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ज़िद
ज़िद
प्रकाशक :
राजकमल प्रकाशन |
प्रकाशित वर्ष : 2015 |
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 14411
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आईएसबीएन :9788126728602 |
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सबसे कमजोर रोशनी भी सघन अँधेरे का दंभ तोड़ देती है। इसी उम्मीद से ये कविताएँ यहाँ है।
आग, पहिया और नाव की ही तरह भाषा भी मनुष्य का एक अद्वितीय अविष्कार है। इस अर्थ में और भी अद्विरिय कि यह उसकी देह और आत्मा से जुडी है। भाषा के प्रति हाम्र व्यवहार वस्तुतः जनतंत्र और पूरी मनुष्यता के प्रति हमारे व्यवहार को ही प्रकट करता है। हम एक ऐसे समय से रूबरू हैं जब वर्चस्वशाली शक्तियों की भाषा में उददंडता और आक्रामकता अपने चरम पर पहुँच रही है। बाज़ार की भाषा ने हमारे आपसी व्यवहार की भाषा को कुचल दिया है। विज्ञापन की भाषा ने कविता से बिम्बों की भाषा को छीनकर फूहड़ और अश्लीलता की हदों तक पहुंचा दिया है। इस समय के अंतर्विरोधों और विडम्बनाओं को व्यक्त करने और प्रतिरोध के नए उपकरण तलाश करने की बेचैनी हमारी पूरी कविता की मुख्य चिंता है। उसमें कई बार निराशा भी हाथ लगती है और उदासी भी लेकिन साधारण जन के पास जो सबसे बड़ी ताकत है और जिसे कोई बड़ी से बड़ी वर्चस्वशाली शक्ति और बड़ी से बड़ी असफलता भी उससे छीन नहीं सकती, वह है उसकी जिद। मेरी इन कविताओं में यह शब्द कई बार दिखाई देगा। शायद यह जिद ही है जो इस बाजारू समय में भी कवि को धुंध और विभ्रमों के बीच लगातार अपनी जमीन से विस्थापित किए जा रहे मनुष्य की निरंतर चलती लड़ाई के पक्ष में रचने की ताकत दे रही है। सबसे कमजोर रोशनी भी सघन अँधेरे का दंभ तोड़ देती है। इसी उम्मीद से ये कविताएँ यहाँ है।
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