जीवन कथाएँ >> यशोधरा जीत गई यशोधरा जीत गईरांगेय राघव
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गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गौतम बुद्ध के यशस्वी जीवन पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास-उनके व्यक्तित्व के
निर्माण में करुण-कोमल यशोधरा के योगदान की मार्मिक प्रस्तुति-प्रख्यात
साहित्यकार रांगेय राघव की कमल से
हिन्दी के प्रख्यात् साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट कवियों, कालाकारों औऱ महापुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक माला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूर्ण किया है। प्रस्तुत उपन्यास ‘यशोधरा जीत गई’ में उन्होंने जननायक गौतम बुद्ध का चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है।
‘यशोधरा जीत गई’ उसी कड़ी की एक प्रमुख रचना है। ‘यशोधरा जीत गई’ में राष्ट्र की तात्कालिक स्थितियों में बुद्ध के समय में धर्म या राजनीति का विघटन शुरू हो गया था और देश में धर्म या राजनीति और वैचारिक अराजकता छा रही थी। ऐसे समय में बुद्ध ने अपने तप-बल से करोड़ों भ्रमित और धार्मिक रूप से निस्सहाय मनुष्यों को मानसिक आश्रय और शान्ति प्रदान की।
इस उपन्यास में बुद्ध के अजेय और सुद्दढ़ व्यक्ति के निर्माण में संकलन करूणा-कोमल यशोधरा का भी मार्मिक रूप प्रस्तुत किया गया है। जिसके समझ एक बार बुद्ध का तपोबल भी नत हो गया था।
हिन्दी के प्रख्यात् साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट कवियों, कालाकारों औऱ महापुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक माला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूर्ण किया है। प्रस्तुत उपन्यास ‘यशोधरा जीत गई’ में उन्होंने जननायक गौतम बुद्ध का चरित्र ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है।
‘यशोधरा जीत गई’ उसी कड़ी की एक प्रमुख रचना है। ‘यशोधरा जीत गई’ में राष्ट्र की तात्कालिक स्थितियों में बुद्ध के समय में धर्म या राजनीति का विघटन शुरू हो गया था और देश में धर्म या राजनीति और वैचारिक अराजकता छा रही थी। ऐसे समय में बुद्ध ने अपने तप-बल से करोड़ों भ्रमित और धार्मिक रूप से निस्सहाय मनुष्यों को मानसिक आश्रय और शान्ति प्रदान की।
इस उपन्यास में बुद्ध के अजेय और सुद्दढ़ व्यक्ति के निर्माण में संकलन करूणा-कोमल यशोधरा का भी मार्मिक रूप प्रस्तुत किया गया है। जिसके समझ एक बार बुद्ध का तपोबल भी नत हो गया था।
भूमिका
गौतम बुद्ध का जीवन त्रिपिटकों में बिखरा पड़ा है। अभी तक बुद्ध पर लिखने
वालों का दृष्टिकोण साम्प्रदायिक रहा है। मैंने अपना दृष्टिकोण ऐतिहासिक
रखा है। प्राचीन भारत में साम्प्रदायिक रहा है। मैंने अपना दृष्टिकोण
ऐतिहासिक रखा है। प्राचीन भारत में साम्प्रदायिक आंखों ने जान-बूझकर
एक-दूसरे के बारे में नहीं देखा। इसलिए भारतीय इतिहास को जानने के लिए हर
सम्प्रदाय को देखना आवश्यक है। यही कारण है कि यहाँ गौतम बुद्ध
केवल
त्रिपिटकों की बात नहीं करते। वह इतिहास वेद, पुराण आदि की भी बात करते
हैं।
यशोधरा का नाम गोपा भी आता है और कहीं भद्रा कापिलायिनी तथा कहीं यशोधरा आधुनिक चिंतन की बात नहीं करती, परन्तु वही कहती है जो नारी तब भी कह सकती थी-वृद्ध चिन्तन के दोनों पक्षों को दिखाने के लिए मैंने जीवन को इस प्रकार प्रस्तुत किया है। कहीं-कहीं त्रिपिटकों के वाक्य भी ज्यों के त्यों मैंने एक आध जगह पर अनूदित करके प्रयुक्त किए हैं क्योंकि जीवनी में वे अधिक शक्ति भरने में समर्थ हुए हैं।
बुद्घ को मैंने चमत्कारों से अलग करके देखा है। चमत्कार व्यक्ति की महानता को गिराते हैं। मैंने तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण किया है। और यह स्पष्ट ही है कि मैंने जो चित्रण किया है उसमें इतिहास के मेरे शोधतथ्य भी प्रस्तुत हैं।
बुद्ध का जीवन बहुत विशाल है। प्रस्तुत पुस्तक में बुद्ध का पूरा जीवन लिखा जाए तो बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन लिखने के लिए ऐसे पाँच या छः ग्रन्थ और लिखे जा सकते हैं। तब ही पूरा रस भी आ सकता है। बुद्ध का जन्म वि.पू. 505 समझा जाता है। बुद्ध उन्नीस वर्ष के थे। तब घर छोड़ गए। छः वर्ष तपस्या की तब बुद्ध हुए। फिर पैंतालीस वर्ष उपदेश दिए। यों यह लम्बा जीवन विक्रम पूर्व 426 में पूरा हुआ और उसके बाद बौद्ध धर्म अपने रूप बदलता हुआ लगभग 1500 वर्ष में भारत में रहा।
बुद्ध के समय में समाज विषम था। दास-प्रथा बाकी थी और क्षत्रिय कुलगणों में ही यह अधिक थी। सामंत-प्रथा एकतंत्र शासन में उठ रही थी। युद्ध ह्यसकालीन गण-व्यवस्था के विचारक थे, जिसने व्यापक मानवीय आधारों का सहारा लेना चाहा था, परन्तु व्यवहार में वह उस वस्तु को सफल नहीं कर सके।
बुद्ध भारतीय इतिहास में यद्यपि अपने चले आते विचारकों की परम्परा में थे, परन्तु फिर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा। कह सकते हैं कि वही क्षत्रिय विचारक थे। जिसके चिन्तन में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कह सकते हैं कि वही क्षत्रिय विचारक थे। जिनके चिन्तन में बहुत कुछ ऐसा था जिसके आने वाले सामन्ती चिन्तन को भी निर्मित किया।
मैंने प्रस्तुत औपचारिक विवरण में नए पात्र नहीं लिए। ऐसे दास-दासियों के नाम मिल जाएँ तो बात नहीं, परन्तु बड़े पात्र सब ऐतिहासिक ही हैं।
त्रिपिटक बुद्ध के बाद लिखे गए, और उन्होंने प्रत्येक धर्मानुयायी परिवार की भाँति अपने आचार्य को, चमत्कारों से भरने वाली चेष्टा की प्रणाली पर, भारतीय इतिहास में अपना महत्त्व प्राप्त करने से रोका है।
बुद्ध की निर्बलताएँ उनके युग की निर्बलताएँ थीं’, उनकी विजय मानव को विजय और कल्याण देने वाली शक्तियाँ थीं। मैंने इस पुस्तक में बुद्ध के मानव को विजय और कल्याण देने वाली शक्तियां थीं। मैंने इस पुस्तक में युद्ध के महान जीवन का निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन करने का प्रयत्न किया है और ऐसे पात्रों का वर्णन करके निश्चय ही इतिहास और भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धावनत हुआ हूँ।
यशोधरा का नाम गोपा भी आता है और कहीं भद्रा कापिलायिनी तथा कहीं यशोधरा आधुनिक चिंतन की बात नहीं करती, परन्तु वही कहती है जो नारी तब भी कह सकती थी-वृद्ध चिन्तन के दोनों पक्षों को दिखाने के लिए मैंने जीवन को इस प्रकार प्रस्तुत किया है। कहीं-कहीं त्रिपिटकों के वाक्य भी ज्यों के त्यों मैंने एक आध जगह पर अनूदित करके प्रयुक्त किए हैं क्योंकि जीवनी में वे अधिक शक्ति भरने में समर्थ हुए हैं।
बुद्घ को मैंने चमत्कारों से अलग करके देखा है। चमत्कार व्यक्ति की महानता को गिराते हैं। मैंने तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण किया है। और यह स्पष्ट ही है कि मैंने जो चित्रण किया है उसमें इतिहास के मेरे शोधतथ्य भी प्रस्तुत हैं।
बुद्ध का जीवन बहुत विशाल है। प्रस्तुत पुस्तक में बुद्ध का पूरा जीवन लिखा जाए तो बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन लिखने के लिए ऐसे पाँच या छः ग्रन्थ और लिखे जा सकते हैं। तब ही पूरा रस भी आ सकता है। बुद्ध का जन्म वि.पू. 505 समझा जाता है। बुद्ध उन्नीस वर्ष के थे। तब घर छोड़ गए। छः वर्ष तपस्या की तब बुद्ध हुए। फिर पैंतालीस वर्ष उपदेश दिए। यों यह लम्बा जीवन विक्रम पूर्व 426 में पूरा हुआ और उसके बाद बौद्ध धर्म अपने रूप बदलता हुआ लगभग 1500 वर्ष में भारत में रहा।
बुद्ध के समय में समाज विषम था। दास-प्रथा बाकी थी और क्षत्रिय कुलगणों में ही यह अधिक थी। सामंत-प्रथा एकतंत्र शासन में उठ रही थी। युद्ध ह्यसकालीन गण-व्यवस्था के विचारक थे, जिसने व्यापक मानवीय आधारों का सहारा लेना चाहा था, परन्तु व्यवहार में वह उस वस्तु को सफल नहीं कर सके।
बुद्ध भारतीय इतिहास में यद्यपि अपने चले आते विचारकों की परम्परा में थे, परन्तु फिर भी उनका गहरा प्रभाव पड़ा। कह सकते हैं कि वही क्षत्रिय विचारक थे। जिसके चिन्तन में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कह सकते हैं कि वही क्षत्रिय विचारक थे। जिनके चिन्तन में बहुत कुछ ऐसा था जिसके आने वाले सामन्ती चिन्तन को भी निर्मित किया।
मैंने प्रस्तुत औपचारिक विवरण में नए पात्र नहीं लिए। ऐसे दास-दासियों के नाम मिल जाएँ तो बात नहीं, परन्तु बड़े पात्र सब ऐतिहासिक ही हैं।
त्रिपिटक बुद्ध के बाद लिखे गए, और उन्होंने प्रत्येक धर्मानुयायी परिवार की भाँति अपने आचार्य को, चमत्कारों से भरने वाली चेष्टा की प्रणाली पर, भारतीय इतिहास में अपना महत्त्व प्राप्त करने से रोका है।
बुद्ध की निर्बलताएँ उनके युग की निर्बलताएँ थीं’, उनकी विजय मानव को विजय और कल्याण देने वाली शक्तियाँ थीं। मैंने इस पुस्तक में बुद्ध के मानव को विजय और कल्याण देने वाली शक्तियां थीं। मैंने इस पुस्तक में युद्ध के महान जीवन का निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन करने का प्रयत्न किया है और ऐसे पात्रों का वर्णन करके निश्चय ही इतिहास और भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धावनत हुआ हूँ।
रांगेय राघव
प्रथमा
निरंजना नदी अपनी गम्भीर गति से बहती चली जा रही थी। जल का कल-कल निनाद
तीरस्थ वनभूमि में अपनी हल्की गूँज प्रतिध्वनित कर रहा था। उरूवेला की
प्राचीन भूमि में तीर पर खड़े अश्वत्थ वृक्ष की छाया में एक पैंतीस वर्ष
का युवक गंभीर मुखाकृति लिए खड़ा था। वह किसी गहन चिंतन में पड़ा हुआ था
उसका रंग भव्य गौर था, किन्तु इस समय उस पर हल्की-सी छाया आ गई थी। उसके
नेत्रों में असीम वेदना, रहस्य, गौरव और जिज्ञासा काँप रही थीं। पलकों में
एक अचंचल स्तब्धता थी, जिसे देखकर लगता था कि यह व्यक्ति बहुत गहरी
अन्धेरी में पड़ा हुआ भी प्रकाश की ओर बढ़ रहा था। उसकी खिंची हुई भवें
उसके अन्नत ललाट और लंबी नाक के बीच में ऐसी दिखती थीं जैसे अरुणोदय वाले
क्षितिज की पृष्ठभूमि पर रेखा मात्र-से दिखाई देने वाले दो जहाजों के पल
अन्नत वक्ष पर तन गए हों और अज्ञात आलोक की ओर बढ चले हों। उसके लम्बे और
पतले होंठों पर एक विचित्र स्फुरण थी मानों वे किसी अत्यन्त पवित्र शब्द
का निर्घोष करने के लिए व्याकुल हो उठे हों। वह लम्बा, चौड़े कन्धे वाला
पुरुष, जो आज दुबला हो गया था, उस निरंजना के तीर पर ऐसा स्तब्ध खड़ा था
कि उसे देखकर सारा वनप्रान्तर जैसे हरहराकर अभिवादन कर रहा था। समस्त
वायुमण्डल से पुकार-सी उठ रही थी......लौट चल....सिद्धार्थ....लौट चल
शालवन के फूलों की सुगंध बार-बार झोकों पर झूल उठती थी। कभी-कभी पक्षी अपने कलरव से आकाश से पृथ्वी कर एक अजस्र मनोहारिता को भर-भर देते थे। वह शीतल स्पर्श से लुभा देनेवाली वायु अंग-अंग की ऊष्मा को ऐसे ही थपेड़े दे रही थी जैसे तरल कल्लोलिनी हिलोरें नीरस तीर भूमि की मोहनिद्रा को बार-बार झकझोरने को आ-आकर अपना समर्पण करके बिखर जाती हों।
सिद्धार्थ का मन फिर भी दृढ़ था। उसने हठात् किसी दृढ़तम निश्चय से सिर उठाया और फिर उसने रात के उतरते अन्धकार के पाँवों के नीचे बिछे सुनहले कंबल जैसे सान्ध्यगान को देखकर धीरे से बुदबुदाया : नहीं, मैं पीछे नहीं लौट सकता है। मैं इतना आगे आ गया हूँ कि मेरे लौटने के लिए सब द्वार बन्द हो गए हैं। यदि मैं अपने चिन्तन का कोई अन्त नहीं पा सकता, तो मेरे लिए जीना ही निष्फल है, क्योंकि जिसे मन आज बार-बार याद कर रहा है मैं उसी जीवन को तो निस्सार समझ कर एक दिन छोड़ आया था। तब उसमें यदि मुझको संतोष नहीं मिला तो किस विपर्यय से आज इस साधना से विमुख, होकर पराजित होकर मुझे फिर वहीं आश्रम मिल सकेगा ? यह तो असंभव है।
और तब वह दीर्घकाय भव्य पुरुष मन्दगति से निरंजना की तीर-भूमि पर घूमने लगा। वह मानो अपने उस घूमने से वायु को विक्षुब्ध करके अपने भीतर के समस्त संकुल क्षोभ को स्थिर कर लेना चाहता है। वह धीरे-धीरे अश्वत्थ वृक्ष के नीचे जा पहुँचा। चंचल पल्लव वाले चलदल पीपल की फुनगी पर अब आलोक तिरोहित होने के पहले अपनी अंतिम मुस्कान बिखेर रहा था। पीपल का सफेद-सा तना उस आती धुन्ध में स्तब्ध दिखाई दे रहा था।
चारों ओर नीरवता थी। कोई नहीं था जो मानव के स्वर से बोल सके। केवल पीपल की पूजा करके जो दिन में कोई चला गया था, उसके हाथ की चढ़ाई कुसुमावली उसके इधर-उधर पड़ी थी। यह अश्वत्थ वृक्ष, जिसके चैत्य पर अनेक मागध, खत्तिय और पार्वत्य के देवता समझ कर शीश झुकाते थे, जिससे स्त्रियाँ सन्तान माँगती थीं, जिससे नाग की उपासना करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय वरदान माँगते थे, इस समय सिद्धार्थ उसकी ओर अधमुंदी आँखों से देख रहा था। आज मानो वह अश्वत्थ द्रुम अपने खड़खड़ाते पत्तों के द्वारा उस पर मुस्करा दिया था।
मानो उसने कहा था कि अभागे मानव ! शताब्दियों पहले जब तू जानता न था तब इस संसार में मैं ही देवता था क्योंकि मेरी छाया, मेरी लकड़ी मानव जाति का उपकार करती थीं। कालान्तर में वह मेरी ही उपासना करने लगा।
तब यक्ष, किन्नर, गंधर्व, नाग सब जातियाँ धीरे-धीरे मेरे सामने सिर झुकाने लगीं। वह दिन भी आया, जब मगध के जरासंध सम्राट की मदांध सेनाएँ मेरी छाया में से निकल गईं। किन्तु उससे मुझे शान्ति नहीं मिली। जाने कब विभिन्न जातियाँ आपस में घुल-मिल गईं, जाने कब एक तन्त्र शासकों को क्षत्रिय कुलों ने उखाड़कर फेंक दिया और यह रक्त गर्व पर आधारित कुल गण उठ खड़े हुए। आज तू उन्हीं में से मेरी ही छाया में आया है। अरे निर्बल मनुष्य ! तू क्या सृष्टि के शाश्वत रहस्य को खोज लेने का दंभ कर रहा है। क्या तू इतना समर्थ है ? मेरी छाया में आर्येतर जातियों के अनेक विचारक सहस्रों वर्षों से बैठ-बैठकर चले गए, किन्तु कोई भी मूल रहस्य को जान नहीं पाया.... आ रे मानव....आ ......मेरी छाया में बैठ.... आज तू भी बैठ....किन्तु यह समझ कि तू ऐसा प्रथम विचारक है; न जाने कितने ऋषि अनादिकाल से यहाँ बैठकर अपनी सीमित बुद्ध से असीम होने का यत्न कर चुके हैं ! सिद्धार्थ ! न जाने कितने सुन्दर करुण यहाँ अपने माँसल और गरिमावृत्त यौवन को अन्धकार की खोज के अंधकार में नष्ट कर चुके हैं......
आता हुआ अन्धकार मुस्करा दिया। सिद्धार्थ खड़ा-खड़ा सोचने लगा। आज सारा अतीत आँखों के सामने घूम रहा था। क्योंकि वह उसे भूलना चाहता था, वह बार-बार आज याद आ रहा था।
शालवन के फूलों की सुगंध बार-बार झोकों पर झूल उठती थी। कभी-कभी पक्षी अपने कलरव से आकाश से पृथ्वी कर एक अजस्र मनोहारिता को भर-भर देते थे। वह शीतल स्पर्श से लुभा देनेवाली वायु अंग-अंग की ऊष्मा को ऐसे ही थपेड़े दे रही थी जैसे तरल कल्लोलिनी हिलोरें नीरस तीर भूमि की मोहनिद्रा को बार-बार झकझोरने को आ-आकर अपना समर्पण करके बिखर जाती हों।
सिद्धार्थ का मन फिर भी दृढ़ था। उसने हठात् किसी दृढ़तम निश्चय से सिर उठाया और फिर उसने रात के उतरते अन्धकार के पाँवों के नीचे बिछे सुनहले कंबल जैसे सान्ध्यगान को देखकर धीरे से बुदबुदाया : नहीं, मैं पीछे नहीं लौट सकता है। मैं इतना आगे आ गया हूँ कि मेरे लौटने के लिए सब द्वार बन्द हो गए हैं। यदि मैं अपने चिन्तन का कोई अन्त नहीं पा सकता, तो मेरे लिए जीना ही निष्फल है, क्योंकि जिसे मन आज बार-बार याद कर रहा है मैं उसी जीवन को तो निस्सार समझ कर एक दिन छोड़ आया था। तब उसमें यदि मुझको संतोष नहीं मिला तो किस विपर्यय से आज इस साधना से विमुख, होकर पराजित होकर मुझे फिर वहीं आश्रम मिल सकेगा ? यह तो असंभव है।
और तब वह दीर्घकाय भव्य पुरुष मन्दगति से निरंजना की तीर-भूमि पर घूमने लगा। वह मानो अपने उस घूमने से वायु को विक्षुब्ध करके अपने भीतर के समस्त संकुल क्षोभ को स्थिर कर लेना चाहता है। वह धीरे-धीरे अश्वत्थ वृक्ष के नीचे जा पहुँचा। चंचल पल्लव वाले चलदल पीपल की फुनगी पर अब आलोक तिरोहित होने के पहले अपनी अंतिम मुस्कान बिखेर रहा था। पीपल का सफेद-सा तना उस आती धुन्ध में स्तब्ध दिखाई दे रहा था।
चारों ओर नीरवता थी। कोई नहीं था जो मानव के स्वर से बोल सके। केवल पीपल की पूजा करके जो दिन में कोई चला गया था, उसके हाथ की चढ़ाई कुसुमावली उसके इधर-उधर पड़ी थी। यह अश्वत्थ वृक्ष, जिसके चैत्य पर अनेक मागध, खत्तिय और पार्वत्य के देवता समझ कर शीश झुकाते थे, जिससे स्त्रियाँ सन्तान माँगती थीं, जिससे नाग की उपासना करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय वरदान माँगते थे, इस समय सिद्धार्थ उसकी ओर अधमुंदी आँखों से देख रहा था। आज मानो वह अश्वत्थ द्रुम अपने खड़खड़ाते पत्तों के द्वारा उस पर मुस्करा दिया था।
मानो उसने कहा था कि अभागे मानव ! शताब्दियों पहले जब तू जानता न था तब इस संसार में मैं ही देवता था क्योंकि मेरी छाया, मेरी लकड़ी मानव जाति का उपकार करती थीं। कालान्तर में वह मेरी ही उपासना करने लगा।
तब यक्ष, किन्नर, गंधर्व, नाग सब जातियाँ धीरे-धीरे मेरे सामने सिर झुकाने लगीं। वह दिन भी आया, जब मगध के जरासंध सम्राट की मदांध सेनाएँ मेरी छाया में से निकल गईं। किन्तु उससे मुझे शान्ति नहीं मिली। जाने कब विभिन्न जातियाँ आपस में घुल-मिल गईं, जाने कब एक तन्त्र शासकों को क्षत्रिय कुलों ने उखाड़कर फेंक दिया और यह रक्त गर्व पर आधारित कुल गण उठ खड़े हुए। आज तू उन्हीं में से मेरी ही छाया में आया है। अरे निर्बल मनुष्य ! तू क्या सृष्टि के शाश्वत रहस्य को खोज लेने का दंभ कर रहा है। क्या तू इतना समर्थ है ? मेरी छाया में आर्येतर जातियों के अनेक विचारक सहस्रों वर्षों से बैठ-बैठकर चले गए, किन्तु कोई भी मूल रहस्य को जान नहीं पाया.... आ रे मानव....आ ......मेरी छाया में बैठ.... आज तू भी बैठ....किन्तु यह समझ कि तू ऐसा प्रथम विचारक है; न जाने कितने ऋषि अनादिकाल से यहाँ बैठकर अपनी सीमित बुद्ध से असीम होने का यत्न कर चुके हैं ! सिद्धार्थ ! न जाने कितने सुन्दर करुण यहाँ अपने माँसल और गरिमावृत्त यौवन को अन्धकार की खोज के अंधकार में नष्ट कर चुके हैं......
आता हुआ अन्धकार मुस्करा दिया। सिद्धार्थ खड़ा-खड़ा सोचने लगा। आज सारा अतीत आँखों के सामने घूम रहा था। क्योंकि वह उसे भूलना चाहता था, वह बार-बार आज याद आ रहा था।
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