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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।



हम जानते हैं कि राजाओं की तुलना में इतिहास में रानियों की संख्या कितनी कम रही है और उनमें से अनेक ने शासन सम्बन्धी अपनी योग्यता के विलक्षण प्रमाण दिये हैं जबकि बहुत सी रानियों ने बहुत कठिन समय में राजगद्दी सम्भाली थी। और यह भी विलक्षण बात है कि इन महिलाओं ने, अनेक स्थितियों में ऐसे गुण दर्शाये जो महिलाओं के परम्परागत चरित्र की कल्पना से बिल्कुल विपरीत थे। उन्हें उनकी बुद्धिमत्ता के लिए और शासन की दृढ़ता के लिए भी विशेष रूप से जाना गया। और यदि रानियों और साम्राज्ञियों की सूची में हम रीजेन्ट और प्रान्तीय वायसरायों का नाम भी जोड़ दें तो प्रतिष्ठित महिला शासकों की सूची बहुत लम्बी हो जाती है। यह तथ्य इतना अकाट्य है कि बहुत पहले, किसी ने इस तर्क का खण्डन करना चाहा तो अन्ततः उसने इस सत्य में एक और अपमान जोड़ दिया, यह कहकर कि रानियाँ राजाओं से बेहतर होती हैं क्योंकि राजाओं के अधीन महिलाएँ प्रशासन का संचालन करती हैं और रानियों के अधीन पुरुष।

एक खराब चुटकुले के खिलाफ बहस करना व्यर्थ में तर्क करना लग सकता है, लेकिन ऐसी चीजें वाकई लोगों के दिमाग को प्रभावित करती हैं; और मैंने लोगों को इसे उद्धृत करते हुए सुना है मानो उन्हें लगता हो कि इसमें वाकई कुछ दम है। कुछ भी हो, यह इस विचार-विमर्श का शुरुआती बिन्दु तो हो ही सकता है। तब, मैं कहता हूँ, यह सच नहीं है कि राजाओं के अधीन महिलाएँ प्रशासन चलाती हैं। ऐसी स्थितियाँ बहुत कम आती हैं; और दुर्बल राजाओं ने अपने प्रिय पुरुषों के माध्यम से उतना ही बुरा शासन किया है जितना कि स्त्रियों के प्रभाव में। जब एक राजा सिर्फ एक महिला के प्रति प्रेम के कारण उससे संचालित होता है, तो अच्छा प्रशासन सम्भव नहीं होता। हालाँकि इसके भी अपवाद हैं। फ्रांसीसी इतिहास में दो ऐसे राजा हुए हैं जिन्होंने बहत लम्बे अरसे के लिए स्वेच्छा से प्रशासन की बागडोर महिलाओं के हाथ में दी-एक ने अपनी माँ के व दूसरे ने अपनी बहन के हाथ में। इनमें से एक चार्ल्स आठवाँ बालक ही था लेकिन ऐसा उसने अपने पिता लुई ग्यारहवें की इच्छानुसार किया था जो स्वयं अपने युग के योग्यतम शासकों में से एक था। दूसरा शासक, सैंत लुई, चार्लीशार्लमन के समय के बाद से सबसे उत्साही और सर्वश्रेष्ठ शासकों में एक था। दोनों राजकुमारियों ने ऐसी कुशलता से राज किया जिसकी बराबरी उनके समकालीन राजकुमार भी नहीं कर पाये। सम्राट चार्ल्स पंचम जो अपने समय का सर्वाधिक राजनीतिक राजा था और जिसके दरबार में सर्वाधिक समर्थ लोग नियुक्त थे और जो अपनी निजी भावनाओं के लिए सार्वजनिक हित की बलि कभी नहीं देता था, उसने अपने परिवार की दो राजकुमारियों को क्रमशः नीदरलैण्ड्स का गवर्नर नियुक्त किया था और जीवनपर्यन्त उन दोनों को इस पद पर रखा (और उसके बाद तीसरी गवर्नर भी एक राजकुमारी ही बनी)। दोनों ने सफलतापूर्वक शासन किया और उनमें से एक, ऑस्ट्रिया की मार्गरेट अपने समय की सर्वाधिक योग्य राजनीतिज्ञ थी। यह तो हुआ इस प्रश्न का एक पहलू। अब दूसरे पक्ष की बात करते हैं। जब यह कहा जाता है कि रानियों के अधीन पुरुष राज चलाते हैं तो क्या इसका अर्थ वैसा ही समझना चाहिये जैसा कि राजाओं के अधीन महिलाएँ अपने निजी सुख के सहभागी को ही प्रशासन का माध्यम बनाती हैं? ऐसी स्थिति दुर्लभ ही मिलती है, उन स्त्रियों के साथ भी जो कैथरीन द्वितीय जितनी ऐयाश रही हों; और इन स्थितियों में कथित पुरुष प्रभाव द्वारा कुशल प्रशासन नहीं पाया जाता। अगर यह सच भी होता कि एक रानी के अधीन बेहतर पुरुषों के हाथ में प्रशासन रहता है बजाय एक औसत राजा के तो फिर इसका अर्थ यही हुआ कि रानियों में इन (पुरुषों) का चुनाव करने की अधिक व बेहतर क्षमता होती है और महिलाएँ ही पुरुषों की अपेक्षा शासक व मुख्य मंत्री दोनों पदों के लिये अधिक योग्य होती हैं; क्योंकि प्रधानमंत्री का काम स्वयं प्रशासन चलाना नहीं बल्कि ऐसे लोगों को ढूँढ़ना होता है जो हर सार्वजनिक विभाग को कुशलतापूर्वक चलाने के योग्य हों। किसी भी व्यक्तित्व को जल्दी ही भाँप लेना, जो निश्चित तौर पर पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की बेहतरी का एक स्वीकार्य गुण है, उन्हें अन्य योग्यताओं के साथ-साथ अवश्य ही उचित लोगों का चुनाव करने में पुरुषों से अधिक कुशल बनाता है। और यही हर उस व्यक्ति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है, जिसे समाज का प्रशासन सम्भालना हो। यहाँ तक कि अनैतिक व भ्रष्ट कैथरीन डि मेडिची भी चान्सलर डि ल'होपिताल की योग्यता व वकत को समझती थी। लेकिन यह भी सच है कि अधिकतर महान रानियाँ प्रशासन की अपनी कुशल क्षमता के कारण ही महान बनीं और उन्हें अच्छे लोगों की सेवाएँ भी इसी वजह से प्राप्त हुई। मामलात पर अन्तिम आदेश उन्हीं के हाथों में सुरक्षित रहता था और अगर वे अच्छे सलाहकारों की बात सुनती थीं तो इसी तथ्य से वे यह साबित कर देती थीं कि प्रशासन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मसलों पर उनका निर्णय उन सलाहों जितना ही कुशल होता था।

क्या यह सोचना तर्कसंगत है कि जो लोग राजनीति के महत्त्वपूर्ण कार्यों के करने के योग्य हैं वे उनसे कम महत्त्वपूर्ण कार्य करने के काबिल नहीं होंगे? क्या इस बात में कोई औचित्य हो सकता है कि राजकुमारों की पत्नियाँ और बहनें, जब भी जरूरत पड़े, तो राजकुमारों के काम में उनके जितनी ही योग्य हों लेकिन राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, कम्पनियों के निदेशकों और सार्वजनिक संस्थानों के प्रबन्धकों की पत्नियाँ व बहनें वह सब करने में असमर्थ हों जो उनके भाई व पति करते हैं? वास्तविकता साधारण सी है; राजकुमारियों का लालन-पालन उनके उच्च कुल के कारण सामान्य पुरुषों के स्तर से नीचे होने की बजाय ऊपर ही होता है। उन्हें यह कभी नहीं सिखाया जाता कि राजनीति में रुचि लेना उनके लिये अनुचित है बल्कि किसी भी सुशिक्षित मनुष्य की अपने चारों ओर हो रही उन गतिविधियों में भरपूर दिलचस्पी लेने की उनको अनुमति होती है, जिनमें हिस्सा लेने के लिए उनकी कभी भी जरूरत पड़ सकती है। शाही परिवारों की महिलाएँ ही सिर्फ ऐसी स्त्रियाँ हैं जिन्हें पुरुषों जितनी ही रुचियों व व्यक्तित्व विकास की स्वतंत्रता होती है; और उन्हीं के सन्दर्भ में, महिलाओं में किसी तरह की हीनता नहीं पायी जाती। जहाँ भी जिस भी अनुपात में प्रशासन के क्षेत्र में महिलाओं की क्षमता की परख की गयी है, उसमें वे पर्याप्त व सन्तोषजनक ही पायी गयी हैं।
 
महिलाओं की विशिष्ट प्रवृत्तियों व रुचियों के सम्बन्ध में, जैसी कि महिलाएँ अब तक रही हैं, यह तथ्य दुनिया के अपूर्ण अनुभव के श्रेष्ठ परिमाणों के अनुकूल लगता है। मैंने यह नहीं कहा कि जैसी वे आगे भी रहेंगी-क्योंकि जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि सहज स्वभाव के मद्देनजर किसी के द्वारा भी यह निश्चित करना कि महिलाएँ क्या हैं, क्या नहीं हैं, क्या हो सकती हैं या क्या नहीं हो सकतीं-मुझे उसका अहंकार ही लगता है। जहाँ तक उनके सहज-स्फूर्त विकास का प्रश्न है, तो वे अब तक इतनी अस्वाभाविक स्थिति में रखी गयी हैं कि उनका स्वभाव छिपा हुआ और विकृत हुए बिना नहीं रह सकता। और कोई भी बहुत निश्चित तौर पर यह घोषणा नहीं कर सकता कि अगर पुरुषों की तरह ही महिलाओं के स्वभाव को भी अपनी दिशा चुनने के लिए खुला छोड़ दिया जाता, और अगर मानव समाज के अनुकूल होने के अतिरिक्त उनके स्वभाव को कोई कृत्रिम झुकाव देने का प्रयास नहीं किया जाता, तो उनके व्यक्तित्व व क्षमताओं में कोई महत्त्वपूर्ण या सम्भवतः कोई भी अन्तर विकसित होता। अब मैं यह दिखलाऊँगा कि स्त्री-पुरुष में जो बहस योग्य भेद आज मौजूद हैं वे भी प्राकृतिक क्षमता का अन्तर नहीं बल्कि ऐसे अन्तर हैं जो परिस्थितियों के फलस्वरूप पैदा हो सकते हैं। किन्तु महिलाओं को देखते हुए, जैसा कि अनुभव से ज्ञात है, जो उनके बारे में अधिकतर सामान्य बातें कही जाती हैं उनमें से अपेक्षाकृत सत्य यही बात हो सकती है कि उनकी योग्यताओं का सामान्यतः झकाव व्यावहारिक की ओर होता है। यह कथन मौजूदा व अतीत में महिलाओं के सार्वजनिक इतिहास के बारे में सर्वाधिक सुविधापूर्वक कहा जा सकता है। और यह आम व दैनिक अनुभव से ही ज्ञात हुआ है। आइये एक योग्य महिला के विशेष स्वभाव की खास मानसिक विशेषताओं पर ध्यान दें। वे सभी इस प्रकार की होती हैं जो व्यवहार में लाने के अनुकूल हों और महिला का झुकाव अपनी तरफ लाती हैं। महिलाओं की सहजानुभूति अथवा अन्तर्बोध से क्या तात्पर्य है? इसका अर्थ है-एक उपस्थित तथ्य की शीघ्र व उचित समझ। इसका सामान्य सिद्धान्तों से कुछ लेना-देना नहीं है। अन्तर्ज्ञान से किसी को भी प्रकृति के वैज्ञानिक नियमों का बोध या कर्तव्य के एक सामान्य नियम का ज्ञान नहीं हुआ है। ये तो सावधानीपूर्वक इकट्ठा किये गये अनुभवों के तुलनात्मक व गहन अध्ययन का परिणाम होते हैं। और इस विभाग में अन्तर्बोध रखने वाले स्त्री या पुरुष इस विभाग में कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर पाते जबकि उसके लिये आवः क अनुभव वे खुद प्राप्त करने में समर्थ न हों। क्योंकि उनकी जो अन्तर्बोध सम्बन्धी विलक्षणता होती है वह उनको विशेष तौर पर निजी अवलोकन से सामान्य सत्य इकट्ठा करने में समर्थ बनाती है। उसके बाद अगर उन्हें दूसरे लोगों के अनुभव भी उसी तरह मिलने का मौका प्राप्त होता है जैसे पुरुषों को (मैं 'मौका' शब्द इसलिए प्रयोग कर रहा हूँ क्योंकि जहाँ तक जीवन की वृहद चिन्ताओं सम्बन्धी जानकारी का सवाल है, शिक्षित महिलाएँ केवल वे हैं जो स्व-शिक्षित होती हैं) तब वे पुरुषों की अपेक्षा (अपनी विलक्षणता के) कुशल व सफल उपयोग में अधिक सक्षम होती हैं। अधिकतर शिक्षित पुरुष भी उपस्थित तथ्य को समझने में इतने कुशल नहीं होते। वे तथ्यों में वह तत्व नहीं देख पाते जो वाकई है बल्कि वह देखते हैं जिसकी अपेक्षा करना उन्हें सिखाया गया है। किसी भी योग्य महिला के साथ ऐसा कम ही होता है। अन्तर्बोध की उनकी क्षमता उन्हें इस बात से बचाती है। यदि समान अनुभव व समान सुविधाएँ मिलें तो महिलाएँ प्रायः पुरुष की अपेक्षा अपने समक्ष उपस्थित चीज को अधिक बेहतर समझ लेती हैं। अब, यह समझ वह प्रमुख गण है जिस पर सिद्धान्त की अपेक्षा व्यावहारिकता अधिक निर्भर करती है। सामान्य सिद्धान्तों को खोजना सैद्धान्तिक योग्यता पर निर्भर करता है : उन्हें विशेष परिस्थितियों में समझना व विभाजित करना जिनमें वे लागू हो सकते हैं या नहीं हो सकते-यह व्यावहारिक क्षमता का काम है। और इसके लिये महिलाएँ जैसी वे अब हैं, विशेष झुकाव रखती हैं। मैं मानता हूँ कि अच्छे सिद्धान्तों के बिना उनका अच्छा व्यावहारिक उपयोग नहीं हो सकता और महिलाओं की काबिलियत में किसी चीज को समझने की शीघ्रता उन्हें अपनी समझ पर जल्दबाजी में किये गये सामान्यीकरण को हावी होने देने की प्रवृत्ति होती है लेकिन साथ ही समझ की वृहद रेंज होने पर उसे तुरन्त सुधार लेने की तत्परता भी होती है। लेकिन इस कमी को मानवजाति के अनुभव से ही सुधारा जा सकता है-सामान्य ज्ञान से, वह चीज जो शिक्षा ही प्रदान कर सकती है। एक महिला की गलतियाँ खासतौर पर उस चतुर स्व-शिक्षित पुरुष की गलतियों की तरह होती हैं जो अकसर वह देख लेता है जो एक ढर्रे पर शिक्षित पुरुष नहीं देख पाते लेकिन उन चीजों के बारे में जानकारी न होने से गलती कर बैठता है, जो बहुत पहले से ही ज्ञात हैं। बेशक, उसने पहले से ही मौजूद ज्ञान को खासा हासिल किया है अन्यथा उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता था, लेकिन जो वह जानता है, वह उसने टुकड़े-टुकड़े में या अव्यवस्थित रूप से सीखा है, जैसा कि महिलाएं करती हैं।

तत्काल उपस्थित, वास्तविक तथ्य व यथार्थ के लिए स्त्री मस्तिष्क की जो समझ है, चाहे इसमें कुछ गलतियाँ हो सकती हैं, फिर भी यह इसके विपरीत गलती का सबसे उपयोगी प्रतिकारक है। सहज अनुभूति और अन्तर्बोध वाले मस्तिष्क का प्रमुख भटकाव एक वस्तुपरक तथ्य की समझ में कमी ही होती है। इसी कमी के कारण, बाहरी तथ्य उनके सिद्धान्तों का जो अन्तरविरोध प्रस्तुत करते हैं, प्रायः वे उसे अनदेखा कर देते हैं और इस अन्तरबोध के वैध उद्देश्य से ही भटक जाते हैं और अपनी इस सामर्थ्य को ऐसे क्षेत्र में भटकने देते हैं, जिसमें वास्तविक लोग, सजीव, निर्जीव वस्तुएँ मौजूद नहीं होतीं, बल्कि तत्व मीमांसा से जनित भ्रमों के साए या सिर्फ शब्दों की उलझन से पैदा हुई आकृतियाँ होती हैं और वे इन्हीं को श्रेष्ठ दर्शन की चीज समझने लगते हैं। उस पुरुष के लिए जो जानकारी व अवलोकन से ज्ञान नहीं प्राप्त करता बल्कि विचार प्रक्रिया के जरिये विज्ञान के व्यापक सत्य व व्यवहार के नियम जानने का प्रयास करता है, उसके लिये अपने इस चिन्तन व सहानुभूति को अपने से श्रेष्ठ महिला की संगत व आलोचना के साथ जारी रखने से कीमती चीज और कोई नहीं हो सकती। अपने विचारों को वास्तविक चीजों तक और प्रकृति के वास्तविक तथ्यों तक ही सीमित रखने के लिए इससे अच्छी कोई बात नहीं। कोई महिला एक काल्पनिक चिन्तन के पीछे शायद ही भटकती है। विषयों और चीजों को एक समूह नहीं बल्कि एक व्यक्ति के रूप में देखने की उसकी मानसिक आदत और (जो इस बात से बहुत निकट से सम्बन्धित है) लोगों की मौजूदा भावनाओं में उसकी अपेक्षाकृत अधिक रुचि, जिससे वह सर्वप्रथम इस बात की परवाह करती है कि उससे लोगों पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा-ये दो चीजें उसे इस प्रकार के किसी भी चिन्तन अथवा परिकल्पना में आस्था नहीं रखने देतीं जिसका सम्बन्ध व्यक्तियों से न होकर चीजों से ऐसा हो मानो वे किसी काल्पनिक अस्तित्व, किसी मस्तिष्क द्वारा रचित संसार के लाभ के लिए हों, जीवित लोगों की भावनाओं के लिए नहीं। इस प्रकार महिलाओं के विचार चिन्तनशील पुरुषों के विचारों को यथार्थता प्रदान करने में वैसे ही सहायक होते हैं जैसे पुरुषों के विचार महिलाओं के विचारों को विस्तार देने में। गहराई से सोचें तो मुझे शक है कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को इस स्थिति में कोई नुकसान है।
 
यदि इस प्रकार महिलाओं की मौजूदा मानसिक विशेषताएँ चिन्तन प्रक्रिया में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती हैं, तो वे चिन्तन कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद इसे व्यवहार में लाने के लिए और अधिक उपयोगी होती हैं। जो कारण पहले बताये जा चुके हैं, उनके परिणामस्वरूप महिलाओं द्वारा वह गलती करने की कम सम्भावना होती है जो पुरुष सामान्यतः करते हैं; उस स्थिति में भी अपने नियमों पर अड़े रहने की, जिसकी विशेषता उसे या तो उस वर्ग से अलग कर देती है, जिसमें ये नियम लाग होते हैं, या जिस स्थिति को नियमानुसार ढालने की विशेष आवश्यकता होती है। अब हम चतुर महिलाओं की दूसरी सर्व स्वीकृत श्रेष्ठता की बात करते हैं-किसी भी चीज को समझने की तीव्रता। क्या यही एक मुख्य गुण नहीं है जो व्यक्ति को किसी भी बात को व्यवहार में लाने के योग्य बनाता है? कार्य करते हुए, हर बात निरन्तर तुरन्त व उचित समय पर निर्णय लेने पर निर्भर करती है। चिन्तन में कोई भी बात इस पर निर्भर नहीं करती। केवल एक विचारक प्रतीक्षा कर सकता है, सोचने में समय ले सकता है, अतिरिक्त प्रमाण जुटा सकता है, उस पर अपना दर्शन तुरन्त पूर्ण करने का बोझ नहीं होता कि कहीं अवसर ही हाथ से न निकल जाये। दर्शन में अपर्याप्त आँकड़ों से सर्वश्रेष्ठ परिणाम निकालने की सामर्थ्य वाकई व्यर्थ नहीं होती; सभी ज्ञात तथ्यों के अनुसार एक अस्थायी परिकल्पना की रचना आगे अन्वेषण करने का आवश्यक आधार होती है। यह गुण दर्शन में उपयोगी तो है, मगर उसके लिये प्रमुख योग्यता नहीं। और सहायक अथवा प्रमुख कार्य के लिए एक दार्शनिक सुविधानुसार समय ले सकता है। उसे कोई भी कार्य शीघ्रता से करने की जरूरत नहीं होती; बल्कि उसे तो धैर्य की आवश्यकता होती है, अपूर्ण चीजों को धीरे-धीरे पूर्णता प्रदान करने की ओर कार्य करने के लिए, जब तक कि एक अनुमान एक पूर्ण प्रमेय में नहीं पक जाता। इसके विपरीत जिनका कार्य नाशवान और क्षणभंगुर चीजों-तथ्यों के प्रकार नहीं बल्कि निजी तथ्यों से सम्बन्धित है, उनके लिए विचारशीलता के बाद विचार की शीघ्रता बेहद आवश्यक गुण है। कार्य की तात्कालिकता के समक्ष जिस व्यक्ति के पास अपनी क्षमताओं पर तुरन्त नियन्त्रण नहीं है, इन क्षमताओं का उसके लिये कोई लाभ नहीं। इसी क्षेत्र में महिलाएँ और वे पुरुष जो बहुत कुछ महिलाओं की तरह हैं, श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। दूसरी प्रकार का पुरुष, चाहे उसकी क्षमताएँ कितनी ही प्रबल क्यों न हों, उनके पूर्ण प्रयोग व नियन्त्रण धीरे-धीरे कर पाता है, निर्णय लेने की शीघ्रता व निर्णयात्मक कार्य की तात्कालिकता-उन चीजों में भी जिन्हें वह सबसे अच्छी तरह जानता है, धीरे-धीरे और काफी प्रयास के बाद आती है।

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