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संस्मरण >> रेत पर खेमा

रेत पर खेमा

जाबिर हुसैन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14237
आईएसबीएन :8126712546

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मुझे हिला-डुला कर, मुझे हिचकोले दे-देकर ये हवाये इत्मीनान कर लेना चाहती हैं कि मैं जिन्दा हूँ ना, हालात की गोद में कभी न टूटने वाली नींद सो तो नहीं गया।

एक दिन, तेज बहने वाली इन हवाओं ने, आधी रात, मेरे दरवाजे पर दस्तक दी थी, मुझे नाम से पुकारा था। मेरे सहज भाव से दरवाजा खोल देने पर, इन हवाओं ने मेरे सीने पर जहर-बुझे खंजरों से हमला कर दिया था। खून से तर-ब-तर मेरा बदन मेरे कमरे के फर्श पर बरसों-बरस लोटता रहा था। बरसों-बरस, गर्द-व्-ख़ाक में डूबा रहा था। आज फिर ये हवाये चक्रवात बनकर उभरी हैं, और मुझे अपने तूफानी बहाव में समेट लेना चाहती हैं। मेरे दिल में इन हवाओं के लिए कोई शिकायत नहीं हैं। मुझे इनके प्रति कोई गिला नहीं है। कभी-कभी मैं सोचता हूँ, ये हवायें ही मेरे वजूद की जड़ों को मजबूती देती हैं, और मेरा इम्तेहान भी लेती रहती हैं। मुझे हिला-डुला कर, मुझे हिचकोले दे-देकर ये हवाये इत्मीनान कर लेना चाहती हैं कि मैं जिन्दा हूँ ना, हालात की गोद में कभी न टूटने वाली नींद सो तो नहीं गया। हवाओं, तेज बहो, और तेज बहो। आँधियों और चक्रवात की मानिंद बहो। मेरे पहले से ही लहूलुहान सीने पर अपने जहरीले तीरों की बारिश करो। हवाओं, मुझे लील जाओ, ताकि खुदा की बनाई इस धरती पर कहीं मेरे वजूद का कोई निशान बाकी न रहे। हवाओं, बहो, तेज बहो। और तेज बहो। हमारे और तुम्हारे लिए एक-दूसरे को आजमाने का इससे बेहतर मौसम और कब आयेगा।

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