लोगों की राय

कहानी संग्रह >> मेरी प्रिय कहानियाँ कमलेश्वर

मेरी प्रिय कहानियाँ कमलेश्वर

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1430
आईएसबीएन :9789350640579

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

385 पाठक हैं

प्रस्तुत है कमलेश्वर की प्रिय कहानियाँ....

Meri priya kahaniyan by Kamleshwar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी साहित्य में आधुनिक कहानीकारों में कमलेश्वर की कहानियों का ऊंचा स्थान है। कहानी को एक सार्थक और समानतापरक मोड़ देने में इनका बड़ा हाथ रहा है। इसी कारण अपेक्षाकृत कम लिखकर भी उन्होंने बहुत ख्याति अर्जित की। इस संकलन में कमलेश्वर की अपनी प्रिय कहानियां, उनकी कहानी संबंध मूल धारणाओं को व्यक्त करने वाली भूमिका के साथ, संकलित हैं।
मेरी प्रिय कहानियाँ/कमलेश्वर
मेरे लिए कहानी निरन्तर परिवर्तित होते रहने वाली एक निर्णय-केन्द्रित प्रक्रिया है मैं ‘मनुष्य के लिए राजनीति’ में विश्वास करता हूँ ‘राजनीति के लिए मनुष्य’ में नहीं यह दोनों स्थितियाँ उतनी विरोधी नहीं हैं जितनी की आज समय-सन्दर्भ में बन गई हैं और जो स्थिति आज है वही यथार्थ है-आदर्शों के सीमान्त पर तो अन्ततः सब ठीक साबित हो सकता है पर आदर्शों तक पहुँचने की राह में मनुष्य को कितना छला गया है और कितना छला जाता है यह नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता है यातनाओं के जंगल से गुज़रते हुए मनुष्य की इस महायात्रा का जो सहयात्री है वही आज का लेखक है सह और समान्तर जीनेवाला सामान्य आदमी के साथ

 

भूमिका

 

मुझे जिन तकलीफों ने सताया है, उन्हें लेकर जब-जब मैंने जो कुछ लिख पाने की कोशिश की है, वही मुझे सही लगता है। और जो कुछ सही है, वही मुझे प्रिय है। तकलीफदेह बात यह है कि कष्ट और यातना के इन प्रसंगों को ‘प्रिय’ कहना पड़ रहा है।
कहानियाँ मेरे लिए मूलतः ‘असहमति’ का माध्यम हैं। इस असहमति के स्तर और क्षेत्र क्या रहे हैं, यह कहानियाँ खुद बता देंगी। जब से अपने चारों तरफ की दुनिया की ओर देखना शुरू किया तो पाया, कहीं कुछ भी नहीं बदल रहा था, इसलिए मुझे बदलना पड़ा। मुझे चारों ओर के कटु यथार्थ ने बदल दिया।

 दसवाँ पास करते-करते क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी के प्रगाढ़ सम्पर्क में आया, मार्क्सवाद की सक्रिय पाठशाला में शामिल हुआ और ‘जनक्रान्ति’ में शहीदों के जीवन-चरित्र पर छोटे-छोटे लेख लिखने शुरू किए-वहीं से शायद लेखन की विधिवत् दीक्षा मिली, और फिर उसी में अपने निर्णय जुड़ते गए। यही कहानियाँ, ‘निर्णयों का पर्याय’ बनती गईं। मेरे लिए मेरी कहानियाँ समय की धुरी पर घूमती सामान्य सच्चाइयों के प्रति और पक्ष में लिए गए निर्णयों की कहानियाँ हैं। कहानी यदि लेखक का ‘निर्णय’ नहीं है, तो क्या है ?

कहानी के सौन्दर्यवादी, साहित्यशास्त्री इकाई होने में मेरा विश्वास नहीं समाता। मुझे नहीं मालूम कि वे कहानियाँ कैसे लिखी जाती हैं। मेरे लिए कहानी निरन्तर परिवर्तित होते रहने वाली एक निर्णय-क्रेन्द्रित प्रक्रिया है। और यह निर्णय ? ये निर्णय मात्र वैयक्तिक नहीं हैं। वैयक्तिक है असहमति की जलती आग ! इसीलिए मैं ‘मनुष्य के लिए राजनीति’ में विश्वास करता हूँ, ‘राजनीति के लिए मनुष्य’ में नहीं। ये दोनों स्थितियाँ उतनी विरोधी नहीं हैं,

जितनी की आज के समय-सन्दर्भ में बन गई हैं। और जो स्थिति आज है, वही यथार्थ है-आदर्शों के सीमान्त पर तो अन्ततः सब ठीक रहता साबित हो सकता है। पर आदर्शों तक पहुँचने की राह में मनुष्य को कितना छला गया है, और कितना छला जाता है, इसे नज़रअन्दाज़ कैसे किया जा सकता है ? यातनाओं के जंगल से गुजरते मनुष्य की इस महायात्रा का जो सहयोगी है, वही आज का लेखक है। सह और समान्तर जीनेवाला, सामान्य आदमी के साथ।

‘राजा निरबंसिया’ और ‘देवा की माँ’ उसी आधारभूत निर्णय’ की कहानियाँ हैं, जिसका ज़िक्र ऊपर मैंने किया है। या यों कहिए कि जिन्दगी से आए पात्रों के निर्णयों को मैंने रेखांकित किया है। जीवन और उसके परम्परागत मूल्यों के प्रति उन पात्रों की असहमति ही मेरी असहमति भी है।

इस प्रथम दौर की कहानियाँ हैं : ‘सींखचे’, ‘मुर्दों की दुनिया’, ‘आत्मा की आवाज, ‘राजा निरबंसिया’ ‘देवा की माँ’, ‘भटके हुए लोग’, ‘कस्बे का आदमी’, ‘गर्मियों के दिन’, ‘एक अश्लील कहानी’, ‘अकाल’, ‘पीला गुलाब’ आदि (सन् ’52 से ’58-’59 तक)। और इकलौता उपन्यास है-‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’।
यह मैनपुरी इलाहाबाद के बीच का समय है। यों मेरी पहली कहानी है-‘कामरेड’, जो किसी संकलन में शामिल नहीं है। एटा से निकली‘ अप्सरा’ पत्रिका में छपी थी।

दिल्ली में मैं सन् ’59-’60 में आया। तब जिस रचनात्मक दबाव से गुज़रा वह ‘खोई हुई दिशाएँ’ संकलन की भूमिका में मौजूद है। ‘नई कहानी की भूमिका’ सन्’ 65 में लिखी गई, जो नई कहानी के पूरे दौर का मेरा अपना विश्लेषण है। सन्’ 63 से ’65 तक ‘नई कहानियाँ’ पत्रिका का सम्पादन करते हुए जो वैचारिक उथल-पुथल रही, उसे कुछ समय लिखे सम्पादकीय बता सकते हैं और सन् ’66-’67-’68 में जो कुछ लिखा और सोचा, वह चार किस्त लम्बे लेख ‘ऐय्यास’ प्रेतों का विद्रोह’ (धर्मयुग में प्रकाशित’ में बहुत हद तक मौजूद है।

दिल्ली पहुँचकर इस दूसरे दौर की कहानियों की शुरुआत ‘जार्ज पंचम की नाक’ और ‘दिल्ली में एक मौत’ कहानियों से होती है, जिनके बाद ‘खोई हुई दिशाएँ’ ‘पराया शहर’ ‘एक रुकी हुई जिन्दगी’, ‘तलाश’, ‘दुःखभरी दुनिया’, ‘जो लिखा नहीं जाता, ‘एक थी विमला’, ‘अपने देश के लोग’, आदि  कहानियाँ लिखी गईं और इस दौर का अन्त हुआ-‘मांस का दरिया’ और ‘युद्ध’ कहानियों से। उपन्यास लिखे-‘डाक बंगला’, ‘लौटे हुए मुसाफिर’, ‘तीसरा आदमी’ और ‘’समुद्र में खोया हुआ आदमी’।

इसके बाद सन् ’66 के दिसम्बर में बम्बई आया। और इस तीसरे दौर की शुरआत हुई....‘या कुछ और’ तथा ‘नागमणि’ से। फिर ‘लड़ाई’, ‘बयान’, ‘जोखिम’, ‘रातें’, ‘लाश’, ‘मैं’, ‘अपना एकान्त’, ‘उस रात वह मुझे ब्रीच कैण्डी’....‘कितने पाकिस्तान’ आदि कहानियाँ लिखी गईं।

मोटे तौर पर यदि कहूँ तो पहला दौर था अपने ‘कथा स्रोतो की पहचान और अपने परिवेश में जीने’ का। जिनके लिए ‘नई कहानी’ ने रूढ़िबद्ध गद्य साहित्य से विद्रोह किया। और कथ्य की धुरी पर कहानी को केन्द्रित किया। दूसरा दौर था ‘व्यक्ति के दारुण और विसंगत सन्दर्भों को समय के परिप्रेक्ष्य में समझने’ का और तीसरा दौर है ‘यातनाओं के जंगल से गुजरते मनुष्य के साथ और समानान्तर चलने’ का।

और इस अनवरत यात्रा में जो निर्णय (इस संकलन के प्रकाशन तक लिए गए, वे ही यहाँ संकलित हैं। इन निर्णयों का अब कोई मोह नहीं है।
लगता यही है कि सन् ’50-52 के आसपास का वह विद्रोह भी जरूरी था, और दूसरे दौर का वह प्रयास भी कि समय-संगत यथार्थ को स्वीकार और अभिव्यक्त किया जाए, जिसकी सीधी परिणति तीसरे दौर की चेतना है, मेरे लिए-सामान्य आदमी की नियति से जुड़ा हुआ लेखन। एक और तरह से कहूँ तो अनुभव के क्षेत्र की प्रामाणिक पहचान, अनुभव के समय-संगत सन्दर्भ और अनुभव के अर्थों तक जाने की कोशिश...शायद यही है मेरी कहानियों का।

मुझे पात्रों ने कभी कहानियाँ नहीं दी हैं। मुझे हमेशा उनकी स्थितियों ने ही कहानियाँ दी हैं। यदि कोई  कहानी पात्र-केन्द्रित हो गई तो वह मेरे लेखन की कमजोरी है, पर जान-बूझकर पात्रों को विरूप कर देने की कोशिश भी मैंने नहीं की है, क्योंकि सच्चाइयाँ इतनी इकहरी नहीं हैं कि उन्हें भारी हाथ से उठाया जा सके।

 

कमलेश्वर

 

राजा निरबंसिया

 

‘‘एक राजा निरबंसिया थे’’, माँ कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पाँच बच्चे अपनी मुट्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुन्दर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छः गौरें रखी जातीं, जिनमें से ऊपर वाली के बिन्दिया और सिन्दूर लगता, बाकी पाँचों नीचे दबी पूजा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती स्थिर-सी जलती और मंगल-घट रखा रहता, जिस पर रोली से सथिया बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मुख पर फूल चढ़ाने की उतावली की जगह कहानी सुनने की सहज स्थिरता उभर आती।

‘‘एक राजा निरबंसिया थे,’’ माँ सुनाया करती थीं, ‘‘उनके राज में बड़ी खुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे। कोई दुखी नहीं दिखाई पड़ता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी, चन्द्रमा-सी सुन्दर और...और राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सुख से रानी के महल में रहते...’’

मेरे सामने मेरे ख्यालों का राजा था, राजा जगपाती ! तब जगपाती से मेरी दांतकाटी दोस्ती थी, दोनों मिडिल स्कूल में पढने जाते। दोनों एक-से घर के थे, इसलिए बराबरी की निभती थी। मैं मैट्रिक पास करके एक स्कूल में नौकर हो गया और जगपती कस्बे के ही वकील के यहाँ मुहर्रिर। जिस साल जगपती मुहर्रिर हुआ, उसी वर्ष पास के गाँव में उसकी शादी हुई, पर ऐसी हुई कि लोगों ने तमाशा बना देना चाहा। लड़की वालों का कुछ विश्वास था

 कि शादी के बाद लड़की की विदा नहीं होगी। ब्याह हो जाएगा और सातवीं भांवर तब पड़ेगी, जब पहली विदा की सायत होगी और तभी लड़की अपनी ससुराल जाएगी। जगपती की पत्नी थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी थी, पर घर की लीक कौन मेटे : बारात बिना बहू के वापस आ गई और लड़के वालों ने तय कर लिया कि अब जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लूली सो हो, पर वह लड़की अब घर में नहीं आएगी।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book