशासनों की भाषा अलग-अलग थी - उनमें अंतर स्पष्ट था। अपने को संश्लिष्ट अनुभव को चरितार्थ करने में सक्षम बनाने के लिए कविता की भाषा ने स्वयं को अधिकाधिक दूसरे मानवीय कार्य-क्षेत्रों की भाषा से प्रतिकृत होने दिया है, इसलिए वह अधिक अर्थव्यापी भी है और उसमें निहित अनुगूँजें भी कई तरह की हैं।’
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