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उपन्यास >> महफिल

महफिल

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :106
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1417
आईएसबीएन :9788170284536

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जिंदगी के अनेक रंगों की इन्द्रधनुषी महफिल....

Mahafil

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात साहित्यकार कमलेश्वर की यह नई यह रचना एक बिलकुल अलग किस्म की व्यंग्यात्मक पारदर्शिता से भरपूर है जो कहीं तो गुदगुदाती है और कहीं चोट करती है और कहीं सोचने को बाध्य कर देती है। जिन्दगी एक महफ़िल के ही मानिंद है जिसमें हर तरह के लोग तरह-तरह की उनकी कारगुजारियाँ और इन्द्रधनुषी रंग है।

 

सिर्फ़ दो शब्द : महफ़िल के सम्बन्ध में

 

यह ‘महफ़िल’ जिन्दगी के उन टुकड़ों और जुमलों की है जो दिलो-दिमाग में पैबस्त होकर रह गए। यह टुकड़े, प्रसंग और जुमले वह हैं जो मेरे मन की कुण्डियाँ खड़काते रहते हैं। इन्हें मैं यों कागज़ो पर नोट कर लेता था। सोचा था, इन्हें कभी विधिवत लिखूँगा और जुमलों-प्रसंगों को सफ़रनामे की तरह पेश करूँगा।
ऐसा नहीं हो पाया। अब लगता है कि यह ठीक ही हुआ। इन्हें काटना-छाँटना और लेखन के किसी साँचे में ढालना उचित नहीं था।

अनेक रंग हैं इन प्रसंगों में और ये ज़िन्दगी से जुड़े लोगों के बेलौस खुरदरे उद्गार हैं। इसलिए इन्हें ज्यों का त्यों दे दिया गया है। शुरू के पृष्ठों पर वे कुछ-कथा प्रसंग शामिल हैं जिनसे मैं अपने कथ्य और कथन को सम्प्रेषणीय बनाने में मदद लेता रहा हूँ। साहित्य को साहित्यिक बनाने का जो दौर चलता रहा है, उसमें साहित्य की सादगी को बनाये रखने में यह टुकड़े और प्रसंग मेरे लिए बहुत मददगार साबित हुए हैं।
सच पूछिए तो इस ‘महफिल’ में मेरे पाठकों और श्रोताओं का ही अधिकतम योगदान रहा है, अतः उन्हीं को समर्पित है !


-कमलेश्वर


सिपाही और हंस

 

 

तो दोस्तो ! आपको एक कहानी सुनाकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। हुआ यह कि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके थे।
राजे-महाराजों-नवाबों की रियासतों का विलय विभाजित भारत में हो चुका था। इंदिरा गांधी ने इनके लाखों रुपयों के सालाना प्रीवी-पर्सेज भी खत्म कर दिए थे। पर ज़मीदारों-सामन्तों की नकचढ़ी आदतें अभी भी खत्म नहीं हुई थीं।
उन्हीं में से एक राजा साहब थे। उन्होंने सौ सैनिकों की एक सलामी फौज रख छोड़ी थी। पुराने ज़माने की तरह राजा साहब रोज़ सुबह अपने महल के गवाक्ष में उपस्थित होते थे। सेनापति के नेतृत्व में सौ सैनिकों की वह सलामी फौज उन्हें सैल्यूट करते हुए गुज़रती थी।  राजा साहब उसकी सलामी लेते थे।
हुआ यह कि राजा साहब को गठिया का रोग हो गया। बहुत इलाज कराया गया पर रोग काबू में नहीं आया। आखिर एक हकीम जी ने परमानेंट और शर्तियाँ इलाज के लिए उन्हें हंसों का मांस खाने की सलाह दी। राजा साहब ने तत्काल अपने सेनापति को तलब किया।

सेनापति ने हाज़िर होकर ‘हुकुम हुज़ूर’ कहा और पाँच सैनिकों को लेकर हंसों का मांस लाने के लिए मानसरोवर की ओर रवाना हो गए।
लम्बा सफर तय करके वे मानसरोवर के पास पहुँच रहे थे तो हंसों ने उन्हें आते देखा तो वे डर के मारे किनारे से हट कर बीच झील में जमा हो गए। सेनापति और उनके पाँचों सैनिक सोचने लगे कि हंसों को कैसे मारा जाए।
झील के बीचोंबीच हंस जमा थे। हंसों की तरह ही श्वेत हिम के टुकड़े भी मानसरोवर के पानी में यहाँ-वहाँ तैर रहे थे। तब एक सैनिक ने कहा–सेनापति जी ! क्यों न हम यहीं से गोली चलाकर दस-पाँच हंसों को मार लें ! तैर कर जाएँ और मरे हुए हंसों को उठा लाएँ !

सेनापति ने कहा-नहीं, नहीं ! यह नादानी ठीक नहीं। मानसरोवर का पानी इतना ठण्डा (यख़) है कि तुम वहाँ तक जिन्दा नहीं पहुँच पाओगे, पहुँच भी गए तो जिन्दा नहीं लौट पाओगे !
दूसरे दिन सेनापति फिर सैनिकों के साथ पहुँचा। किनारे पर तैरते हंसों ने देखा तो वे पहले की तरह ही बीच झील में जाकर जमा हो गए !

तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे दिन भी यही हुआ। तब सातवें दिन सेनापति ने एक तरकीब सोची। वे झील की ओर आते हुए दिखाई दिए तो रोज़ की तरह हंस बीच झील में जमा हो गए। सेनापति सहित पाँचों सैनिक झील के किनारे खड़े हो गए। हंसों ने फिर उन्हें गौर से देखा और आश्चर्य की बात यह हुई कि आज वे झील से किनारे की ओर लौट आए। सेनापति की तरकीबें काम कर गयी थी।

सैनिकों ने हंसों की गर्दन मरोड़ी और उन्हें बोरों में भर लिया !
दोस्तो ! कहानी तो खत्म हो गई। लेकिन आप मन ही मन सोच रहे होंगे कि यह हुआ कैसे ? तो दोस्तो ! यह हुआ ऐसे कि आज वे सैनिक सेनापति की तरकीब के मुताबिक साधुओं के वेश में आए थे और हंस छले गए थे !...

 

अपनी-अपनी दौलत

 

 

पुराने जमींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकमटैक्स विभाग का कोई अफसर आया है और उनके हिसाब-किताब के रजिस्टर और बही-खाते चेक करना चाहता है।
अब क्या होगा मुनीम जी ? ज़मींदार ने घबरा कर कहा-कुछ करो मुनीम जी...
-हुजूर ! मैं तो खुद घबरा गया हूँ....मैंने इशारे से पेशकश भी की...चाहा कि बला टल जाए। एक लाख तक की बात की, लेकिन वह तो टस-से-मस नहीं हो रहा है...मुनीम बोला।
-तो ? हे भगवान...मेरी तो साँस उखड़ रही है....
तब तक रमुआ पानी ले आया। जमींदार ने पानी पिया...पर घबराहट कम न हुई।
-हिन्दू है कि मुसलमान ?
सिख है !

-तो अभी लस्सी-वस्सी पिलाओ। डिनर के लिए रोको। सोडा-पानी का इन्तज़ाम करो, फकीरे से बोल तीन-चार मुर्गे कटवाओ और उनसे कहो, हम सारा हिसाब दिखा देंगे, पर आप शहर से इतनी दूर से आए हैं...हमारे साथ ड़िनर करना तो मंजूर करें...
मुनीम घबराया हुआ चला गया। पाँच मिनट बाद ही मुनीम अफसर को लेकर ज़मींदार साहब के प्राइवेट कमरे में आया। ज़मींदार साहब ने घबराहट छुपा कर, लपकते हुए उसका स्वागत किया। उसे खास चांदी वाली कुर्सी पर बैठाया।
—आइए हुज़ूर ! तशरीफ रखिए...यहाँ गाँव आने में तो आपको बड़ी तकलीफ होगी....ज़मींदार साहब ने अदब से कहा।
—अब क्या करें ज़मींदार साहब, हमें भी अपनी ड्यूटी करनी होती है। आना पड़ा...अफसर बोला।
तब तक लस्सी के गिलास आ गए।
-यह लीजिए हुज़ूर ! ज़मींदार साहब बोले—शाम को हम और आप ज़रा आराम से बैठेंगे...आप पहली बार तशरीफ लाए हैं...

-जी हाँ, जी हाँ....लेकिन मुनीम से कहिए, पिछले तीन सालों के हिसाब-किताब के कागजात तैयार रखे...ज़मींदार के फिर पसीना छूट गया। उसने खुद को संभाला। पसीना पोंछ कर बोला—अरे हुज़ूर  पहले शाम तो गुज़ारिए....फिर रात को आराम फरमाइए...सुबह आप जैसा चाहेंगे, वैसा होगा....
तभी नौकर ने आकर मालिक को जानकारी दी-मालिक ! रात के लिए फकीरे के यहाँ से कटे मुर्गे आ गए हैं...मालकिन पूछ रही हैं कि चारों शोरबे वाले बनेंगे या आधे भुने हुए और आधे शोरबे वाले ?
-बताइए हुजू़र; कैसा मुर्ग पसन्द करेंगे ? शोरबे का या भुना हुआ, या दोनों ! ज़मींदार साहब ने पूछा।
इनकमटैक्स अफसर एकदम कच्चा पड़ गया। कहने लगा-ज़मींदार साहब मैं चलता हूँ...
-अरे क्यों ? कहाँ ? हमसे कोई गलती हो गई क्या ?

-नहीं, नहीं, लेकिन आपके साथ बैठकर मुर्ग खाने की मेरी औकात नहीं है। वैसे आपके मुनीम जी ने मुझे एक लाख देने की पेशकश की थी। लेकिन मैं अब आप से अपना इनाम लेकर जाना चाहता हूँ !
ज़मींदार और सारे कारकुन चौंके कि आखिर यह माजरा क्या है?
ज़मींदार साहब भी चौंके ।
-लेकिन आप...?
-हुजू़र ! मैं एक लाख रुपये की रिश्वत लेकर भी जा सकता था। पर नहीं, मुझे तो आपसे बस अपना इनाम चाहिए !
-इनाम !



 

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