अब तक, ऐसा लक्षित हुआ है कि लिंगभेद को विशेषाधिकारों के लिए अयोग्यता व
पराधीनता का चिह्न न बनाकर दुनिया को जो लाभ होंगे वे व्यक्तिगत होने की
अपेक्षा सामाजिक अधिक हैं; जिनमें सामूहिक विचार व कार्यशक्ति में इजाफा और
स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की सामान्य स्थितियों में सुधार शामिल हैं। लेकिन यदि
सबसे प्रत्यक्ष लाभ की बात न की जाये तो यह इस केस की सबसे गम्भीर न्यूनोक्ति
होगी-वह है मानवजाति के मुक्त हुए आधे भाग की निजी खुशी में अवर्णनीय फायदा;
दूसरों की इच्छा के अधीन जीवन और बौद्धिक स्वतन्त्रता के जीवन के बीच का फर्क।
भोजन व कपड़े की मूल आवश्यकता पूरी हो जाने के बाद मानव स्वभाव की प्रबलतम व
प्रथम इच्छा होती है-स्वतन्त्रता। यदि मानवजाति अव्यवस्थित है तो अव्यवस्थित,
कानूनविहीन स्वतन्त्रता की इच्छा। जब वे कर्तव्य व तक की महत्ता व अर्थ समझ
जाते हैं तो उनकी प्रवृत्ति अपनी स्वतन्त्रता में इनके द्वारा निर्देशित होने
की होती है; किन्त इस कारण वे स्वतन्त्रता की इच्छा नहीं करें या कम करें-ऐसा
नहीं होता; वे दूसरे लोगों को इन मार्गदर्शक सिद्धान्तों का प्रतिनिधि या
व्याख्याता मान कर दूसरों की इच्छा को स्वीकार नहीं करते। इसके विपरीत, जिन
समाजों में तर्क व सर्वाधिक रही है और सामाजिक कर्तव्य का विचार सर्वाधिक प्रबल
रहा है, ये वही समाज हैं जिन्होंने एक व्यक्ति की कार्यसम्बन्धी स्वतंत्रता पर
सर्वाधिक जोर दिया है-अपने व्यवहार को कर्तव्य की अपनी भावनानुसार-और उन्हीं
नियमों व सामाजिक नियन्त्रण के द्वारा संचालित करने की आजादी, जिनसे उसका विवेक
सहमत हो । जो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को खुशी व सुख के तत्व के रूप में उचित
प्रकार से समझता है, वह उसके मूल्य को समझेगा, चूँकि वह उसकी स्वयं की खुशी का
कारण भी है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिस पर एक मनुष्य के अपने लिए किये गये व
दूसरों के लिए किये गये निर्णय में फर्क न हो। जब वह दूसरों की यह शिकायत सुनता
है कि उन्हें कार्य व्यवहार की स्वतंत्रता नहीं है कि उनकी अपनी इच्छा का चीजों
की व्यवस्था व नियमन पर पर्याप्त प्रभाव नहीं है, तो उसका स्वाभाविक प्रश्न
होगा, कि उनकी अपनी शिकायतें क्या हैं? उन्हें क्या नुकसान होता है? और वे ऐसा
क्यों समझते हैं कि उनके मामलों का प्रबन्धन सुचारु रूप से नहीं चल रहा? और अगर
वे इन सवालों का ठीक-ठाक जवाब देने में असफल हो जाते हैं तो उसे अगर वह उचित
केस लगता है, तो भी वह उस पर ध्यान नहीं देता और उनकी शिकायत को उन लोगों का
झगड़ालूपन समझ लेता है जिन्हें कोई चीज सन्तुष्ट नहीं कर सकती। लेकिन जब वह खुद
अपने लिये यह निर्णय ले रहा होता है तो उसके मापदण्ड बिल्कुल अलग होते हैं। तब,
उसके अभिभावक यदि उसके हितों को बहुत सुचारु रूप से भी सम्भालें तब भी उसे
सन्तोष नहीं होता; निर्णायक सत्ता में उसका न रहना ही उसकी सबसे बड़ी शिकायत
होती है जिससे कुप्रबन्धन के सवाल पर बात करना तो बेमानी हो जाता है। देशों के
साथ भी ऐसा ही होता है। कौन से स्वतन्त्र देश का नागरिक अपनी स्वतन्त्रता के
बदले अच्छे व कुशल प्रशासन की बात सुनना चाहेगा? अगर वह यह मान भी ले कि कुशल
प्रशासन उन लोगों का ही हो सकता है जिनका शासन उनकी इच्छा से इतर कोई और चलाये,
तो भी सार्वजनिक मामलात के संचालन की कमियों की क्षतिपूर्ति क्या उसके अपने
नैतिक उत्तरदायित्व के भरोसे खुद अपनी नियति का निर्माण करने की भावना नहीं कर
देगी? उसे निश्चिन्त हो जाना चाहिये कि इस मुद्दे पर जो वह सोचता है महिलाएँ भी
ठीक वैसा ही सोचती हैं। हेरोडोतस के समय से लेकर वर्तमान तक मुक्त सरकार के
उदात्त प्रभावों के बारे में जो भी कहा या लिखा गया है, सभी क्षमताओं को यह जो
प्रोत्साहन प्रदान करती है, बद्धि व अनुभव के समक्ष यह जितने वृहद व उच्च
उद्देश्य प्रस्तुत करती है, सार्वजनिक जज्बों को जितना स्वार्थविहीन, शान्त
बनाती है व कर्तव्य को जितनी वृहद दृष्टि देती है और एक व्यक्ति का नैतिक,
अध्यात्मिक व सामाजिक स्तर सामान्यतः ऊँचा उठाती है-यह सब जो भी कुछ कहा गया
है, क्या वह महिलाओं के लिए भी शब्दशः उतना ही सच नहीं है जितना पुरुषों के
लिए? क्या ये चीजें व्यक्तिगत खुशी का महत्त्वपूर्ण भाग नहीं हैं? किसी भी
पुरुष से यह याद करने को कहें कि लड़कपन से निकलकर स्नेहपूर्ण अभिभावकों के
नियन्त्रण से निकलने और पुरुषत्व के उत्तरदायित्वों में प्रवेश करने में कैसा
लगता है? क्या यह उस पर से एक भारी बोझ उठाना या एक बाधक और अन्यथा कष्टपूर्ण
बन्धन से मुक्त करने जैसा नहीं होता? क्या उसे तब ऐसा नहीं लगता कि वह पहले से
अधिक पूर्ण और सजीव इंसान है? लेकिन यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि व्यक्तिगत
अभिमान की सन्तुष्टि व दमन के सन्दर्भ में, हालाँकि अधिकतर पुरुषों में ऐसा
अपने सम्बन्ध में कम होता है, दूसरे लोगों को इसके लिये कम छूट मिलती है और
व्यवहार के औचित्य के आधार के रूप में इन पर अन्य इंसानी भावनाओं की अपेक्षा कम
ध्यान दिया जाता है; शायद इसलिए क्योंकि पुरुष अपने सम्बन्ध में इन भावनाओं को
अन्य अनेक गुणों के इतने सारे नाम दे देते हैं कि उन्हें इसका आभास ही नहीं
होता कि उनके अपने जीवन में ये भावनाएँ कितना प्रबल प्रभाव रखती हैं। हम इस
बारे में निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि महिलाओं के जीवन व भावनाओं में भी ये
उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। महिलाओं को इन भावनाओं को सबसे
स्वाभाविक व स्वस्थ दिशा में दबाने की शिक्षा दी जाती है। लेकिन आन्तरिक
सिद्धान्त तो शेष रहता ही है, उसका बाहरी रूप बदल जाता है। एक सक्रिय व
ऊर्जावान दिमाग, यदि उसे स्वतंत्रता न मिले तो सत्ता हथियाने की कोशिश करता है;
जब उसे अपने ही नियन्त्रण का अधिकार नहीं मिलता तो वह दसरे को नियन्त्रित करने
के प्रयास में अपने व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है। किसी भी इंसान को दूसरों
पर निर्भरता के अतिरिक्त और किसी अस्तित्व की अनुमति न देना दूसरों को अपने
उद्देश्य के लिए झुका लेने पर एक बहुत बड़ा प्रीमियम देना है। जहाँ स्वतन्त्रता
की उम्मीद भी नहीं की जा सकती लेकिन सत्ता की उम्मीद रखी जा सकती है, तो सत्ता
मानव इच्छा का एक बड़ा उद्देश्य बन जाती है। जिनको खुद उनके मामलात का संचालन
करने की इजाजत नहीं होती, वे इसकी क्षतिपूर्ति अगर सम्भव हो तो, दूसरों के
मामले में अपने उद्देश्यों के लिए दखलन्दाजी से करते हैं। अपने सौन्दर्य,
वेशभूषा व प्रदर्शन के प्रति महिलाओं का आकर्षण और ऐयाशी व सामाजिक अनैतिकता की
जो भी बुराइयाँ इस वजह से हैं, उनका कारण यही है। सत्ता प्रेम और स्वतन्त्रता
के प्रति प्रेम हमेशा से परस्पर विरोधी रहे हैं। जहाँ स्वतन्त्रता सबसे कम हो,
वहाँ सत्ता की इच्छा सबसे प्रबल व अनैतिक होती है। मानवजाति में सत्ताकांक्षा
एक भ्रष्ट करने वाले माध्यम के रूप में तभी खत्म होगी, जब हममें से प्रत्येक
बिना सत्ता के अपना काम चलाने में समर्थ हो। और यह तभी हो सकता है जब प्रत्येक
की निजी चिन्ताओं में दूसरे की स्वतन्त्रता का आदर करना एक सुस्थापित सिद्धान्त
हो जाये। किन्तु केवल व्यक्तिगत गरिमा की भावना के जरिये ही अपनी सामर्थ्य की
मुक्त दिशा व प्रबन्ध ही व्यक्तिगत खुशी का स्रोत नहीं होता, और इसमें बँधा या
सीमित होना दुख का-इंसानों के लिए और महिलाओं के लिए भी।
रोग, दारिद्र्य और अपराधबोध के बाद जीवन की खुशियों व सुख के लिए सर्वाधिक घातक
होता है अपनी सक्रिय क्षमताओं को योग्य अभिव्यक्ति न मिल पाना। वे महिलाएँ जो
परिवार की देखरेख करती हैं और इस दौरान उन्हें इसकी अभिव्यक्ति भी मिल जाती है
और यह उनके लिये पर्याप्त होता है; लेकिन उन महिलाओं की तेजी से बढ़ती संख्या
का क्या, जिन्हें इस कार्य को करने का अवसर ही नहीं मिला जो, उनका मजाक उड़ाते
हुए कहा जाता है कि उनके लिये उचित है? उन महिलाओं का क्या-जिनके बच्चे मृत्यु
ने छीन लिये हैं या वे उनसे दूर हैं, या बडे हो गये हैं. विवाहित हैं और उनके
अपने-अपने घर हैं? ऐसे परुषों के बहत से उदाहरण हैं जो जीवन भर व्यवसाय में
व्यस्त रहने के बाद जीवन का लुत्फ उठाने की और आराम करने की मंशा से रिटायर
होते हैं लेकिन जो पुरानी अभिरुचियों के बदले नई रुचियाँ विकसित नहीं कर पाते
तो निष्क्रियता के जीवन का यह बदलाव उनमें ऊब, उदासी और अन्ततः असमय मृत्यु का
कारण बनता है। फिर भी कोई भी इन्हीं के समान्तर उन अनेक योग्य महिलाओं की
स्थिति के बारे में नहीं सोचता जो, जैसा कि उन्हें बताया जाता है, उसी प्रकार
समाज के प्रति अपना ऋण चुकाने के बाद, एक परिवार को भली-भाँति पालने-पोसने के
बाद, एक घर की तब तक देखभाल करने के बाद जब तक कि उसकी जरूरत थी-उसी कार्य
द्वारा त्याग दी जाती हैं, जिसके अनुकूल उन्होंने स्वयं को जीवन भर बनाया था;
और उनकी सक्रियता तो वैसी ही रहती है लेकिन उसके योग्य रोजगार शेष नहीं रहता,
जब तक कि सम्भवतः उसकी कोई पुत्री या पुत्रवधू उनके पक्ष में अपनी नई गृहस्थी
के कुछ काम उन्हें न सौंप दे। उन लोगों के लिए यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है,
जिन्होंने उस काम को योग्यतापूर्वक किया, जब तक उन्हें वह काम दिया गया, जिसे
दुनिया उनका एकमात्र सामाजिक कर्तव्य मानती है। ऐसी महिलाओं के लिए और उन अनेक
महिलाओं के लिए, जिनके हवाले यह कर्तव्य किया ही नहीं गया-अनेक जीवन भर अपनी
व्यर्थ हो गयी योग्यता व कार्यों के लिए तरसती रहती हैं, जिनके विस्तार का
उन्हें अवसर नहीं मिला-सामान्यतः उनके लिये धर्म और दान-दो ही रास्ते बचते हैं।
किन्तु उनका धर्म, हालाँकि वह भावना प्रधान हो सकता है, जिसमें वे सारे धार्मिक
कृत्य सम्पन्न करती हैं, सक्रिय धर्म नहीं हो सकता जब तक कि वह दान के रूप में
न हो। दानादि के लिए उनमें से अनेक उपयुक्त होती हैं, लेकिन उसका आचरण इस तरह
करने के लिए कि वह फायदेमन्द साबित हो-शिक्षा, अनेक तरह की तैयारियों और एक
प्रशासक जैसी जानकारी व विचार शक्ति की आवश्यकता होती है। सरकार के ऐसे कम ही
प्रशासनिक कार्य हैं जिनके लिये वह व्यक्ति अनुकूल नहीं होगा जो दान सम्बन्धी
कार्यों को कुशलतापूर्वक कर सकता है। इस क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में भी
(खासकर बच्चों की शिक्षा में) महिलाओं को जिन कार्यों की अनुमति है, वह तब तक
ठीक प्रकार से नहीं किये जा सकते, जब तक उन्हें उचित प्रशिक्षण न दिया जाये।
और इस प्रशिक्षण की अनुमति उन्हें नहीं है और यह समाज के लिए काफी नुकसानदेह
है। और यहाँ मैं वह एकमात्र तरीका सामने लाना चाहूँगा जिसके जरिये महिलाओं की
अक्षमता या अयोग्यता का सवाल प्रस्तुत किया जाता है-उन लोगों के द्वारा जिन्हें
अपनी नापसन्दगी की चीजों को हास्यास्पद रूप में प्रस्तुत करना, उन तर्कों का
जवाब देने की अपेक्षा काफी सरल लगता है। जब यह सुझाव दिया जाता है कि महिलाओं
की कार्यान्वयन की योग्यता व व्यावहारिक सलाह कभी-कभी राज्य संचालन के क्षेत्र
में काफी फायदेमन्द हो सकती है, तब मजाक उड़ाने वाले ये लोग दुनिया के सामने
संसद में या मंत्रिमण्डल में बैठी किशोरियों या बाईस-तेईस साल की युवा पलियों
की वैसी ही तस्वीर खींच देते हैं जैसे कि वह किसी बैठक से सीधे हाउस ऑफ कामन्स
में उठाकर रख दी गयी हों। वे भूल जाते हैं कि सामान्यतः पुरुष भी इतनी छोटी आयु
में संसद की सीट के लिए नहीं चुने जाते, या किसी गम्भीर राजनीतिक कार्य के लिए
नियुक्त नहीं किये जाते। सामान्य विवेक उन्हें बता सकता है कि अगर महिलाओं पर
यह दायित्व डाला जायेगा तो वे ऐसी महिलाएँ होंगी जिन्हें वैवाहिक जीवन में कोई
रुचि नहीं या अन्य किसी कार्य में अपनी क्षमताओं को लगाने की इच्छा नहीं, (जैसा
कि आज भी अनेक महिलाएँ विवाह की अपेक्षा वे कुछ व्यवसाय करना ज्यादा पसन्द करती
हैं, जो उनके लिये खुले हुए हैं) और जिन्होंने अपने जीवन के अनेक वर्ष उस कार्य
को करने के लिए योग्य बनने में लगाये हैं जिसमें उनकी रुचि है; या शायद
चालीस-पैंतालिस वर्षीया वे विधवाएँ इन कार्यों में नियुक्त की जायेंगी,
जिन्होंने अपने परिवार में जीवन व प्रशासकीय क्षमता के बारे में काफी जानकारी
प्राप्त कर ली है या जो उचित अध्ययन की सहायता से अपेक्षाकृत कम संकुचित स्तर
पर उपलब्ध कराई जा सकती है। यूरोप में ऐसा कोई देश नहीं है, जहाँ योग्यतम
पुरुषों ने निजी व सार्वजनिक दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए चतुर महिलाओं
के सुझावों व सहायता के मूल्य को समझा न हो। और सार्वजनिक प्रशासन के कुछ
महत्त्वपूर्ण मामलों में ऐसी महिलाओं जितने योग्य कम ही पुरुष होते हैं। व्यय
पर सूक्ष्म व विस्तृत नियन्त्रण इनमें से एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। किन्तु
हम यहाँ इस विषय पर विमर्श नहीं कर रहे कि समाज को सार्वजनिक क्षेत्र में
महिलाओं की सेवा की जरूरत है बल्कि उस उबाऊ व नाउम्मीद जीवन के बारे में बात कर
रहे हैं जो समाज अन्ततः महिलाओं को देता है, उनकी व्यावहारिक योग्यता के
इस्तेमाल को किसी भी वृहद क्षेत्र में निषेध करके, जो कुछ महिलाओं के लिए कभी
भी खुला नहीं था और कुछ के लिए जो अब भी खुला नहीं है। यदि मनुष्यों के लिए कोई
चीज अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, तो वह है-अपने मनपसन्द कार्य को करने का आनन्द।
एक सुखद जीवन की यह आवश्यकता मानव जाति के एक बड़े हिस्से को बहुत अपूर्ण तरीके
से दी जाती है या फिर बिल्कुल नहीं दी जाती; और इसकी अनुपस्थिति में अनेक वे
जीवन असफल होते हैं जिन्हें प्रत्यक्षतः वे सब चीजें प्राप्त होती हैं जो सफलता
के लिए आवश्यक हैं। लेकिन वे परिस्थितियाँ जिनको विजित करने में समाज अभी कुशल
नहीं है और जो प्रायः ऐसी असफलताओं को अपरिहार्य बना देती हैं, उन्हें कम से कम
समाज द्वारा दूसरों पर तो नहीं थोपना चाहिये। माता-पिता का अविवेकपूर्ण बर्ताव,
एक युवक का अपना अनुभव या एक अनुकूल कार्य के बाहरी अवसरों की अनुपस्थिति और एक
प्रतिकूल कार्य में उन अवसरों की उपलब्धता के कारण अनेक पुरुषों को अपना जीवन
एक ऐसा काम अनिच्छा से करने में बिताना पड़ता है जो उन्हें पसन्द नहीं है और
जिसे वे ठीक प्रकार करते भी नहीं, जब कि अनेक ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें वे
कुशलतापूर्वक व खुशी-खुशी कर सकते थे। किन्तु महिलाओं को यह सजा कानून द्वारा व
कानून जितने ही प्रबल रीति-रिवाजों द्वारा दे दी जाती है। कुछ अज्ञानी व
दकियानूसी समाजों में कुछ पुरुषों को रंग, नस्ल, धर्म और गलाम देशों में,
राष्ट्रीयता के कारण जो भुगतना पड़ता है, सभी स्त्रियों को महज स्त्री होने के
कारण वह सब भुगतना होता है-लगभग सभी सम्मानजनक व्यवसायों में अनिवार्य निषेध,
सिवाय उन कार्यों के जो और कोई नहीं कर सकता, या जिन्हें अन्य लोग करने लायक
नहीं समझते। इस तरह के कारणों से उपजे कष्टों को प्रायः इतनी सहानुभूति भी नहीं
मिलती। एक व्यर्थ हुए जीवन की भावना से जन्में गहन दुख को प्रायः बहुत कम लोग
ही जानते हैं। बढ़ते हुए विकास से यह स्थिति और भी आम हो जायेगी, क्योंकि इससे
महिलाओं के विचारों व योग्यताओं तथा उनकी गतिविधियों के लिए समाज जितने विस्तार
की अनुमति देता है-इनके बीच असंगति बढ़ती जायेगी। जब हम उस हानि के बारे में
सोचते हैं जो मानवजाति के अयोग्य आधे हिस्से को उनकी अयोग्यता के कारण होती
है-पहली सबसे प्रेरणादायक प्रकार की निजी खुशी में और उसके बाद जीवन से
असन्तोष, चिन्ता व निराशा होने में तो लगता है कि पृथ्वी पर अपनी अपरिहार्य
अपूर्णता के विरुद्ध संघर्ष को जारी रखने के लिए मनष्य को जो सबक सीखने आवश्यक
हैं, उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है-एक-दूसरे पर ईर्ष्यापूर्ण व पूर्वग्रह
ग्रसित प्रतिबन्ध लगाकर प्रकृति द्वारा रचित बुराइयों व हानियों में इजाफा न
करना। उनके व्यर्थ भय उनसे भी अधिक बुरी चीजों का कारण बनते हैं जिनसे वे नाहक
ही डर रहे होते हैं; जबकि उनके साथी मनुष्य के व्यवहार पर लगा प्रत्येक
प्रतिबन्ध (उनके व्यवहार से जनित बुराई या क्षति पर लगे प्रतिबन्ध के अतिरिक्त)
मानवीय सुख के मुख्य स्रोत को ही सुखा देता है और मानवजाति को उन सभी चीजों में
थोड़ा कम समृद्ध कर देता है जो एक मनुष्य के जीवन को मूल्यवान बनाती हैं।
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