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उपन्यास >> वाइरस

वाइरस

जयंत विष्णु नार्लीकर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14388
आईएसबीएन :9788126700271

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यह उपन्यास कम्प्यूटरीकृत विश्व के सम्मुख एक भयावह परिकल्पना रखता है, जो ज़रूरी नहीं कि सच हो ही; लेकिन हो भी सकती है।

विज्ञान-गल्प सम्भवतः हिन्दी गद्य का सबसे उपेक्षित कोना है। न सिर्फ यह कि इसमें मौलिक रचनाएँ नहीं होतीं, बल्कि अन्यान्य भाषाओं से विज्ञान-कथाओं के अनुवाद भी अकसर नहीं किए जाते। वाइरस इस कमी को पूरा करने की दिशा में एक प्रयास है। यह उपन्यास कम्प्यूटरीकृत विश्व के सम्मुख एक भयावह परिकल्पना रखता है, जो ज़रूरी नहीं कि सच हो ही; लेकिन हो भी सकती है। श्रेष्ठ विज्ञान-गल्प का प्रस्थान-बिन्दु यह ‘हो सकने’ की सम्भावना ही होती है जो इतिहास में अनेक बार सच भी साबित हो चुकी है। वाइरस की परिकल्पना का आधार कम्प्यूटर-प्रणाली की आम बीमारी वाइरस है लेकिन यह वाइरस आम नहीं है, वह एक साथ पूरे विश्व के कम्प्यूटरों को अपनी गिरफ्श्त में लेता है और सभ्यता को पुनः उस युग में लौटने की आशंका खड़ी कर देता है, जब कम्प्यूटर नहीं थे, और तमाम काम मानव-श्रम की धीमी गति से होते थे। इस संकट को सामने देख पूरा विश्व अपने राजनैतिक मतभेद भुलाकर एकजुट होता है, और दुनिया के सात श्रेष्ठ वैज्ञानिक इसके कारणों की तलाश में जुट जाते हैं। और, जो कारण सामने आता है वह इस उपन्यास की आधारभूत परिकल्पना का सर्वाधिक उत्तेजक और हमारी कल्पना के लिए स्तब्धकारी अंश है। मराठी विज्ञान-गल्प के प्रतिष्ठित लेखक की इस रचना में वे सभी गुण - यथा, तथ्यात्मकता, तर्कसंगति, कल्पना और मानव-कल्याण - हैं जो एक श्रेष्ठ विज्ञान-कथा में होने चाहिए।

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