उपन्यास >> चतुरंग चतुरंगविमल मित्र
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विमल मित्र के चार श्रेष्ठ उपन्यास एक साथ
Chaturang
विमल दा
लेखक : विश्वनाथ मुखर्जी
सन् 1970 के आसपास की बात है। मेरी नगरी में ‘साहब-बीवी-गुलाम’ हलचल मचा रही थी। मित्रों की जबानी प्रशंसा सुनकर फिल्म देखने चला गया। हाल के बाहर आकर देर तक खोया-खोया सा रहा। पिछले कई वर्षों से ऐसी फिल्म नहीं देख पाया था। उत्तम कुमार, सुमित्रा देवी, अनुभा गुप्ता, छवि विश्वास ने कमाल का अभिनय किया था।
उस समय तक विमल मित्र के उपन्यासों से अपरिचित था। बाद में कई उपन्यास पढ़े। कुछ उपन्यास को रामायण महाभारत जैसे वृहद हैं। उन्हें पढ़ना द्रविण प्राणायाम करना है। मुझे लगा, रवीन्द्र, शरत् और विभूति भूषण बनर्जी के बाद बंगला साहित्य में एक अद्वितीय कथाकार का उदय हुआ है जो कथानक और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ है—जिस प्रकार ‘वैले लेटर्स’ शैली में ‘यायावर’ ने ‘दृष्टिपात’ दिया है, ठीक उसी प्रकार ‘साहब-बीवी-गुलाम’, ‘बेगम मेरी विश्वास’, ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’, ‘इकाई-दकाई सैकड़ा’ आदि दर्जनों उपन्यास लेकर विमल बाबू ने पदार्पण किया है।
विमल दा से कभी घनिष्टता होगी, इसकी कल्पना नहीं थी और स्वभावतः अकारण किसी से मिलता भी नहीं। सन् 1977 में अचानक विमल बाबू से बड़े नाटकीय ढंग से मुलाकात हुई। कलकत्ता की साहित्यिक संस्था ‘अर्चना’ ने मेरे अभिनन्दन का आयोजन किया। मेरी जाने की इच्छा नहीं थी लेकिन मेरे परम हितैषी डाक्टर भानुशंकर नाराज होकर बोले—वे ले क्या लेंगे ? कुछ देंगे ही।
कुछ लोग जीवन में ऐसे भी आते हैं जिनके आगे झुकना अनिवार्य हो जाता है। अन्ततः जाना पड़ा। इस समारोह के स्वागताध्यक्ष श्री विमल दा बनाए गए थे। यह बात कलकत्ता जाने पर मालूम हुई। इस समाचार ने मुझे चौंका दिया। मुझ जैसे सामान्य लेखक के अभिनन्दन में भारत विख्यात उपन्यासकार स्वागताध्यक्ष बने, यह गर्व की बात थी। लेकिन मैं मन ही मन कुंठा से दबा जा रहा था। विमल दा मेरे बारे में जानते कितना होंगे ! पता नहीं, मेरी पुस्तकें पढ़ने का मौका है मिला या नहीं।
उस समारोह में दर्जनों व्यक्तियों के भाषण हुए, पर मैं विमल दा के वक्तव्य को बड़े गौर से सुनता रहा। कुशल चित्रकार जिस प्रकार घर बैठे प्रकृतिक दृश्यों को तूलिका के माध्यम से स्पष्ट करता है, ठीक उसी प्रकार अपने आधे घंटे के भाषण में उन्होंने मेरे फटीचर-पुराण का चित्रण किया। समझते देर नहीं लगी कि कलकत्ता स्थित मित्रों से बहुत कुछ पता लगा चुके हैं।
सभा समाप्त होने के बाद विमल दा ने धीरे से कहा—कल सबेरे मेरे घर आइए।
विमल दा ने ट्रंप का एक पत्ता फेंका है, इसे उस समय नहीं समझ पाया। लेकिन इस आमंत्रण को पाकर मैं प्रसन्न हो उठा। दूसरे दिन जब उनके घर गया तब देखा—पांच-छह व्यक्ति बैठे हैं। मुझे गले से लगाते हुए बोले—कल बड़ी भीड़ रही। आपसे बातें नहीं कर पाया। आज आपके सम्मान में यह गोष्ठी रखने की इच्छा हुई।
विमल दा के इस स्नेह को देखकर मैं अवाक् रह गया। आखिर मुझ जैसे दुर्वासा में उन्होंने क्या देखा जो इस प्रकार भयातुर हो उठे ? जिस व्यक्ति से अभी कल प्रथम बार साक्षात्कार हुआ है, वह इतना मेहरवान कैसे हो गया ? क्या विमल बाबू मेरे माध्यम से कोई लाभ उठाना चाहते हैं ? ऐसी अनोखी चिंताए करता रहा। इस बीच हम आपस में बातें करते रहे।
अचानक कुर्सी से उठे और दो पुस्तकें हस्ताक्षर करके मुझे दीं। बोले—आम तौर पर मैं किसी को पुस्तक भेंट नहीं करता। आप प्रथम लेखक हैं जिसे देने की इच्छा मेरे मन में हुई।
विमल दा ने पुनः ट्रम्प का पत्ता फेंका। कमरे में तीन दरवाजे, चारों ओर ऊंची अलमारियों में ठसाठस पुस्तकें। एक नजर में ही लगता है जैसे यह आदमी काफी पढ़ता है।
चलते समय उन्होंने कहा—सोच रहा हूं, इस वर्ष दुर्गा-पूजा पर काशी जाऊं। अगर आया तो आप मेरे पण्डा होंगे।
इस घटना के बाद हम कभी-कभी पत्राचार करते रहे। मेरे कुछ शुभचिन्तकों ने, जो मेरी आर्थिक स्थिति से परिचित थे, विमल दा से कहा कि आप अपनी कोई पुस्तक विश्वनाथ को अनुवाद करने दीजिए। विमल दा लोगों की बातें सुनते रहे और हां’ या ‘ना’ कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। न उन्होंने अनुवाद करने को दिया और न कभी मैंने इस बारे में चर्चा की। अपने उन मित्रों को बाद में ऐसी चर्चा करने से मना कर दिया।
अचानक दुर्गा पूजा के मौके पर उनका काशी आगमन हुआ। उनके मेजबान ने आकर सूचित किया कि विमल बाबू आपके लिए व्याकुल हैं। स्टेशन से ही हम सबको परेशान कर रहे हैं कि विश्वनाथ मुखर्जी कहां हैं ? स्टेशन क्यों नही आया ? उसे बुलाइए।
मैं इतना कीमती कैसे हो गया, समझ नहीं सका। मुमुक्षु भवन में जाते ही उन्होंने कहा—आप स्टेशन क्यों नहीं आए ? क्या मेरा पत्र नहीं मिला था ?
मैंने कहा—नहीं तो।
उन्होंने कहा—पत्नी की बहुत दिनों से इच्छा थी कि बाबा विश्वनाथ का दर्शन करूं।....और मैं सोच रहा था कि काशी में एक और जीवन्त विश्वनाथ हैं, मैं उनका करूंगा।...दरअसल यहां की एक सभा में भाषण देने आया हूं।
मुझे मालूम है कि पूजा के अवसर पर अधिकतर बंगाली बंगाल से भागकर सारे भारत में फैल जाते हैं। छुट्टी मनाने और देशदर्शन के लिए जाते हैं। विमल दा के आगमन का समाचार नगर में तेजी से फैल गया। जिसे देखिए, वही साक्षात्कार लेने चला आ रहा है। युवा साहित्यकार तरह-तरह के सवाल पूछने लगे।
एक दिन शाम को उन्होंने कहा—आज ‘बंगीय समाज’ में भाषण देने जाना है। आपको चलना पड़ेगा मेरे साथ।
मैंने कहा—माफ कीजिएगा। मैं कहीं आता-जाता नहीं। इसके अलावा मुझे आमंत्रण भी नहीं है।
--आश्चर्य है। आपको इस सभा में क्यों नहीं बुलाया गया ? आपको साथ देना पड़ेगा। मैं स्वयं भी सभा-समारोहों में घबराता हूं। जब मंच पर बोलना पड़ता है तब नर्वस हो जाता हूं। आप रहेंगे तो साहस मिलेगा।
लाचारी में उनके साथ जाना पड़ा। पण्डाल में जाकर मैं भाभी के पास बैठ गया तो मुझे खींचकर मंच पर ले गए जहां काठ के उल्लू की तरह बैठ गया। कहीं भाग न जाऊं, इसीलिए वे भाषण समाप्त होने तक मेरा एक हाथ पकड़े रहे।
मैं उनके भाषण को सुनकर चकित रह गया। अपने भाषण में कहा—मैं आमतौर पर सभाओं में नहीं जाता। अगर आप पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते होंगे तो कहीं भी मेरा उल्लेख आप लोगों ने नहीं देखा होगा। बंगाल के बाहर कभी-कभी चला जाता हूं, पर बंगाल में कहीं नहीं जाता। वहां मैं बहुत बदनाम लेखक माना जाता हूं, जिसे अंग्रेजी में ‘वल्गर राइटर’ कहते हैं। आप लोगों के नगर में प्रथम बार उपस्थित हुआ हूं। आप लोग मुझे उपन्यासकार, लेखक मानते हैं, यह संतोष की बात है। लेकिन बंगला-साहित्य में मेरा कोई स्थान नहीं है। किसी भी पुस्तक में आप मेरा उल्लेख नहीं पाएंगे। आज तक मुझे न कोई पुरस्कार मिला और न सम्मान। मैं हमेशा बंगाली साहित्यकारों द्वारा अपमानित, लांछित और प्रताड़ित होता आया हूं। संभव है कि साहित्य के इतिहास में मेरा नाम न आए। जब किसी पत्र-पत्रिका में धारावाहिक रूप से मेरा कोई उपन्यास छपता है तो अजस्र निन्दा के पत्र सम्पादक को भेजे जाते हैं। वे सभी पत्र मेरे पास उत्तर देने के लिए भेजे जाते हैं। मैं उनका प्रतिवाद नहीं करता। अक्सर इस आत्म-पीड़ा के कारण कलकत्ता से दूर भाग जाता हूं। कई साहित्यकारों ने यह प्रयत्न किया है कि कोई भी प्रकाशक मेरे उपन्यास न छापें। दरअसल न तो मैं लेखक हूं और न साहित्यकार। जो लोग मुझे इस रूप में देखते हैं, वे भ्रम में हैं। मेरा भाग्य ही ऐसा है। मैं बचपन से ही उपेक्षित रहा। मैं जिस स्कूल में पढ़ता था, वहां एक कालू नामक लड़का मेरा सहपाठी था। अचानक एक दिन अकारण उसने चपत मारी। मैंने उससे पूछा—‘क्यों भाई, मुझसे क्या गलती हो गई ?’ उसने कहा—‘कुछ नहीं।’ मैंने पूछा—‘फिर आपने मारा क्यों ?’ उसने कहा—‘यों ही।’ मैंने सोचा—शायद मेरे कपड़े गंदे हैं, इसलिए उसने मारा है। दूसरे दिन साफ कपड़े पहनकर स्कूल गया तो पुनः चपत खानी पड़ी। उस दिन सोचा—शायद मेरे बाल ठीक नहीं हैं। उसी दिन नापित के यहां जाकर बाल बनवाया। तीसरे दिन भी मुझे चपत खानी पड़ी। इसी प्रकार बचपन से ही मुझे अकारण ही चपत खानी पड़ रही है। स्कूल से कालेज आया तो वहां सैकडों कालू मिले। नौकरी करने गया तो लाखों कालू से भेंट हुई। साहित्य के क्षेत्र में तो अनगिनत कालू मिल रहे हैं।
मेरा एक भाई डाक्टर है, दूसरा इंजीनियर। पिताजी मुझे बैरिस्टर बनाना चाहते थे। मेरी रुचि उधर न देखकर उन्होंने मुझे एकाउण्टेण्ट बनाना चाहा। लेकिन मैंने इसे भी अस्वीकार कर दिया। वह नाराज होकर बोले—तब तुम क्या बनना चाहते हो ? मैंने कहा—मैं लेखक बनना चाहता हूं। मेरे उत्तर से उन्हें बड़ी निराशा हुई। मेरा भविष्य जानने के लिए वे एक ज्योतिषी के पास गए। उसने बताया—आपका एक लड़का सोने का और दूसरा चांदी का एक घड़ा होगा। तीसरा मिट्टी का कुण्डा होगा। ज्योतिषाचार्य की वाणी सत्य हुई। मैं मिट्टी का कुण्डा बना रह गया। मेरे पाठक मुझे आदर देते हैं, पर उन्हें यह नहीं मालूम कि मैं कुछ भी नहीं हूं।
विमल दा के इस दर्द को सुनकर मुझे कवि गुरु रवीन्द्रनाथ के भाषण की याद आ गई जो उनकी पुस्तक में प्रकाशित है। उन्होंने कहा था कि मुझे अपने जीवन में जितना असम्मान, जितनी लांछना, जितना अपमान और जितनी प्रताड़ना प्राप्त हुई है, उतना किसी अन्य लेखक को प्राप्त नहीं हुई है साहित्य के क्षेत्र में बड़ा अभागा प्रमाणित हुआ हूं। इसी प्रकार शरत् बाबू के साथ हुआ था। उनकी पुस्तकें कट्टरपंथी परिवार में रखना पाप समझा जाता था। उन्हें घर पर आमंत्रित करना मर्यादा के विपरीत समझा जाता था। पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्य सम्मेलनों में खुले आम गालियां दी जाती थीं।
विमल बाबू की आलोचना करनेवालों से पूछना चाहता हूं कि रवीन्द्र और शरत् के बाद कोई इतना लोकप्रिय हुआ है ? विमल दा को छोड़कर किसकी कृतियां घर, अस्पताल और रसोईघर तक पहुंच सकी हैं ? बंगला के अनेक उपन्यासकार अपने जीवन काल में मृत हो गए। अब उनकी रचनाएँ उतनी चाव से नहीं पढ़ी जातीं। नए स्वाद, नई भाषा, नई कथानक ही पाठकों को आकर्षित करती है। अधिकांश लेखक सूर्य की तरह उदय होते हैं और दोपहर तक तपते हैं, अन्त में अस्त हो जाते हैं। इसी प्रकार की घटनाएं अधिकांश लेखकों के जीवन में हुई हैं। विमल बाबू को इसी बात का डर बना हुआ है।
बातचीत के सिलसिले में उन्होंने कहा—लेखक के जीवित काल में जो अर्थ या यश मिलता है, वह पारश्रमिक नहीं होता, मजदूरी होती है। असली पुरस्कार तो निधन के बाद मिलता है जैसे प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, शरत् और रवीन्द्रनाथ को मिल रहा है।
विमल दा के उपन्यासों की संख्या देखकर और खासकर इधर की रचनाओं में एकरुपता का अनुभव करने पर मैंने उनसे कहा—अब आप विश्राम लीजिए। बहुत लिख चुके हैं। प्रतिष्ठा के आकाश में छा गए हैं।
विमल दा ने कहा—मैं स्वयं भी यही चाहता हूं, परंतु मेरे पाठक तथा प्रकाशक मुझे छोड़ते नहीं। मैं जो कुछ लिखता हूं, अपने पाठक को सामने बैठाकर लिखता हूं। जो चीज उसे पसन्द नहीं आती, उसे नष्ट कर देता हूं। मैं जिस मकान में रहता हूं, जिस थाली में खाता हूं, वह सब मेरे पाठक देते हैं, अतएव उनके मानसिक अनुरोध पर मुझे ही लिखना पड़ता है।
ठीक इन्हीं दिनों एक दुर्घटना हो गई। भाभीजी (श्रीमती विमल मित्र) ने कहा—इन्हें गपशप करने से अवकाश नहीं मिलता। आप मुझे यहां के मंदिरों का दर्शन करा दें।
मैंने कहा—भाभीजी, यह कार्य मुझसे नहीं होगा। अपनी पत्नी और छोटे बच्चे को भेज दूंगा, वे आपको यह सब दिखा देंगे।
कई दिनों बाद विमल दा ने कहा—राय कृष्णदास से आपका परिचय है ?
मैंने उन्हें बताया कि वे केवल मुरारीलाल केडिया और मुझे पसन्द करते हैं। मेरे साथ चलकर देखिए, वहां मेरा स्वागत किस ढंग से होता है !
एकाएक भाभीजी ने कहा—विश्वविद्यालय का विश्वनाथ मंदिर भी देख लिया जाएगा।
श्रद्धेय राय कृष्णदास के यहां से हम विश्वनाथ मंदिर आए। भाभीजी तथा अन्य लोग मंदिर दर्शन करने चले गए। मैं विमल दा के साथ बाहर खड़ा रहा। ठीक उसी समय अपनी कार बैक होने लगी और विमल दा उसके धक्के से गिर पड़े। कमर की हड्डी में फ्रेक्चर हो गया। मेजबान के साथ-साथ मेरी भी स्थिति अजीब हो गई। कहां वह पूजा की छुट्टी में सैर करने आए थे और कहां यह मुसीबत। तुरंत उन्हें अस्पताल ले गए। भाभीजी के चेहरे का रंग उड़ गया था। वे विमल दा से अधिक घबरा रही थीं। बार-बार पूछती रहीं—कुछ हुआ तो नहीं, विश्वनाथ बाबू।
मैं उन्हें सांत्वना देता रहा, पर भीतर ही भीतर बेचैनी महसूस करता रहा। मेजबान श्री पुरुषोत्तम मोदी अपने भाग्य को कोस रहे थे। कई दिनों बाद जब एक्सरे हुआ तब पता चला कि हड्डी मे दोष आ गया है जो ठीक हो जाएगा। इस वक्त पूर्ण विश्राम की जरूरत है। हड्डी में दोष आ गया है, इसे हमने प्रकट नहीं किया।
यह दुर्घटना एक प्रकार से हम दोनों के लिए वरदान हुआ। विमल दा ने मुझे और मैंने विमल दा को निकट से देखा। मैं ऐसे अनेक लोगों को देख चुका हूं जो सज्जनता-विद्वता का मुखौटा लगाए रहते हैं जबकि अन्तर के निकृष्ट होते हैं। दूसरी ओर उजड्ड प्रकृतिवाले सहृदय होते हैं। कलकत्ता के आवारा लड़कों को जो किसी चबूतरे पर बैठकर गोली मारना, शैतानी करना, गुण्डई करना आदि हरकत करते हैं, उन्हें राखबाज कहा जाता है। मैंने यह भी देखा कि बिलकुल अपरिचित व्यक्ति जब अचानक दुर्घटना में घायल हो जाता है जब वे अपने खर्च से उस बेहोश व्यक्ति को टैक्सी पर लादकर अस्पताल ले जाते हैं। वहीं शरीफ लोग पड़ोसी की मौत पर शवयात्रा में नहीं आते। बीमार पड़ने पर हालचाल पूछने नहीं आते।
विमल दा का इलाज एक माह तक चलता रहा। मेरे लिए सख्त हुक्म था कि मैं उनके निकट बराबर मौजूद रहूं। नगर के साहित्यकारों से उनका मिलना-जुलना बन्द हो गया था। इस बीच मैं बोर न होने पाऊं, इसलिए विमल दा अपने जीवन की व्यथा सुनाते रहे। मुझे उन घटनाओं पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। मेरे अग्रज साहित्यिक मुझे अपना स्नेह देते रहे, पर विमल दा के मित्र उनके मार्ग में कांटे बिछाते रहे। क्या किसी लेखक के साथ उनके समकालीन लेखक ऐसी गंदी हरकतें कर सकते हैं ?
मुझे लगा जैसे विमल दा हीनता से ग्रस्त हैं। अपने अग्रजों की तरह सम्मान नहीं पा सकें हैं। कहीं पुरस्कृत नहीं हुए हैं। कहीं से उपाधि आदि न पाने के कारण क्षुब्ध हैं। जबकि उनसे कनिष्क लेखक सब कुछ प्राप्त कर रहे हैं। उनका कुण्ठाग्रस्त हृदय क्षोभ से भर गया है। लेकिन मेरी यह कल्पना निरर्थक थी। जब मैंने ‘आमि विश्वास करी’ पुस्तक पढ़ी तो लगा जैसे विमल दा ने अनेक झझावातों को सहकर अपना निर्माण किया है। जैसे हजार टांकी खाने पर शिवलिंग का निर्माण होता है।
उन्होंने कहा था—जानते हैं मुखर्जी बाबू, जब ‘‘साहब-बीवी-गुलाम’, ‘धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने लगा तो मेरे समकालीन लेखक हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गए। इतना विरोध किया कि क्या बताऊं ? यहाँ तक प्रचारित किया गया कि पंडित शिवनाथ शास्त्री की रचना से प्लाट चोरी की है। बंगला साहित्य में मेरे पीछे जितने षड्यंत्र रचे गए, उतने अन्य किसी लेखक के पीछे नहीं हुए हैं।
उन्होंने यहां सर्वश्री ताराशंकर बनर्जी और नारायण गांगुली का जिक्र करते हुए बताया—यहां तक कि मेरे प्रकाशकों को भी भड़काया गया था। उनसे कहा गया कि ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ और ‘बेगम मेरी विश्वास’ जैसा मोटा उपन्यास प्रकाशित करके क्यों अपना पैसा फंसा रहे हैं ? इन उपन्यासों की 500 प्रतियां भी नहीं बिकेंगी। लेकिन इन उपन्यासों के अब तक 13-13 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
सबसे अधिक चमत्कार की घटना की चर्चा करते हुए विमल दा ने कहा—विश्व भारती के उपकुलपति, जिन्हें अपने जीवन में कभी नहीं देखा, पत्र व्यवहार नहीं किया, कभी कोई परिचय तक नहीं हुआ, उन्होंने ‘साहब-बीवी-गुलाम’ के बारे में विस्तृत आलोचना ‘देश’ पत्र को भेजी। ‘देश’ के संपादक श्री सागरमय घोष ने मुझे बुलाकर वह लेख दिखाया। मेरे जीवन की यह अद्भुत घटना थी। एक ओर अनेक षड्यन्त्र रचे जा रहे थे और वहीं 84 वर्षीय श्रद्धेया श्रीमती देवी चौधुरानी ने अजस्र प्रशंसा करते हुए यहां तक लिखा था—इस कृति के लिए लेखक को नोबेल पुरस्कार देना चाहिए। मुझे लगा जैसे मैं इस वरदान को सहन नहीं कर सकूंगा। मैं इसके योग्य पात्र नहीं हूं। अगर यह लेख छप गया तो मेरे समकालीन लेखकों के मुंह पर ताला लग जाएगा। मैंने उक्त लेख छपने से रोक दिया।
मैंने कहा—वह लेख तो बंगला की पुस्तक में प्रकाशित है। पढ़ चुका हूं।
विमल दा ने कहा—बाद में प्रकाशक के अनुरोध पर प्रकाशनार्थ दे दिया।
बातचीत के सिलसिले में मैंने कहा—श्रीमती चौधुरानी की राय ठीक है। आपकी यह कृति सर्वश्रेष्ठ है।
विमल दा ने मुस्कराते हुए कहा—नहीं, मेरी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘मैं’ है।
इतना कहने के बाद उन्होंने मुझे ‘मैं’ नामक उपन्यास दिया। भूमिका में अनुवादक ने भी विमल दा की धारणाओं की पुष्टि की है। पर मैं विमल दा के विचारों से सहमत नहीं हो सका। मैंने अपने अनेक समकालीन साहित्यकारों और पाठकों से यही प्रश्न किया। सभी मेरे विचारों से सहमत हैं।
मेरी समझ से जिस प्रकार बंकिम बाबू ‘राजसिंह’ और ‘देवी चौधुरानी’ तथा शरत् बाबू ने अपने ‘गृहदाह’ उपन्यास को श्रेष्ठ मानते हैं, उसी प्रकार का मोह विमल दा का ‘मैं’ के प्रति है।
मेरे इस विचार को सुनने के बाद विमल दा ने कहा—मरुभूमि में यात्रा कर रहे प्यासे यात्री को एक गिलास पानी अमृतवत् लगता है, ठीक वही स्थिति आपकी है।
इस उत्तर को सुनकर मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा। हर लेखक की अपनी कमजोरी और विशेषता होती है। उसे तर्क के द्वारा झुकाया नहीं जा सकता। संभव है कि ‘साहब-बीवी-गुलाम’ के पात्रों को मैंने निकट से देखा हो या उनके पात्रों में अपना जीवन पाया हो, शायद, इसीलिए मुझे यह उपन्यास प्रिय लगा।
कलकत्ता जब कभी किसी कार्यवश जाता हूं तो एक बार विमल बाबू के यहां अवश्य जाता हूं। कलकत्ता के अधिकांश मित्र उनके परिचितों में हैं और वे तुरंत मेरे आने की सूचना विमल बाबू को दे देते हैं। जब कभी उनसे मिलने गया तब यह सूचना मिल जाती थी कि आप अमुक दिन आए हैं और अमुक के यहां ठहरे हैं।
एक बार किसी विवाह के सिलसिले में गया तो जाते ही भाभी जी ने बातचीत के सिलसिले में पूछा—आप आजकल क्या खाते हैं ?
कैंसर से पीड़ित होने के बाद मैं खाने-पीने के मामले में सावधानी बरतता हूं। भाभी का उद्देश्य क्या है, समझ नहीं सका।
तुरन्त जवाब दिया—आजकल बहुत कष्ट है, भाभीजी। आमतौर पर मैं केवल खिचड़ी या दाल-भात और बिना मिर्च की तरकारी खाता हूं। विवाह में आया हूं, पर भोजन दूसरों के यहां कर रहा हूं।
इतना कहने के बाद मैं विमल दा से बातें करने लगा। विमल दा किशोरा-वस्था में अच्छे गायक थे। इनका साहित्यिक जीवन कवि रूप में प्रारंभ हुआ था। इनके द्वारा गाए गीतों के अनेक रेकर्ड उन दिनों बाजार में बिकते थे। इसके बाद जब रेलवे की नौकरी करने गए तो वहां ऐसे अनेक ऐसे पत्र मिले जो चेहरे पर संत और सज्जनता का मुखौटा लगाए अपने आदर्श की व्याख्या करते रहे। लोग पूंजीपतियों को गाली देते हैं, पर सरकार की काजल की कोठरी में इन्सान के रूप में अनेक शैतानों को उन्होंने देखा। ऐसे अनेक पात्र उनके उपन्यासों में बिखरे हुए हैं।
उस समय तक विमल मित्र के उपन्यासों से अपरिचित था। बाद में कई उपन्यास पढ़े। कुछ उपन्यास को रामायण महाभारत जैसे वृहद हैं। उन्हें पढ़ना द्रविण प्राणायाम करना है। मुझे लगा, रवीन्द्र, शरत् और विभूति भूषण बनर्जी के बाद बंगला साहित्य में एक अद्वितीय कथाकार का उदय हुआ है जो कथानक और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ है—जिस प्रकार ‘वैले लेटर्स’ शैली में ‘यायावर’ ने ‘दृष्टिपात’ दिया है, ठीक उसी प्रकार ‘साहब-बीवी-गुलाम’, ‘बेगम मेरी विश्वास’, ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’, ‘इकाई-दकाई सैकड़ा’ आदि दर्जनों उपन्यास लेकर विमल बाबू ने पदार्पण किया है।
विमल दा से कभी घनिष्टता होगी, इसकी कल्पना नहीं थी और स्वभावतः अकारण किसी से मिलता भी नहीं। सन् 1977 में अचानक विमल बाबू से बड़े नाटकीय ढंग से मुलाकात हुई। कलकत्ता की साहित्यिक संस्था ‘अर्चना’ ने मेरे अभिनन्दन का आयोजन किया। मेरी जाने की इच्छा नहीं थी लेकिन मेरे परम हितैषी डाक्टर भानुशंकर नाराज होकर बोले—वे ले क्या लेंगे ? कुछ देंगे ही।
कुछ लोग जीवन में ऐसे भी आते हैं जिनके आगे झुकना अनिवार्य हो जाता है। अन्ततः जाना पड़ा। इस समारोह के स्वागताध्यक्ष श्री विमल दा बनाए गए थे। यह बात कलकत्ता जाने पर मालूम हुई। इस समाचार ने मुझे चौंका दिया। मुझ जैसे सामान्य लेखक के अभिनन्दन में भारत विख्यात उपन्यासकार स्वागताध्यक्ष बने, यह गर्व की बात थी। लेकिन मैं मन ही मन कुंठा से दबा जा रहा था। विमल दा मेरे बारे में जानते कितना होंगे ! पता नहीं, मेरी पुस्तकें पढ़ने का मौका है मिला या नहीं।
उस समारोह में दर्जनों व्यक्तियों के भाषण हुए, पर मैं विमल दा के वक्तव्य को बड़े गौर से सुनता रहा। कुशल चित्रकार जिस प्रकार घर बैठे प्रकृतिक दृश्यों को तूलिका के माध्यम से स्पष्ट करता है, ठीक उसी प्रकार अपने आधे घंटे के भाषण में उन्होंने मेरे फटीचर-पुराण का चित्रण किया। समझते देर नहीं लगी कि कलकत्ता स्थित मित्रों से बहुत कुछ पता लगा चुके हैं।
सभा समाप्त होने के बाद विमल दा ने धीरे से कहा—कल सबेरे मेरे घर आइए।
विमल दा ने ट्रंप का एक पत्ता फेंका है, इसे उस समय नहीं समझ पाया। लेकिन इस आमंत्रण को पाकर मैं प्रसन्न हो उठा। दूसरे दिन जब उनके घर गया तब देखा—पांच-छह व्यक्ति बैठे हैं। मुझे गले से लगाते हुए बोले—कल बड़ी भीड़ रही। आपसे बातें नहीं कर पाया। आज आपके सम्मान में यह गोष्ठी रखने की इच्छा हुई।
विमल दा के इस स्नेह को देखकर मैं अवाक् रह गया। आखिर मुझ जैसे दुर्वासा में उन्होंने क्या देखा जो इस प्रकार भयातुर हो उठे ? जिस व्यक्ति से अभी कल प्रथम बार साक्षात्कार हुआ है, वह इतना मेहरवान कैसे हो गया ? क्या विमल बाबू मेरे माध्यम से कोई लाभ उठाना चाहते हैं ? ऐसी अनोखी चिंताए करता रहा। इस बीच हम आपस में बातें करते रहे।
अचानक कुर्सी से उठे और दो पुस्तकें हस्ताक्षर करके मुझे दीं। बोले—आम तौर पर मैं किसी को पुस्तक भेंट नहीं करता। आप प्रथम लेखक हैं जिसे देने की इच्छा मेरे मन में हुई।
विमल दा ने पुनः ट्रम्प का पत्ता फेंका। कमरे में तीन दरवाजे, चारों ओर ऊंची अलमारियों में ठसाठस पुस्तकें। एक नजर में ही लगता है जैसे यह आदमी काफी पढ़ता है।
चलते समय उन्होंने कहा—सोच रहा हूं, इस वर्ष दुर्गा-पूजा पर काशी जाऊं। अगर आया तो आप मेरे पण्डा होंगे।
इस घटना के बाद हम कभी-कभी पत्राचार करते रहे। मेरे कुछ शुभचिन्तकों ने, जो मेरी आर्थिक स्थिति से परिचित थे, विमल दा से कहा कि आप अपनी कोई पुस्तक विश्वनाथ को अनुवाद करने दीजिए। विमल दा लोगों की बातें सुनते रहे और हां’ या ‘ना’ कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। न उन्होंने अनुवाद करने को दिया और न कभी मैंने इस बारे में चर्चा की। अपने उन मित्रों को बाद में ऐसी चर्चा करने से मना कर दिया।
अचानक दुर्गा पूजा के मौके पर उनका काशी आगमन हुआ। उनके मेजबान ने आकर सूचित किया कि विमल बाबू आपके लिए व्याकुल हैं। स्टेशन से ही हम सबको परेशान कर रहे हैं कि विश्वनाथ मुखर्जी कहां हैं ? स्टेशन क्यों नही आया ? उसे बुलाइए।
मैं इतना कीमती कैसे हो गया, समझ नहीं सका। मुमुक्षु भवन में जाते ही उन्होंने कहा—आप स्टेशन क्यों नहीं आए ? क्या मेरा पत्र नहीं मिला था ?
मैंने कहा—नहीं तो।
उन्होंने कहा—पत्नी की बहुत दिनों से इच्छा थी कि बाबा विश्वनाथ का दर्शन करूं।....और मैं सोच रहा था कि काशी में एक और जीवन्त विश्वनाथ हैं, मैं उनका करूंगा।...दरअसल यहां की एक सभा में भाषण देने आया हूं।
मुझे मालूम है कि पूजा के अवसर पर अधिकतर बंगाली बंगाल से भागकर सारे भारत में फैल जाते हैं। छुट्टी मनाने और देशदर्शन के लिए जाते हैं। विमल दा के आगमन का समाचार नगर में तेजी से फैल गया। जिसे देखिए, वही साक्षात्कार लेने चला आ रहा है। युवा साहित्यकार तरह-तरह के सवाल पूछने लगे।
एक दिन शाम को उन्होंने कहा—आज ‘बंगीय समाज’ में भाषण देने जाना है। आपको चलना पड़ेगा मेरे साथ।
मैंने कहा—माफ कीजिएगा। मैं कहीं आता-जाता नहीं। इसके अलावा मुझे आमंत्रण भी नहीं है।
--आश्चर्य है। आपको इस सभा में क्यों नहीं बुलाया गया ? आपको साथ देना पड़ेगा। मैं स्वयं भी सभा-समारोहों में घबराता हूं। जब मंच पर बोलना पड़ता है तब नर्वस हो जाता हूं। आप रहेंगे तो साहस मिलेगा।
लाचारी में उनके साथ जाना पड़ा। पण्डाल में जाकर मैं भाभी के पास बैठ गया तो मुझे खींचकर मंच पर ले गए जहां काठ के उल्लू की तरह बैठ गया। कहीं भाग न जाऊं, इसीलिए वे भाषण समाप्त होने तक मेरा एक हाथ पकड़े रहे।
मैं उनके भाषण को सुनकर चकित रह गया। अपने भाषण में कहा—मैं आमतौर पर सभाओं में नहीं जाता। अगर आप पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते होंगे तो कहीं भी मेरा उल्लेख आप लोगों ने नहीं देखा होगा। बंगाल के बाहर कभी-कभी चला जाता हूं, पर बंगाल में कहीं नहीं जाता। वहां मैं बहुत बदनाम लेखक माना जाता हूं, जिसे अंग्रेजी में ‘वल्गर राइटर’ कहते हैं। आप लोगों के नगर में प्रथम बार उपस्थित हुआ हूं। आप लोग मुझे उपन्यासकार, लेखक मानते हैं, यह संतोष की बात है। लेकिन बंगला-साहित्य में मेरा कोई स्थान नहीं है। किसी भी पुस्तक में आप मेरा उल्लेख नहीं पाएंगे। आज तक मुझे न कोई पुरस्कार मिला और न सम्मान। मैं हमेशा बंगाली साहित्यकारों द्वारा अपमानित, लांछित और प्रताड़ित होता आया हूं। संभव है कि साहित्य के इतिहास में मेरा नाम न आए। जब किसी पत्र-पत्रिका में धारावाहिक रूप से मेरा कोई उपन्यास छपता है तो अजस्र निन्दा के पत्र सम्पादक को भेजे जाते हैं। वे सभी पत्र मेरे पास उत्तर देने के लिए भेजे जाते हैं। मैं उनका प्रतिवाद नहीं करता। अक्सर इस आत्म-पीड़ा के कारण कलकत्ता से दूर भाग जाता हूं। कई साहित्यकारों ने यह प्रयत्न किया है कि कोई भी प्रकाशक मेरे उपन्यास न छापें। दरअसल न तो मैं लेखक हूं और न साहित्यकार। जो लोग मुझे इस रूप में देखते हैं, वे भ्रम में हैं। मेरा भाग्य ही ऐसा है। मैं बचपन से ही उपेक्षित रहा। मैं जिस स्कूल में पढ़ता था, वहां एक कालू नामक लड़का मेरा सहपाठी था। अचानक एक दिन अकारण उसने चपत मारी। मैंने उससे पूछा—‘क्यों भाई, मुझसे क्या गलती हो गई ?’ उसने कहा—‘कुछ नहीं।’ मैंने पूछा—‘फिर आपने मारा क्यों ?’ उसने कहा—‘यों ही।’ मैंने सोचा—शायद मेरे कपड़े गंदे हैं, इसलिए उसने मारा है। दूसरे दिन साफ कपड़े पहनकर स्कूल गया तो पुनः चपत खानी पड़ी। उस दिन सोचा—शायद मेरे बाल ठीक नहीं हैं। उसी दिन नापित के यहां जाकर बाल बनवाया। तीसरे दिन भी मुझे चपत खानी पड़ी। इसी प्रकार बचपन से ही मुझे अकारण ही चपत खानी पड़ रही है। स्कूल से कालेज आया तो वहां सैकडों कालू मिले। नौकरी करने गया तो लाखों कालू से भेंट हुई। साहित्य के क्षेत्र में तो अनगिनत कालू मिल रहे हैं।
मेरा एक भाई डाक्टर है, दूसरा इंजीनियर। पिताजी मुझे बैरिस्टर बनाना चाहते थे। मेरी रुचि उधर न देखकर उन्होंने मुझे एकाउण्टेण्ट बनाना चाहा। लेकिन मैंने इसे भी अस्वीकार कर दिया। वह नाराज होकर बोले—तब तुम क्या बनना चाहते हो ? मैंने कहा—मैं लेखक बनना चाहता हूं। मेरे उत्तर से उन्हें बड़ी निराशा हुई। मेरा भविष्य जानने के लिए वे एक ज्योतिषी के पास गए। उसने बताया—आपका एक लड़का सोने का और दूसरा चांदी का एक घड़ा होगा। तीसरा मिट्टी का कुण्डा होगा। ज्योतिषाचार्य की वाणी सत्य हुई। मैं मिट्टी का कुण्डा बना रह गया। मेरे पाठक मुझे आदर देते हैं, पर उन्हें यह नहीं मालूम कि मैं कुछ भी नहीं हूं।
विमल दा के इस दर्द को सुनकर मुझे कवि गुरु रवीन्द्रनाथ के भाषण की याद आ गई जो उनकी पुस्तक में प्रकाशित है। उन्होंने कहा था कि मुझे अपने जीवन में जितना असम्मान, जितनी लांछना, जितना अपमान और जितनी प्रताड़ना प्राप्त हुई है, उतना किसी अन्य लेखक को प्राप्त नहीं हुई है साहित्य के क्षेत्र में बड़ा अभागा प्रमाणित हुआ हूं। इसी प्रकार शरत् बाबू के साथ हुआ था। उनकी पुस्तकें कट्टरपंथी परिवार में रखना पाप समझा जाता था। उन्हें घर पर आमंत्रित करना मर्यादा के विपरीत समझा जाता था। पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्य सम्मेलनों में खुले आम गालियां दी जाती थीं।
विमल बाबू की आलोचना करनेवालों से पूछना चाहता हूं कि रवीन्द्र और शरत् के बाद कोई इतना लोकप्रिय हुआ है ? विमल दा को छोड़कर किसकी कृतियां घर, अस्पताल और रसोईघर तक पहुंच सकी हैं ? बंगला के अनेक उपन्यासकार अपने जीवन काल में मृत हो गए। अब उनकी रचनाएँ उतनी चाव से नहीं पढ़ी जातीं। नए स्वाद, नई भाषा, नई कथानक ही पाठकों को आकर्षित करती है। अधिकांश लेखक सूर्य की तरह उदय होते हैं और दोपहर तक तपते हैं, अन्त में अस्त हो जाते हैं। इसी प्रकार की घटनाएं अधिकांश लेखकों के जीवन में हुई हैं। विमल बाबू को इसी बात का डर बना हुआ है।
बातचीत के सिलसिले में उन्होंने कहा—लेखक के जीवित काल में जो अर्थ या यश मिलता है, वह पारश्रमिक नहीं होता, मजदूरी होती है। असली पुरस्कार तो निधन के बाद मिलता है जैसे प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, शरत् और रवीन्द्रनाथ को मिल रहा है।
विमल दा के उपन्यासों की संख्या देखकर और खासकर इधर की रचनाओं में एकरुपता का अनुभव करने पर मैंने उनसे कहा—अब आप विश्राम लीजिए। बहुत लिख चुके हैं। प्रतिष्ठा के आकाश में छा गए हैं।
विमल दा ने कहा—मैं स्वयं भी यही चाहता हूं, परंतु मेरे पाठक तथा प्रकाशक मुझे छोड़ते नहीं। मैं जो कुछ लिखता हूं, अपने पाठक को सामने बैठाकर लिखता हूं। जो चीज उसे पसन्द नहीं आती, उसे नष्ट कर देता हूं। मैं जिस मकान में रहता हूं, जिस थाली में खाता हूं, वह सब मेरे पाठक देते हैं, अतएव उनके मानसिक अनुरोध पर मुझे ही लिखना पड़ता है।
ठीक इन्हीं दिनों एक दुर्घटना हो गई। भाभीजी (श्रीमती विमल मित्र) ने कहा—इन्हें गपशप करने से अवकाश नहीं मिलता। आप मुझे यहां के मंदिरों का दर्शन करा दें।
मैंने कहा—भाभीजी, यह कार्य मुझसे नहीं होगा। अपनी पत्नी और छोटे बच्चे को भेज दूंगा, वे आपको यह सब दिखा देंगे।
कई दिनों बाद विमल दा ने कहा—राय कृष्णदास से आपका परिचय है ?
मैंने उन्हें बताया कि वे केवल मुरारीलाल केडिया और मुझे पसन्द करते हैं। मेरे साथ चलकर देखिए, वहां मेरा स्वागत किस ढंग से होता है !
एकाएक भाभीजी ने कहा—विश्वविद्यालय का विश्वनाथ मंदिर भी देख लिया जाएगा।
श्रद्धेय राय कृष्णदास के यहां से हम विश्वनाथ मंदिर आए। भाभीजी तथा अन्य लोग मंदिर दर्शन करने चले गए। मैं विमल दा के साथ बाहर खड़ा रहा। ठीक उसी समय अपनी कार बैक होने लगी और विमल दा उसके धक्के से गिर पड़े। कमर की हड्डी में फ्रेक्चर हो गया। मेजबान के साथ-साथ मेरी भी स्थिति अजीब हो गई। कहां वह पूजा की छुट्टी में सैर करने आए थे और कहां यह मुसीबत। तुरंत उन्हें अस्पताल ले गए। भाभीजी के चेहरे का रंग उड़ गया था। वे विमल दा से अधिक घबरा रही थीं। बार-बार पूछती रहीं—कुछ हुआ तो नहीं, विश्वनाथ बाबू।
मैं उन्हें सांत्वना देता रहा, पर भीतर ही भीतर बेचैनी महसूस करता रहा। मेजबान श्री पुरुषोत्तम मोदी अपने भाग्य को कोस रहे थे। कई दिनों बाद जब एक्सरे हुआ तब पता चला कि हड्डी मे दोष आ गया है जो ठीक हो जाएगा। इस वक्त पूर्ण विश्राम की जरूरत है। हड्डी में दोष आ गया है, इसे हमने प्रकट नहीं किया।
यह दुर्घटना एक प्रकार से हम दोनों के लिए वरदान हुआ। विमल दा ने मुझे और मैंने विमल दा को निकट से देखा। मैं ऐसे अनेक लोगों को देख चुका हूं जो सज्जनता-विद्वता का मुखौटा लगाए रहते हैं जबकि अन्तर के निकृष्ट होते हैं। दूसरी ओर उजड्ड प्रकृतिवाले सहृदय होते हैं। कलकत्ता के आवारा लड़कों को जो किसी चबूतरे पर बैठकर गोली मारना, शैतानी करना, गुण्डई करना आदि हरकत करते हैं, उन्हें राखबाज कहा जाता है। मैंने यह भी देखा कि बिलकुल अपरिचित व्यक्ति जब अचानक दुर्घटना में घायल हो जाता है जब वे अपने खर्च से उस बेहोश व्यक्ति को टैक्सी पर लादकर अस्पताल ले जाते हैं। वहीं शरीफ लोग पड़ोसी की मौत पर शवयात्रा में नहीं आते। बीमार पड़ने पर हालचाल पूछने नहीं आते।
विमल दा का इलाज एक माह तक चलता रहा। मेरे लिए सख्त हुक्म था कि मैं उनके निकट बराबर मौजूद रहूं। नगर के साहित्यकारों से उनका मिलना-जुलना बन्द हो गया था। इस बीच मैं बोर न होने पाऊं, इसलिए विमल दा अपने जीवन की व्यथा सुनाते रहे। मुझे उन घटनाओं पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। मेरे अग्रज साहित्यिक मुझे अपना स्नेह देते रहे, पर विमल दा के मित्र उनके मार्ग में कांटे बिछाते रहे। क्या किसी लेखक के साथ उनके समकालीन लेखक ऐसी गंदी हरकतें कर सकते हैं ?
मुझे लगा जैसे विमल दा हीनता से ग्रस्त हैं। अपने अग्रजों की तरह सम्मान नहीं पा सकें हैं। कहीं पुरस्कृत नहीं हुए हैं। कहीं से उपाधि आदि न पाने के कारण क्षुब्ध हैं। जबकि उनसे कनिष्क लेखक सब कुछ प्राप्त कर रहे हैं। उनका कुण्ठाग्रस्त हृदय क्षोभ से भर गया है। लेकिन मेरी यह कल्पना निरर्थक थी। जब मैंने ‘आमि विश्वास करी’ पुस्तक पढ़ी तो लगा जैसे विमल दा ने अनेक झझावातों को सहकर अपना निर्माण किया है। जैसे हजार टांकी खाने पर शिवलिंग का निर्माण होता है।
उन्होंने कहा था—जानते हैं मुखर्जी बाबू, जब ‘‘साहब-बीवी-गुलाम’, ‘धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने लगा तो मेरे समकालीन लेखक हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गए। इतना विरोध किया कि क्या बताऊं ? यहाँ तक प्रचारित किया गया कि पंडित शिवनाथ शास्त्री की रचना से प्लाट चोरी की है। बंगला साहित्य में मेरे पीछे जितने षड्यंत्र रचे गए, उतने अन्य किसी लेखक के पीछे नहीं हुए हैं।
उन्होंने यहां सर्वश्री ताराशंकर बनर्जी और नारायण गांगुली का जिक्र करते हुए बताया—यहां तक कि मेरे प्रकाशकों को भी भड़काया गया था। उनसे कहा गया कि ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ और ‘बेगम मेरी विश्वास’ जैसा मोटा उपन्यास प्रकाशित करके क्यों अपना पैसा फंसा रहे हैं ? इन उपन्यासों की 500 प्रतियां भी नहीं बिकेंगी। लेकिन इन उपन्यासों के अब तक 13-13 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
सबसे अधिक चमत्कार की घटना की चर्चा करते हुए विमल दा ने कहा—विश्व भारती के उपकुलपति, जिन्हें अपने जीवन में कभी नहीं देखा, पत्र व्यवहार नहीं किया, कभी कोई परिचय तक नहीं हुआ, उन्होंने ‘साहब-बीवी-गुलाम’ के बारे में विस्तृत आलोचना ‘देश’ पत्र को भेजी। ‘देश’ के संपादक श्री सागरमय घोष ने मुझे बुलाकर वह लेख दिखाया। मेरे जीवन की यह अद्भुत घटना थी। एक ओर अनेक षड्यन्त्र रचे जा रहे थे और वहीं 84 वर्षीय श्रद्धेया श्रीमती देवी चौधुरानी ने अजस्र प्रशंसा करते हुए यहां तक लिखा था—इस कृति के लिए लेखक को नोबेल पुरस्कार देना चाहिए। मुझे लगा जैसे मैं इस वरदान को सहन नहीं कर सकूंगा। मैं इसके योग्य पात्र नहीं हूं। अगर यह लेख छप गया तो मेरे समकालीन लेखकों के मुंह पर ताला लग जाएगा। मैंने उक्त लेख छपने से रोक दिया।
मैंने कहा—वह लेख तो बंगला की पुस्तक में प्रकाशित है। पढ़ चुका हूं।
विमल दा ने कहा—बाद में प्रकाशक के अनुरोध पर प्रकाशनार्थ दे दिया।
बातचीत के सिलसिले में मैंने कहा—श्रीमती चौधुरानी की राय ठीक है। आपकी यह कृति सर्वश्रेष्ठ है।
विमल दा ने मुस्कराते हुए कहा—नहीं, मेरी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘मैं’ है।
इतना कहने के बाद उन्होंने मुझे ‘मैं’ नामक उपन्यास दिया। भूमिका में अनुवादक ने भी विमल दा की धारणाओं की पुष्टि की है। पर मैं विमल दा के विचारों से सहमत नहीं हो सका। मैंने अपने अनेक समकालीन साहित्यकारों और पाठकों से यही प्रश्न किया। सभी मेरे विचारों से सहमत हैं।
मेरी समझ से जिस प्रकार बंकिम बाबू ‘राजसिंह’ और ‘देवी चौधुरानी’ तथा शरत् बाबू ने अपने ‘गृहदाह’ उपन्यास को श्रेष्ठ मानते हैं, उसी प्रकार का मोह विमल दा का ‘मैं’ के प्रति है।
मेरे इस विचार को सुनने के बाद विमल दा ने कहा—मरुभूमि में यात्रा कर रहे प्यासे यात्री को एक गिलास पानी अमृतवत् लगता है, ठीक वही स्थिति आपकी है।
इस उत्तर को सुनकर मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा। हर लेखक की अपनी कमजोरी और विशेषता होती है। उसे तर्क के द्वारा झुकाया नहीं जा सकता। संभव है कि ‘साहब-बीवी-गुलाम’ के पात्रों को मैंने निकट से देखा हो या उनके पात्रों में अपना जीवन पाया हो, शायद, इसीलिए मुझे यह उपन्यास प्रिय लगा।
कलकत्ता जब कभी किसी कार्यवश जाता हूं तो एक बार विमल बाबू के यहां अवश्य जाता हूं। कलकत्ता के अधिकांश मित्र उनके परिचितों में हैं और वे तुरंत मेरे आने की सूचना विमल बाबू को दे देते हैं। जब कभी उनसे मिलने गया तब यह सूचना मिल जाती थी कि आप अमुक दिन आए हैं और अमुक के यहां ठहरे हैं।
एक बार किसी विवाह के सिलसिले में गया तो जाते ही भाभी जी ने बातचीत के सिलसिले में पूछा—आप आजकल क्या खाते हैं ?
कैंसर से पीड़ित होने के बाद मैं खाने-पीने के मामले में सावधानी बरतता हूं। भाभी का उद्देश्य क्या है, समझ नहीं सका।
तुरन्त जवाब दिया—आजकल बहुत कष्ट है, भाभीजी। आमतौर पर मैं केवल खिचड़ी या दाल-भात और बिना मिर्च की तरकारी खाता हूं। विवाह में आया हूं, पर भोजन दूसरों के यहां कर रहा हूं।
इतना कहने के बाद मैं विमल दा से बातें करने लगा। विमल दा किशोरा-वस्था में अच्छे गायक थे। इनका साहित्यिक जीवन कवि रूप में प्रारंभ हुआ था। इनके द्वारा गाए गीतों के अनेक रेकर्ड उन दिनों बाजार में बिकते थे। इसके बाद जब रेलवे की नौकरी करने गए तो वहां ऐसे अनेक ऐसे पत्र मिले जो चेहरे पर संत और सज्जनता का मुखौटा लगाए अपने आदर्श की व्याख्या करते रहे। लोग पूंजीपतियों को गाली देते हैं, पर सरकार की काजल की कोठरी में इन्सान के रूप में अनेक शैतानों को उन्होंने देखा। ऐसे अनेक पात्र उनके उपन्यासों में बिखरे हुए हैं।
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