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घरौंदा

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :243
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1439
आईएसबीएन :9788170282297

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प्रख्यात साहित्यकार डाँ.रांगेय राघव की कालजयी कथा-कृतियों का संग्रह

Gharunda

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

परिचय : डॉ. रांगेय राघव

17 जनवरी, 1923 को जन्म आगरा में। मूल नाम टी.एन.वी. आचार्य (तिरुमम्लै नम्बाकम् वीर राघव आचार्य)। कुल से दक्षिणातत्य लेकिन ढाई शतक से पूर्वज वैर (भरतपुर) के निवासी और वैर, बारोनी गांवों के जागीरदार। घर की बोली बृज, तमिल।
शिक्षा आगरा में। सेंट जॉन्स कालेज से 1944 में स्नातकोत्तर और 1948 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरु गोरखनाथ पर पी.एच.डी.। हिन्दी, अंग्रेज़ी, बृज और संस्कृत पर असाधारण अधिकार।
13 वर्ष की आयु में लेखनारंभ। 23-24 में ही अभूतपूर्व चर्चा के विषय। 1942 अकालग्रस्त बंगाल की यात्रा के बाद लिखे रिपोर्तराज ‘तूफानों के बीच’ लिखकर हिंदी में रिपोर्तराज विधा को जन्म देने वालों में अग्रणी।
साहित्य के अतिरिक्त चित्रकला, संगीत और पुरातत्व में विशेष रुचि। साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में सिद्धहस्त। मात्र 39 वर्ष की आयु में साहित्य को कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज के अतिरिक्त आलोचना, सभ्यता और संस्कृति पर शोध व व्याख्या के क्षेत्रों को 150 से भी अधिक पुस्तकों के लिए सर्वमान्य अद्वितीय लेखक।
संस्कृत रचनाओं का हिंदी, अंग्रेज़ी में अनुवाद। विदेशी साहित्य का हिंदी में अनुवाद। देशी-विदेशी साहित्य का पुनर्लेखन।
7 मई, 1956 को सुलोचना जी से विवाह। 8 फरवरी, 1960 को पुत्री सीमन्तिनी का जन्म। अधिकांश जीवन आगरा, वैर और जयपुर में व्यतीत।
हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1951), डालमिया पुरस्कार (1954), उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार (1957 व 1959), राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961) तथा मरणोपरान्त (1966) महात्मा गांधी पुरस्कार से सम्मानित।
अनेकों कृतियां अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित और प्रशंसित।
लम्बी बीमारी के बाद 12 सितम्बर, 1962 को बम्बई में देहान्त।

घरौंदा


गर्मी की धूल-भरी सांझ, जिसमें थमी लू की भभक पसीने का खुमार झलका रही है, एक बहुत हल्की लाली में झपका खाने लगी है। सड़क। चौराहा पास है, जिस पर लाल पगड़ीवाला कोई अफसर अपने जीवन की थकान को जेठ के तड़पते अजगर-सा फुंकार और अकुलाहट-भरा पाकर भी अपने काम से कम तनख्वाह की तबाही-भरी तसल्ली और सन्तोष में गाड़ी—प्रगति—और चल संसार को हाथ दिखा रहा है, आदमियों को ठीक राह पर चला रहा है। उसके सिर पर दिन में ही बिजली का लट्टू जल रहा है, क्योंकि शहर की चुंगी की शाम आजकल भी छः ही बजे हो जाती है, जैसी कि शिमले में अक्सर होती होगी। लट्टू में न चमक है न रोशनी, मगर वह जल रहा है, क्योंकि वह सफेद की जगह पीला नज़र आ रहा है। धूल का अकस्मात् उठता गुबार, सुदूर पश्चिम के वाहन—जो पूंजीवाद की उपज होकर उसे मदद दे रहे हैं—उन्हें सलामी बजा देता है। मक्खियां धीरे-धीरे कम होने लगी हैं। कुछ गरीबी के कलेवे, बहुत-से अमीरी के तरसते पुतले और बीच के रुपये के लालची। यह सड़क है, हर जमाने में नई तरह से बनाई गई और हर नये जमाने ने उसे कच्चा करार दिया।

यूनिवर्सिटी का एक हिस्सा। कालेज अपने सिर पर सूली लिए खड़ा है। इधर-उधर बहुत-सी चीजें हैं। और यह रेखा है, जिसे सिर्फ अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे रेस्टोरेंट, अधकचरे रेस्टूरां और बेपढ़े-लिखे यानी हिन्दुस्तानी होटल कह अपना नाम देकर पुकारने की तृष्णा दिखाते हैं। एक बुरे दांतोंवाला बनिया—टुटपुंजिया—एक किनारे एक रंग उड़ी कुर्सी पर बैठकर सामने मेज़ पर अपनी छोटी पूंजी को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। उसका लड़का अपने से कम इज़्ज़त पानेवाली बहिन से खेल रहा है, मचल रहा है, और बनिया जो मास्टर कहलाता है, कभी उसे प्यार से देखता है और कभी अपने नौकर पर शुबहे-भरी नज़र डालकर अपनी लम्बी कलम को छोटी दवात में तिरछा गिराकर निब में स्याही भरने की कोशिश करने लगता है।
यहां चहल-पहल है। दिन में सूरज की रोशनी, रात में बिजली की। लड़के, गुज़रती लड़कियां। शोरगुल। गधे, गाय, भैंस, कभी-कदाच ऊँट भी, लॉरी, तांगे, इक्के, मोटर साइकिल और गुलाम आदमियों की आज़ादी की अजीब लगनेवाली मुर्दादिल आराम पसन्द शोखी !

सिगरेट का पैकेट, बीड़ी के बंडल से सटा पड़ा है। सिगरेट को पैसे का नाज है, बीड़ी को अपने पीनेवाले की मेहनत का।
सिगरेट कहती है—मैं कितनी गोरी हूं, सुन्दर ! सुन्दर !
बीड़ी कहती—मैं आती आंधी के रंग की हूं, मैं फौजी की वर्दी हूं ! और तू ?
सिगरेट बड़बड़ाती है—अरी मेरा रंग रुपये का-सा है, तेरा ?
बीड़ी भुनभुनाती है—सिगरेट चांदी की पन्नी से उझककर देखती है।
‘अरे, कोई कहता है—‘दो डबल का बीड़ी का बंडल तो देना।’
तभी कोई हल्के से मगर घमण्ड से कहता है—‘प्लेयर्स नेवीकट एक पैकेट ! और एक चवन्नी की हल्की खन्न की आवाज़।
पहले सिगरेट : फिर बीड़ी, और जैसे दो पैसे का बण्डल का अहसान-सा हुआ है।
मास्टर सिर उठाकर देखता है। लड़का इस वक़्त या तो बर्फ़ कूट रहा है या किसी के लिए पान लगा रहा है।
काम का वक़्त है, फुर्सत का नहीं। दुनिया इतनी आसान नहीं जितनी समझी जाती है। अपना-अपना रहना, कमाना, खाना-पीना, चैन की तरफ बढ़ाते हैं और ऊपर ईश्वर है, सो तो है ही, उसे कौन मना कर रहा है।

अब कुछ दिन बाद फिर लड़कों की भीड़-भब्भड़ होगी और कुछ दिन उस शोर-गुल की ताजगी में पूर्व और पश्चिम मिलकर नये उत्साह से मध्यमवर्ग की कसौटी पर जमने की ज्यादा-से ज्यादा कोशिश करेंगे। कोई सूट में होगा और कोई निकर और खुले कॉलर की कमीज़ पहनकर सूटवालों का मज़ाक उड़ाएगा कि कमबख्त अंग्रेज़ों की नकल कर अपने को ख्वाहमख्वाह तंग करते हैं। कभी अंग्रेज भी गर्मी में टाई बांधते हैं और अपनी पूर्वी चाल पर उसे गर्व से मुस्कराना भी पड़ेगा।–तब साइकिल वाला बगल की दुकान से बिल लाएगा—नाम अंग्रेज़ी में लिखा, जिसमें दो हिज्जे की गलतियां होंगी, बीच में हिन्दी, जो किसी मिडिल पास की लिखावट की पसलियों पर चोट करती-सी होगी, और नीचे बहुत बार लिख-लिखकर आदी हो गए दस्तखत।
‘कहो भाई मनोहर, अच्छे तो हो ?’ लड़का कहने लगा।
‘क्यों नहीं बाबू जी, आपकी दुआ है। अब तो आप जल्दी से पास-आस करके कलट्टर बन जाइए, तो मैं आप ही के साथ चलूंगा।’
‘जमाना तंग है,’ कोई बुड्ढा कहेगा जो बुढ़ापे की बनिस्बत अपनी जवानी की दिनों की यादगारों में बहुत मशगूल होगा। ज़माना हमेशा से तंग है, मगर उनकी नज़र में नई पीढ़ी हमेशा बदकिस्मत और नया ज़माना हमेशा बद से बदतर होता जा रहा है। वे सोलह वर्ष की उम्र तक हां और ना का फर्क नहीं जानते थे, सो आजकल के लड़के अपने हाथों ही अपनी ज़िन्दगी बरबाद करने लगते हैं।

‘नौकरी तो आपको मिल के रहेगी,’ पास का दर्जी, जो फुर्सत में खड़ा है, कहता है।
‘अजी बस मैं तो चला,’ कहता है रशीद कि, चलनेवालों का अपने साथ—इस गरीब विद्यार्थी के साथ एक झुंड बना जाता है—वे लोग जिनकी बातें ज़रूर चलती हैं, मगर पेट भूखा रहकर भी पैर कभी चलने की तकलीफ नहीं करते। उनकी बेकारी पर विद्यार्थी की नौकरी है, जो कहलाती है अफसरी ! ठीक है, जब तक कालेज में है, तब तो ऐश है ही। आगे जिसने पैदा किया वह खाने को देगा।
फिर एकाध बात मगर बिल चुकाने का कहीं नाम नहीं आता, और न साइकिल-वाले की फिक्र है : क्योंकि तीन रुपये के हिसाब से एक रुपया और साढ़े तीन आने के सिवाय बाकी सब एकतरफा ब्याज है।

हर शुरू का एक आखीर होता है, आज़ाद और चेतन इस आखीर को आदि ही मानते हैं। मगर गुलाम दिमाग और गुलाम सूरत को इन बातों से कोई मतलब नहीं। यह कालेज है, कालेज, कालेज। लड़के-लड़कियां, प्रोफेसर, अक्लमन्दी, बेवकूफी और मुहब्बत के अपनेपन में नफरत का आलम सब पर छाया हुआ। मास्टर के पास वक्त नहीं है। कभी फुर्सत में वह दांतों को हंसी में भद्दी तरह से मढ़कर कहता है—जी हुकुम, मिजाज तो अच्छे हैं, और अचानक ही उसकी आंखें अपने हिसाब की कापी में से कुछ खोजने लगती है। उसकी तकदीर है कि ज़िन्दगी में वह अपने को अभागा समझे और साथ ही जैसा कि आदमी को ‘अक्सर देखा गया है,’ ज़मीन पर खड़े मकान की तरह होना चाहिए, वैसे वह है, यानि की उसे अपने से काम और अपना घर पालने से—और जो लड़के उसके यहां आते हैं, और ज़रूरत से ज़्यादा रुपये दे जाते हैं वे आवारा हैं, फिजूलखर्च हैं, और उनके लिए मास्टर की एक उदास हंसी काफी है....

कुछ ही लड़के आजकल भटक पड़ते हैं। उसके पास एक यादों की दुनिया है, वह खुशनुमा दिन, जब वे ऊनी कपड़े पहन सकते थे, जब लड़कियां फर के हल्के कोट कन्धों पर टांग सकती थीं, तब जाड़े थे, कालेज की मौजें थीं, मज़ाकों की तड़प थी और तभी अचानक इम्तिहान ने आकर उनके सपनों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। साल-भर के चुनाव, खेल-कूद, प्यार-मुहब्बत और भूलें सब पर इम्तहान उंगली रख-रखकर उनके दिमाग में उनके नम्बर काटने लगा। अब महसूस हुआ कि जो कुछ है वह लिया-कत के लिए नहीं, इसी दिन के लिए है। सारी ज़िन्दगी कयामत के लिए है और जैसे खुदा की याद और हूरों की रहमत कयामत से बचाने को है, वैसे ही ‘प्रोस्पेक्टस’ और इम्तहान के हल किए छपे जवाब इस अंधेरे में रोशनी दिखाने को हैं। एक नफरत-सी भर रही है। वे अलग-अलग होने लगे। आदाबे अर्ज़ ! आदाबे अर्ज़ ! कहिए मिज़ाज तो अच्छे हैं। दुआ है आपकी, वरना खाकसार किस काबिल है और मिल्टन की ‘पैरेडाइज लॉस्ट’ में जितनी ताकत है, उतनी उसकी रीजेण्ट में नहीं। ट्रिगनोमेट्री भी क्या बला है ?

वायलेट रेज में अगर एक स्पर्म और एक ओवम छोड़ दिया जाए, भाई वैल्स ने बड़ी मदद दी। जी नहीं वन शिलिंग फोर पेंस पर सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास की पूरी स्पीच पढ़िए, आप अब स्कूल में नहीं हैं। बेकन, मिल, लाक, स्मिथ, शोपेनहार, कांट, ऐरिस्टोटल, राधाकृष्णन्, सर बोस और ऐसे ही किताबी लोगों ने मुंहजबानी राजनीति और बेकार की बातों की जगह ले ली है। गैलीलियो को कभी कहीं सुख है।
मगर मास्टर को तो कोई इम्तहान नहीं देना था, तब भी और कुछ लड़के तब इसकी अच्छी बेइम्तहानी तकदीर पर हसद करते थे; ‘हां !’ मास्टर कहता था—

‘अरे सांवल’—जो उसका नौकर था—‘चाय के लिए केटली चढ़ाए ही रख। सर्दार होस्टल से बाबू नम्बर 13, 14, 22 इसी वक्त आते हैं न ! आते ही होंगे। फिर आध घंटे बाद कपूर होस्टल से नम्बर 17, 23, 29 और मुस्लिम होस्टल से...भाई, यही कुछ आखिरी दिन हैं, फिर तो बाजार मंदा ही समझे ! ‘सो जा बेटा, सो जा’ कहके वह पलंग पर पड़े बच्चे को थपथपा जाता है, ‘सांवल, देख पान तैयार रहें और मुझे तो कल से ज़बर्दस्ती वसूली करनी है, कितने ही तो भागने की फिक्र में होंगे....’
मास्टर के एक बीवी होगी, जिसका नशा भी ज़रूर ढल गया होगा, क्योंकि वह जवान है और उसके अभी से दो बच्चे हैं, मगर कायदे से तो एक बच्चा है—वही लड़का, और होने को तो सभी हैं—वह भी परमात्मा की ही देन है...

2


जुलाई का महीना डग भरकर आ गया। होस्टलों में लड़के-लड़कियां ऐसे आ टिके जैसे सुबह की भटकी चिड़ियां शाम को घर की याद करके लौटती हैं, मगर रात में ही शिकारी के जाल में फंस जाती हैं। चिड़ियों को लासे का जो शौक होता है। ज़िन्दगी कितनी व्याकुल और चंचल है। नगरी में हलचल-सी भर उठी है। यह एक नया मुसाफिर है, जिसे जीने के बाद मरना है, जिसके अरमानों की थाती को जुटकर भी लुट जाना है।
कालेज के दफ्तर के बाहर-भीतर भीड़ इकट्ठी थी। वह क्लर्क जो दफ्तरी से बढ़कर कुछ नहीं, काम की जिम्मेदारी से सेक्रेटरी की इज़्ज़त पा रहा है। पितृपक्ष में कौआ भी श्राद्ध के लिए ज़रूरी हो जाता है।
‘आपने फाइल नं 41 देखी, मिस्टर शुक्ला ?’
‘जी हां।’
फिर दोनों काम करने लगे। भीड़ की उत्सुक आंखें।
‘देखिए, सेक्रेटरी कहता है, ‘‘इस काउंटर का मतलब है कि इसके उधर ही आप लोग ठहरें।’
‘अभी स्कूल से नये ही आए हैं।’

फिर पुरानों की हंसी। मगर लड़कों को नई बेइज़्ज़ती चुभ नहीं रही है। मकतब और पाठशाला से ही जिनके कान खिंचने शुरू हुए हैं, वे अब बड़े होकर काजी बन ज़रूर गए हैं दुम छोड़कर, मगर पहले तो गधे ही थे। और कहते हैं, मतलब गधे को बाप बनवाता है। यह आपस का समझौता है।
एक मिनट को सेफ खुलता है। दस, बीस, तीस,...अस्सी,...सौ, रखिए शुक्ला जी सेफ में ! इधर नौकर को दम मारने की फुर्सत नहीं है। अभी वह सेक्रेटरी के लिए घर पर सब्जी खरीद कर रख आया है और फिर पिन लेने डेढ़ मील बाजार भागा और अभी साढ़े आठ ही बजे हैं।
‘आपको कालिज मुबारक हो,’ सेक्रेटरी की दो सौ रुपये की घमण्डी आत्मा बोलती है, ‘अब आप साहब के पास ऊपर ले जाइए, फार्म ‘डी’ पर दस्तखत करा लीजिए, हां, फीस लीजिए शुक्ला बाबू !’
‘जी लाइए जल्दी बाबू सा’ब।’

काउंटर पैन पर रुपये खन-खन बज उठते हैं। बाहर की भीड़ में यह कोई नहीं सुनता। फिर फोन की घण्टी...ट्रिं...ट्रिं....
‘हलो ! कहिए ! मैं हूं सेक्रेटरी मिशन कालेज। हां प्रिंसिपल साहब हैं। अच्छा-अच्छा। ओह ! कौन, कैप्टन राय बोल रहे हैं ! मैं अभी सब फार्म तैयार करा देता हूं। आपकी कौन लड़की ? मिस लीला ! वेल ! वेल ! ! आप मोटर में जल्दी तशरीफ लाइए। बड़ी तकलीफ की आपने...ह ह ह ह थैंक्स...ह ह ह .....
और तो सब आराम कर रहे हैं। तकलीफ सिर्फ कैप्टन राय ने की, सिर्फ उन्होंने ही।
‘आप लोग जरा आफिस से बाहर तशरीफ ले जाइए। थैंक्स !’
सबसे पीछे का लड़का सबसे पहले निकल आया फिर धीरे-धीरे सब निकल चले और आखीर में कोई रेजगारी गिनता भी निकल आया।
सेक्रेटरी कहने लगे—‘मिस्टर शुक्ला, बड़ी परेशानी है। देखिए न, आखिरी वक्त पर इत्तला दी है, कैप्टेन राय ने। अब बतलाइए क्या करें ?

असिस्टेंट शुक्ला ऐसे नज़र उठाकर देखने लगा कि क्या करें ! हमारे-तुम्हारे लिए क्या होगा ? हमारे सत्तर, और तुम्हारे दो सौ से एक कैप्टन ने साढ़े सात सौ बहुत ज़्यादा होते हैं। मगर वह कुछ बोला नहीं। सेक्रेटरी पसीना पोंछने लगा। बोला—‘इस साल पौने तीन सौ लड़कों की टक्कर में एक सौ बीस लड़कियां ! बहुत हो गया साहब ! परसाल सिर्फ अठहत्तर थीं, उससे पहले सत्तावन।’
जैसे जब से लड़कियां आने लगीं तब से उनकी ज़बान पर एक-एक घाव होता गया और आज एक सौ बीस घाव पूरे हो गए। घण्टी बजती है। नौकर घुसता है।

‘लड़कों को बुलाओ,’ सुनकर वह बाहर आकर कहता है—‘आइएगा बाबू लोग।’ और लड़के जो दुम दबाकर कुत्तों की तरह बाहर निकल आए थे और बाहर जाकर जिनकी दुम खड़ी हो गई थीं, अब फिर दुम दबाकर आफिस में घुसने लगे।
उसी वक्त एक लड़का—बाईस-तेईस वर्ष का—एक खम्भे के पीछे से निकल-कर डोम के नीचे खड़े होकर इधर-उधर झांकने लगा। वह एक पजामा पहने था और एक सादी कमीज़। जेब में बारह आने का जापानी फाउण्टेनपेन है और एक ट्वील का अधमैला रुमाल। सिर के बाल धूल-भरे, मगर कढ़े हुए और पैरों में सस्ती चप्पल। माथे पर पसीने की बूंदें छा रही हैं और आंखों में लाल-लाल-सा पसीना बह रहा है। उसके हाथ में एक फार्म है और वह इधर-उधर झांक रहा है। एक लड़का, जिसको आफिस में भी घुसने का अभी मौका नहीं मिला, उससे पूछने लगा—‘आपका एडमीशन हो गया ?’
लड़का कहने लगा—‘अभी तो नहीं, आपको मालूम है, वाइस प्रिंसिपल का आफिस कहां है ?’

‘मुझे नहीं मालूम,’ सच्चा जवाब है, क्योंकि वह खुद नहीं जानता। ‘आपका फार्म देखूं ?’ लेकर पढ़ने लगता है—‘भगवतीप्रसाद इण्टरमीडियेट, फर्स्ट क्लास, डिस्टिंक्शन—इंगलिश, कैमिस्ट्री, मैथमेटिक्स। ओह ! गुड ! आपको तो चाहे जहां ले लिया जाएगा। क्यों, वाइस प्रिंसिपल को क्या करिएगा ? इण्टर आपने कहां से किया ?’
‘चंदौसी से। काम है जरा।’ और वह हटकर दफ्तर के एक नौकर से पूछने लगा। उत्तर मिला—‘गैलरी के दाईं तरफ।’
मगर यह गैलरी क्या है ? कहां है ? वह सोच ही रहा था कि किसी पुराने घोड़े ने हिनहिनाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा—‘कहो बरखुर्दार ! काहे में भर्ती होने आए हो ? तुम्हें तो तुम्हारी हुलिया देखकर ले लिया जाएगा। प्रिंसिपल, प्रोफेसर और तो क्या नौकर तक सब शौकीन हैं’—वह ठठाकर हंस पड़ा। भगवतीप्रसाद की हुलिया की तारीफ ! वह सिर्फ गरीब है।
‘बिचकते हो यार ! फार्म तो दो।’ और पढ़कर कहता है, ‘नाम करोगे उस्ताद ! बलिया भी गए हो कभी ? तब लो हाथ मिलाओ। भूलोगे तो नहीं, वरना हम रो देंगे।’

‘वाइस प्रिंसिपल का कमरा कहां है, बता दीजिए।’
‘अच्छा साहब, यहां से इस सीढ़ी पर चढ़िए, फिर दायें मुड़िए, फिर बायें, फिर उत्तर, फिर दक्खिन....’
मगर कहने वाले का ध्यान बंट गया; लड़कियां नई और पुरानी आ रही थीं, वह देखने लगा। जब वे चली गईं तो मुड़कर कहने लगा—‘जमींदार हो कि लम्बरदार ? अरे यार, ठहरे कहां हो ?’
तब भगवती कह उठा, ‘यहीं एक जगह है।’
‘कोई खतरनाक है !’

‘नहीं जी, एक धरमशाला है, और यह स्वर वास्तव में ऐसा बजना चाहिए था जैसे कि महल पर से शहजादी के पान की पीक थूकते समय किसी नीचे चलते राहगीर पर गिर पड़ी हो और वह चीख रहा हो, ‘मैं गरीब हूं। अब कपड़े बदलने को भी तो नहीं हैं।’
‘और मिलना किसलिए है ?’
‘प्रिंसिपल साहब ने कहा है कि वाइस प्रिंसिपल बर्सर हैं, वही सब कुछ करते हैं, तुम फीस माफ करवाने उन्हीं के पास जाओ। मैं ईसाई नहीं हूं, वरना एक थर्ड क्लास की पूरी फीस माफ है, क्योंकि वह ईसाई है।’ लड़के के स्वर में एक व्यथा झलक उठी, जैसे ईसा मसीह की किसी ने गर्दन उमेठ दी हो।
‘अच्छा दोस्त, जाओ, मिल आओ। आओ तुम्हें पहुंचा दूं।’

इतने में कैप्टेन राय अपनी नई मर्सिडीज़ गाड़ी में आ पहुंचे और संग में उतरी उनकी लड़की—लीला राय।
‘ठहरो दोस्त’ कहकर लड़का भगवती से अलग हो गया। वह एक सुन्दर, स्वस्थ युवक था। रेशमी कमीज़ और गहरा खाकी सूट, काला जूता पहने था। सर के बाल कढ़े हुए। अचानक उसके हाथ में जेब से सिगरेट केस निकल आया। अपने-आप सिगरेट मुंह से लगी और धुआं गुबार बनकर, एक चक्कर, दो चक्कर, तीसरा आधा उठा, और एक धुंधली रेखा बादलों की तरह सरक उठी। उसकी आंखों में एक नज़र थी, बड़ी तड़पीली। उसने देखा—मिस लीला राय ! एक पतली-दुबली मगर मांसल लड़की, सफेद साड़ी पहने और पल्ला ऐसे ओढ़े कि उसकी डेढ़ छाती के गोल नज़र आ रहे थे; चाइनीज डिजाइन की चप्पल और भकभका रंग और सिर के कंधों तक कटे बालों के बीच में से उसका तोते-सा मुंह। बड़ी सुन्दर थी। उसने देखा, कैप्टेन राय जो अपनी वर्दी में उससे बातें कर रहे थे। उसने देखा, मर्सीडीज़ बेन्सका स्टीयरिंग व्हील और उसकी निकोटीन से पीली पड़ी उंगलियां अपने-आप होंठों पर पहुंच गईं और होंठों ने तड़पकर ऐसा धुआं छोड़ा, जैसे जंकशन पर आकर रेल आराम की सांस छोड़ रही हो।


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