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योग निद्रा

स्वामी सत्यानन्द सरस्वती

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 145
आईएसबीएन :0

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योग निद्रा मनस और शरीर को अत्यंत अल्प समय में विक्षाम देने के लिए अभूतपूर्व प्रक्रिया है।


अनुभूति के द्वारों का खुलना

आज का मनुष्य अधूरा है। हो सकता है कि उसको गणित, भौतिकी, रसायन, आदि का बहुत अच्छा ज्ञान हो; अपने शरीर का भी पूर्ण ज्ञान हो, किन्तु वह अधूरा ही कहा जायेगा, क्योंकि उसका उच्चतम मस्तिष्क सोया पड़ा है और वह अपने मस्तिष्क को पूर्णत: जानने में असमर्थ है। इसलिए कहा जाता है कि उसकी पहचान, उसका ज्ञान सीमित है और अधूरा है। जैसे, चंद्रमा के दूसरी तरफ क्या है, यह जाने बिना नक्षत्रों का ज्ञान अधूरा रहता है, वैसे ही मस्तिष्क के पूरे विभागों की जानकारी के बिना मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान अधूरा है, असमर्थ है।

पाश्चात्य एवं पूर्व के भी कई दार्शनिकों ने यह उल्लेख किया है कि मनुष्य का ज्ञान अधूरा है तथा मनुष्य स्वयं में पूर्ण नहीं है, क्योंकि अभी उसे मस्तिष्क के उन बंद द्वारों का ज्ञान नहीं है जो सदियों से बंद पड़े हैं। ज्ञान नहीं होने तक कौन जानता है कि वहाँ क्या-क्या छिपा है? शायद उस समय अब तक की समस्त दार्शनिक, आध्यात्मिक व वैज्ञानिक मान्यतायें पूर्णतः बदल भी सकती हैं, इसलिए किसी ने कहा है कि अपने को जानना हो तो अपने बंद दरवाजों की बंद खिड़कियों को खोल दो। तुम्हारे जीवन का सूर्य तुम्हें स्वयं प्रकाश से भर देगा।

वस्तुतः यही कारण है कि योगियों के सोचने व समझने का तरीका साधारण लोगों या अन्य दर्शनिकों से बहुत अलग है। कहीं-कहीं हम उनके अद्भुत विचारों से सामंजस्य भी नहीं बैठा पाते। यहीं सोचने-समझने की आवश्यकता है कि मस्तिष्क का एक भाग ही चेतन है, बाकी अधिक भाग सोया हुआ है। अत: हमारे सोचने-समझने की शक्ति सीमित है, लेकिन योगियों ने मस्तिष्क के सम्पूर्ण भाग का दर्शन किया है, अत: उनके विचारों की शक्ति हमसे बहुत अधिक है। हमारे व उनके विचारों में मतभेद होना कोई बड़ी बात नहीं है।

हम पहले ही कह चुके हैं कि सांसारिक रूप से साधारणतः कार्यशील मस्तिष्क केवल बाह्य भावों-अनुभवों को देखने व पहचानने की शक्ति रखता है। मस्तिष्क का यह भाग अपने अंदर देखने की शक्ति नहीं रखता, किन्तु यह बाहर के अनुभवों को व्यक्ति पर लादने में समर्थ है। जैसे, संसार में सुख नहीं है, यह व्यक्ति को दु:खी बनाता है। संसार में दु:ख नहीं है, यह व्यक्ति को सखी बनाता है, क्योंकि यह दिमाग अंदर के आनन्द को देखने में असमर्थ है।

दिमाग के इस भाग का बाह्य अनुभवों का तरीका गलत है, यही बात तब भी लागू होती है जब यह अंदर झाँक कर देखता है। हमारे भीतर कोई समस्या नहीं है, लेकिन इस छोटे दिमाग को समस्याओं का ढेर लगा दिखाई देता है। यह एक अनुभव, एक इच्छा या एक स्मृति की कल्पना कर लेता है। यह बात सम्पूर्ण मस्तिष्क के साथ नहीं होती, क्योंकि जब मनुष्य का पूरा मस्तिष्क काम करता है तब वह एकरस का, चैतन्य आनन्द का अनुभव करता है। यह सम्पूर्ण मस्तिष्क अवचेतन का रथ होता है।

नींद का इस मस्तिष्क के साथ थोड़ा सम्बन्ध है। जब व्यक्ति सोया रहता है; वह संपूर्ण रूप से अवचेतन की अवस्था में रहता है। यौगिक शास्त्र में अवचेतन को हिरण्यगर्भ कहा गया है। इसे ही अनिश्चित शरीर अथवा शिवलिंगम् कहा गया है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस एकरूप अवचेतन से किस प्रकार निर्माण व विकास की चेतना को जगाया जाये? इसका उत्तर है, जब अवचेतन की सजगता का एक बिन्दु भी जाग्रत हो जाता है तो व्यक्ति में महान् चेतना की जाग्रति होती है, जो विकास व निर्माण-कार्यों को आगे बढ़ाने में सहायक बनती है।

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