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भारती का सपूत

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1419
आईएसबीएन :81-7028-504-6

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भारतेन्दु हरिशचन्द्र के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

Bharti Ka Sapoot a hindi book by Rangey Raghav - भारती का सपूत - रांगेय राघव

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी भाषा तथा साहित्य के आरंभिक निर्माता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास-यश्स्वी साहित्यकार रांगेय राघव की कलम से

हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट कवियों, कलाकारों और चिन्तकों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक माला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूर्ण किया है। प्रस्तुत उपन्यास हिन्दी निर्माताओं में एक, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, के जीवन पर आधारित अत्यन्त रोचक और मौलिक रचना है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी के पितामह माने जाते हैं। महाकवि जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ ने उन्हें भारती का सपूत’ कहा था। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जब वे हुए, अवधी और ब्रजभाषा से बाहर निकलकर दैनंदनि प्रयोग की सरल खड़ी बोली का निर्माण हो रहा था। भारतेन्दु ने विविध प्रकार की रचनाएँ देकर इसको गति प्रदान की और इसका भावी स्वरूप सुनिश्चित किया। वे धनी परिवार की सन्तान थे और सामन्ती जीवन की सभी अच्छाइयों और बुराइयों का शिकार थे। वे 34 वर्ष की ही अल्पआयु में तपेदिक से दिवंगत हो गए। परन्तु इतने समय में ही उन्होंने इतना कुछ कर दिया जो आज तक चला आ रहा है।
भारतेन्दु का व्यक्तित्व भी बड़ा रंगीला और रोचक था। लेखक रांगेय राघव इतिहास के गहरे विद्वान और आग्रही हैं, इसलिए उनके द्वारा प्रस्तुत यह चित्रण पठनीय होने के साथ ही इतिहाससम्मत और सत्य के बहुत समीप भी है।


मूरति सिंगार कौ आगर भक्ति आयनि कौ
पारावार सील कौ सनेह सुघराई कौ,
कहै रतनाकर सपूत पूत भारती कौ
भारत कौ भाग औ सुहाग कविताई कौ
धरम धुरीन हरिचंद हरिचंद दूजौ
भरम जनैया मंजू परम मिताई कौ
जानि महिमंडल मैं कीरित समाति नाहिं
लीन्यौ मरग उमगि अखण्डल अथाई कौ।

-जगन्नाथदास ‘रत्नाकर

अध्यापक की खोज


अध्यापक रत्नहास उठ खड़े हुए। उन्होंने दीवार पर टंगे हुए भारतेन्तु हरिश्चन्द्र के विशाल चित्र को देखा और फिर उपस्थित सज्जनों और स्त्रियों से कहा :
भाइयों और बहनों ! मैंने आज आपको एक विशेष कारण से निमंत्रित किया है।
अध्यापक की आँखों में एक चमक थी और आने वाले सभी लोग उनसे परिचित थे। अतः सबमें कौतूहल जाग उठा था।
श्रीमती अनुराधा ने कहा : आज तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का जन्म दिवस है हम लोग उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने को ही तो यहाँ एकत्र हुए हैं ?
‘यही तो मैं भी सोच रहा था’, अध्यापक ने मुस्कराकर कहा, ‘आज सन् 2054 ई. में जो हम यहाँ बैठे हैं, क्या यह दिलचस्प बात नहीं है ? और वह भी उसी रामकटोरा बाग में। देखिए यही है न वह पत्थर जिस पर प्रेमचन्द के देहान्त का लेख है ?’
शकुन्तला ने कहा : पत्थर भी धुंधला हो गया है। प्रेमचंद कब मरे थे।
1936 ई. में तब तो सौ बरस हो गए।

‘जी नहीं सौ में चौदह और जोड़ लीजिए।’’ अध्यापक ने कहा—‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसी बाग में आनन्द मनाया करते थे। प्रेमचन्द भी इसी घर में आकर मरे थे। उनके मरने के कई वर्ष बाद तत्कालीन भारत सरकार ने इस बाग की सुरक्षा अपने हाथ में ले ली थी।’

‘उफ ओह !’ शकुन्तला ने कहा, ‘सौ बरस भारतेन्दु के बाद अनकरीब ही समझिए प्रेमचन्द हुए, और हम प्रेमचन्द के सौ बरस बाद हुए। दो सौ बरस बीत गए ?’

अध्यापक ने मुस्कराकर कहा : जी हां शकुन्तलादेवी यह 2054 है, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आज से ठीक करीब 204 बरस पहले पैदा हुए थे। पर आप शायद यह सोच भी नहीं सकतीं कि हिन्दुस्तान इन दो सौ चार बरसों में कितना ज्यादा बदल गया गया है सारी दुनिया बदल गई है।
अब विज्ञान के सहारे लोग ग्रहों और उपग्रहों में जाने की कोशिश में लगे हैं, और शायद सफलता भी पास है, पर भारतेन्दु के समय में यह सब केवल कल्पना ही थी। महान् प्रगति हो गई है। आप आजाद हैं; समृद्ध हैं, जनता सुखी है, और भारतेन्दु का स्वप्न पूरा हुआ है। परन्तु उनका युग तो अन्धकार का-सा युग था।

निर्मला ने काटकर कहा : अरे लो भाई नीहार ! अध्यापक महोदय तो फिर वही बातें सुनाने लगे।
सब हंस दिए।

‘जी नहीं।’ अध्यापक ने एक हाथ में किताब उठाकर कहा, ‘यह क्या है, जानते हैं ?’
सबने देखा।

‘कोई किताब है।’ शकुन्तला ने कहा।
‘जी हाँ। कितनी पुरानी होगी !’
‘बताइए, बताइए।’ नीहार ने जल्दी से कहा।
सन 1954 ई. की छपी है। पूरे सौ बरस हो गए हैं।’
‘सौ बरस ! आपको मिल कैसे गई ?’

‘यही एक पुरानी-सी फटीचर दुकान में पड़ी थी। मैं तो किताबें खोजता ही रहता हूँ। मिल गई। बड़े काम की निकली।’
‘आखिर है क्या ?’
‘यही तो मैं बताता हूँ। आज आप भारतेन्दु के जीवन, काव्य, नाटक, सब पर विशाल ग्रन्थों को पढ़ाते हैं। यह सौ बरस पुरानी किताब भारतेन्दु की औपन्यासिक जीवनी है।’
‘उसे छोड़िए। लेखक का नाम तो मैं बताऊंगा ही। मगर किताब के अलावा जो चीज मुझे मिली है वह यह पत्र है जो पट्टे और ऊपर चढ़े कागज़ के बीच रखा मिला।’
अध्यापक ने कागज़ दिखाया।

‘पढ़ियए तो जरा !’ शकुन्तला ने उत्सुकता से कहा।
‘सुनिए !’ अध्यापक ने पत्र खोला और पढ़ना शुरू करने के पहले कहा, ‘यह पत्र सन् 1954 में लिख गया था। इसके नीचे रांगेय राघव के हस्ताक्षर हैं, इससे प्रकट होता है कि यह पत्र उसी ने अपने मित्र रामनाथ को लिखा है। और इस पुस्तक पर भी रामनाथ का नाम पड़ा हुआ है। इससे स्पष्ट होता है कि रामनाथ ने यह पत्र किसी तरह इसी किताब के पट्ठे के ऊपर चढ़े कागज़ के नीचे रख दिया, ताकि हिफाज़त से रहा आए।’

‘सन् 1954 ई.।’ निर्मला ने कहा—‘यानी यह किताब भारतेन्दु के पैदा होने के ठीक 104 बरस बाद लिखी गई।’
‘पूरे 104 बरस बाद,’ अध्यापक ने सिर हिलाकर स्वीकार करते हुए कहा।
‘उन दिनों जब भारतेन्दु थे तब अंग्रेजों का राज था, और 1857 ईं. में पूरे भारत पर वे छा गए थे, पर यह किताब तब लिखी गई थी जब अंग्रेजों का प्रभुत्व नष्ट हुए सातवाँ वर्ष चल रहा था। भारत स्वतंत्र हो गया था।’
‘छोड़िए, आप पत्र पढ़िए।’ नीहार ने कहा।
‘सुनिए।’ उन्होंने पत्र पढ़ा-
प्रिय रामनाथ,

बहुत दिन बाद तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ। और वह भी अब। रात के बारह बजे। दूर कोई ग्रामोफोन पर बहुत ही सुरीले गाने बजा रहा है और मैं अपनी नई किताब पर काम करके लेटा हूँ, विश्रान्त परन्तु परितृप्त। गीत झूमता हुआ आ रहा है और मेरे रोम-रोम को रात की सुगन्धित वायु के स्पन्दनों से भर दे रहा है। असंख्य नक्षत्र आकाश में बिखरे पड़े हैं। और मैं सोच रहा हूँ कि मनुष्य अब इन नक्षत्रों में जाने की सोच रहा है ! शायद आगे चलकर वह पहुँच भी जाए। किन्तु इस समय गीत की मीठी तन्मयता मुझे अमृत से भिगोये दे रही है।

यही मुझे याद दिली रहा है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जीवनी लिखकर मैंने गीत की-सी तन्मयता की-सी तन्मयता का अनुभव किया है। ठीक से याद नहीं आ रहा है, पर जहाँ तक मेरा ख्याल है वह सन् 1946 ई. की ही बात थी। मैं बंगाल में लौटते समय एक बार बनारस गया था और तब प्रेमचन्द का पुत्र अमृतराय के साथ ठहरा था। वह रामकटोरा वाले बाग में रहा करते थे। वहीं प्रेमचन्द का देहान्त भी हुआ था। और संध्या की उतरती छाया में वहीं खड़ा-खड़ा मैं पेड़ों के नीचे सोचता रहा था
कि एक दिन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसी बाग में खड़े होकर आकाश से निकले हुए चन्द्रमा को देखकर विभोर होकर रो उठे थे ! कितना दिव्य रहा होगा वह क्षण, जब कवि के मानस में समुद्र का-सा ज्वार उठ आया होगा। आज भी वह सांझ मुझे नहीं भूली है। किसी सुगन्धित फूल की शोभा की भांति वह याद मेरे भीतर ही उतर गई है। और आज मैंने उसी भावुक कवि की जीवनी समाप्त करके रख दी है।

तुम जानते हो, और मैं भी जानता हूँ कि चांद रहता है, और आदमी चले जाते हैं, परन्तु मैं एक और सत्य पा चुका हूँ, वह यह कि जिनके मन में यह चांदनी समा जाती है, वे फिर कभी अंधियारे से नहीं घबराया करते।

बहुत रात हो रही है। पत्र समाप्त करता हूँ। सबको मेरा यथायोग्य नमस्कार कहना।

तुम्हारा ही-रांगेय राघव

पुनश्चः तुम्हें यह सुनकर प्रसन्नता होगी कि मेरी इस पुस्तक का नामकरण मेरी नौ बरस की भतीजी सीता ने किया है।
अध्यापक रत्नहास रुक गए।
‘बस इतना ही है ?’ निर्मला ने पूछा।
‘खूब ढूंढ़ निकाला आपने !’ शकुन्तला ने कहा।
‘अब जरा किताब भी तो पढ़िए।’ अनुराधा ने बात बढ़ाई।
नीहार उठा।

‘क्यों ?’ रत्नहास पूछ बैठे।
‘अभी आता हूँ, पानी पी आऊँ।’
‘अच्छा, आप पानी पी आइए, तब तक मैं इन्हें भूमिका सुनाए देता हूँ। अगर आपको सिर्फ कहानी सुननी है तो पाँच-सात मिनट बाद आ जाइए तब तक मैं भूमिका सुना चुकूँगा।’
नीहार ने मुस्कराकर कहा, ‘भारतेन्दु पर इतना लिखा जा चुका है कि सौ बरस पुरानी जीवनी की भूमिका सुनने में मुझे मजा नहीं आएगा। उसे आप इन लोगों को सुना दीजिए। तब तक मैं पानी पीकर आता हूँ, कहानी मैं भी सुनूँगा।
रतन्हास मुस्करा दिए। और उनके होठों पर मुस्कान फैल गई, कोने पर काँपकर मुड़ गई। उन्होंने नीहार के जाने पर कहा : सुनिए, पहले भूमिका सुनाता हूँ, आप लोगों को तो कहीं जाना नहीं है ?
‘जी नहीं।’ शकुन्तला ने हंसकर कहा-पढ़िए।’

अध्यापक रतन्हास ने कहा, ‘अच्छा तो सुनिए। यह पुस्तक की भूमिका है—इसे सुनकर आपको लगेगा कि सौ बरस पहले लोग अपने से सौ बरस पहले के युग के बारे में क्या सोचते थे। जिसमें हम रहते हैं उसका प्रारंभ सौ बरस पहले हुआ था। और जिस युग में भारतेन्दु की जीवनी लिखने वाला लेखक था, उस युग का प्रारम्भ स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किया था। आज्ञा है ?’
अध्यापक ने किताब उठाकर देखा और पढ़ने लगे.....


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