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नाटक-एकाँकी >> विक्रमोर्वशी

विक्रमोर्वशी

कालिदास

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14387
आईएसबीएन :0

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महाकवि कालिदास कृत विक्रमोर्वशी (पराक्रम से विजित उर्वशी) पाँच अंकों का त्रोटक है।

महाकवि कालिदास कृत विक्रमोर्वशी (पराक्रम से विजित उर्वशी) पाँच अंकों का त्रोटक है। संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुसार त्रोटक एक ऐसी नाट्य-विधा है जिसमें श्रंगारिकता अधिक मात्रा में होती है और जिसके पात्रों में दैवी एवं मानुषी पात्रों का सम्मिश्रण होता है। विक्रमोर्वशी की नायिका उर्वशी एक अप्सरा है जो केशी दैत्य से अपना उद्धार करने वाले चन्द्रवंशी राजा पुरुरवा के प्रेमपाश में बँधकर स्वर्ग की सुविधाओं से दूर होकर अपने प्रेमी राजा के पास आना चाहती है। पुरुरवा भी रानी औशीनरी से उदासीन होकर उर्वशी के प्रेमोन्माद में ग्रस्त हो जाता है। कुशल नाट्यशिल्पी कालिदास ने कथा के इस छोटे से बिंदु को लेकर एक अत्यंत भावुक एवं काव्यमय रंग-सृष्टि की है। पुरुरवा उर्वशी का प्रथम दर्शन में सहज भाव से उत्पन्न प्रेम और फिर बिछोह, उर्वशी की पुरुरवा के प्रति आकुलता और स्वर्ग से उसकी नगरी में आना, उसी समय भरत-रचित लक्ष्मी- स्वयंवर नाटक में अभिनय के लिए बुला लिया जाना, नाटक में लक्ष्मी का अभिनय करती उर्वशी का मनोनीत वर को ‘पुरुषोत्तम नारायण’ के स्थान पर पुरुरवा कह जाना, क्रुद्ध भरत द्वारा पृथ्वी पर रहने के लिए अभिशप्त होना परंतु इंद्र की अनुकंपा से संतान-दर्शन तक पुरुरवा के सहवास के आशीष में बदल जाता है। पुरुरवा और उर्वशी अपने प्रेम-मिलन पर अति प्रसन्न मनोरम गंधमादन पर्वत की उपत्यका में जाकर उत्कट प्रणय-केलि में डूब जाते हैं, अचानक उर्वशी मान के वशीभूत होकर अनजाने में स्त्री-प्रवेश-वर्जित कुमारवन में जाकर लता में परिवर्तित हो जाती है। और तब चित्रित होता है पुरुरवा का गहरा विरह-भाव, वह विक्षिप्त-सा मयूर, कोकिल, हंस, चक्रवाक, कृष्णसार मृग एवं गजराज से प्रियतमा का पता पूछता है और उत्तर न पाने पर उन्हें राजदंड देने को कहता है। विक्रमोर्वशी के चतुर्थ अंक का विरही पुरुरवा कालिदास के अपूर्व नाट्य-कौशल की सृष्टि है। विक्रमोर्वशी का चतुर्थ अंक अपने पीड़ामय काव्य के कारण तो महत्त्वपूर्ण है ही, उसमें पुरुरवा द्वारा विरह के उत्कट आवेग में पुरुरवा द्वारा गाए गए अपभ्रंश के पद इसे संस्कृत के अन्य सभी नाटकों से विशिष्ट बना देते हैं, क्योंकि संस्कृत नाटकों में यह अकेला अपभ्रंश का प्रयोग है, जो पुरुरवा के विरहावेश को जहाँ अधिक स्पष्ट करता है, वहीं विक्रमोर्वशी को एक विशिष्टता प्रदान करता है।

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