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आलोचना >> समकालीनता और साहित्य

समकालीनता और साहित्य

राजेश जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :308
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14253
आईएसबीएन :9788126718863

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आलोचना से यह उम्मीद तब तक निरर्थक ही होगी जब तक कि कवि स्वयं इस दृश्य के मूल्यांकन की कोशिश नहीं करेंगे। यही हालत गद्य की भी हे, विशेष रूप से कहानी और उपन्यास की।

जब मैं बैंक में काम करता था, एक भिखारी था जो थोड़े अन्तराल से बैंक आता और रोकड़िया के काउंटर पर जाकर बहुत सारी चिल्लर अपनी थैली से उलट देता, फिर अपनी अंटी से, कभी अपनी आस्तीन से तुड़े-मुड़े नोट निकाल कर एक छोटी-सी ढेरी लगा देता। कहता, इसे जमा कर लीजिए। उसके आने से मजा आता, आश्चर्य भी होता और एक किस्म की खीज भी होती-उन नोटों और गन्दी-सी चिल्लर को गिनने में। उस रोकड़िया जैसी ही स्थिति मेरी भी होती है जब समय-समय पर लिखी गई, छोटी-बड़ी टिप्पणियों को जमा कर उनकी किताब बनाने लगता हूँ। इस पूरी प्रक्रिया में लेकिन भिखारी भी मैं ही हूँ और रोकड़िया भी। सारी चिल्लर और नोट गिन लिए जाते तब पता लगता कि राशि कम नहीं हैं-कुल जमा काफी अच्छा खासा है। ऐसा आश्चर्य कभी-कभी मुझे भी होता है। पृष्ठ गिनने लगता हूँ तो लगता है कि बहुत कुछ जमा हो गया है। सबकुछ चोखा नहीं है, कुछ खोटे सिक्के और फटे हुए नोट भी हैं। इस दूसरी नोटबुक में इतना ही फर्क है कि इसमें गद्य की कुछ किताबों पर गाहे-बगाहे लिखी गई टिप्पणियों को भी शामिल किया गया है। पहली नोटबुक के फ्लैप पर मैंने कहा था कि लिखने के सरि कौशल सिर्फ रचनाकार की क्षमताओं से ही पैदा नहीं होते हैं, कई बार वह अक्षमताओं से भी जन्म लेते हैं। ये नोट्‌स और टिप्पणियाँ मेरी क्षमताओं के बनिस्वत मेरी अक्षमताओं से ज्यादा पैदा हुई हैं। मुझे लगता था कि बाजार हिन्दी की कविता का कभी कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा क्योंकि न तो इस क्षेत्र में अधिक पैसा है, न ही कीर्ति के कोई बहुत बड़े अवसर ही हैं। पर मैं गलत था। बाजार एक प्रवृत्ति है। इसका ताल्लुक अवसर, पैसे या कीर्ति से नहीं है। हिन्दी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य जिस तरह के घमासान और निरर्थक विवादों से भरा नजर आ रहा है, वह बाजार के ही प्रभाव का परिणाम है। विगत तीन दशकों की कविता का जैसा मूल्यांकन होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा हे। आलोचना से यह उम्मीद तब तक निरर्थक ही होगी जब तक कि कवि स्वयं इस दृश्य के मूल्यांकन की कोशिश नहीं करेंगे। यही हालत गद्य की भी हे, विशेष रूप से कहानी और उपन्यास की। उसमें हल्ला अधिक है, सार्थक विमर्श और साफ बोलने वाली आलोचना कम। आलोचना का एक बड़ा हिस्सा या तो उजड़ता और अहंकार से भरा है या 'अहो रूपम् अहो धनी' के शोर से। एक कवि और कथाकार ही इसमें हस्तक्षेप कर सकता है। उसी की जरूरत है।

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