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			 नाटक-एकाँकी >> दरिंदे दरिंदेहमीदुल्ला
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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक
    
    अ.पु. : बहुत खुश हो ?
     वि.दा. : बहुत खुश।
    अ.पु. : हाथ से चश्मे और उसके बाद टोपी का माइम करते हुए) यह चश्मा अपनी
    आँखों पर लगाओ।
    वि.दा. : देखूँ तो कैसा लगता है। (माइम)
    अ.पु. : अब तुम एक बुद्धजीवी हो।
    वि.दा. : अच्छा !
    अ. पु. : यह टोपी पहनो।
    वि. दा : (माइम) लो पहन ली।
    अ.पु. : अब तुम नेता हो।
    वि.दा. : अच्छा।
    अ.पु. : हमारे साथ आओ।
    
    (अन्य पुरुष और दार्शनिक उसके पीछे चलता
    है। दोनों मंच पर रखी कुरसियों के पास आते हैं। अन्य पुरुष दार्शनिक को
    कुरसी पर चढ़ने का इशारा करते हैं। दार्शनिक कुरसी पर खड़ा हो जाता है।)
    
    यहाँ एक भाषण दो !
    वि.दा. : (भाषण देने की मुद्रा में) देवियो और सज्जनो !
    
     (अन्य पुरुष ताली बजाता है। फिर
    दार्शनिक मंच की दूसरी ओर आकर स्टूल पर खड़ा हो जाता है। अन्य पुरुष उसके
    पीछे-पीछे चलता है।)
    
     देवियो और सज्जनो !
    (अन्य पुरुष ताली बजाता है। दार्शनिक
    अभिवादन स्वीकार करता हुआ मंच के बीच चौकी पर आकर खड़ा हो जाता है और ऐसे
    व्यवहार करता है मानो अभी-अभी उसने अपना भाषण समाप्त किया हो। अन्य पुरुष
    ताली बजाता है।
    
    अ.पु. : अब तुम महान हो। इस रातों-रात के परिवर्तन पर ज़ोर से हँसो !
    वि.दा. : नहीं। अब हम सिर्फ़ मुसकरा भर सकते हैं एक हलकी मधुर मुसकान, जो
    हमारी इस महानता की परिचायक है।
    अ. पु. : (फोटो लेने की माइम करता है) स्माइल प्लीज़।
        (एक के बाद एक, दोनों ओर से पुरुष,
    स्त्री, अन्य स्त्री का प्रवेश। फोटो लेने का माइम करते हैं। दार्शनिक
    चौकी पर खड़ा चारो तरफ़ घूम जाता है। सभी पात्र उसके इर्द-गिर्द दो-तीन
    चक्कर घेरे में लगाते हैं।)
    पुरुष : स्माइल प्लीज़।
    स्त्री. : जऱा-सा मुस्कराइये।
    अ.    स्त्री : जस्ट ए मिनट ! ओ. के. थैंक्यू।
    
    (दार्शनिक को छोड़कर सभी विंग्स में वापस
    चले जाते हैं। दार्शनिक जो अभी तक चौकी पर चारों ओर घूम रहा होता है,
    ‘स्माइल प्लीज़’ आदि की आवाज़ों के अचानक बन्द हो
    जाने से दर्शकों की ओर मुँह करके खड़ा रह जाता है। इधर-उधर लोगों को देखता
    है, जो उसे अकेला छोड़कर चले गये हैं। दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता। वह
    चौकी से नीचे उतरकर मंच पर बायीं ओर कुरसियों के पास नीचे बैठकर रोने लगता
    है। स्त्री का प्रवेश।)
    स्त्री : अरे, तुम इस तरह क्यों रो रहे हो ?
    वि.दा. : तुमने मुझे नहीं पहचाना ? मैं अपनी पूर्व स्थिति में आ गया हूँ।
    स्त्री : पूर्व स्थिति ?
    वि.दा. : हाँ। अब मैं बेकार हूँ।
    स्त्री : ओह। तो तुम्हारे पास कार नहीं रही।
    वि.दा. : हाँ। अब मुझे चरस नहीं मिलता गाँजा नहीं मिलता। लड़की नहीं
    मिलती। शराब नहीं मिलती।
    स्त्री : तुम्हें शराब चाहिए ?
    वि. दा. : हाँ। चाहिए।
    स्त्री : हमारे साथ चलो।
    वि.दा. : कहाँ ?
    स्त्री : शराब बन्दी आन्दोलन करेंगे।
    वि.दा. : कब ?
    स्त्री : दिन में।
    वि.दा. : शराब कब मिलेगी ?
    स्त्री : रात में।
    वि.दा. : चलो।
    स्त्री : चलो।
        
    (दार्शनिक स्त्री के पीछे विंग्स की तरफ़ जाता है। स्त्री का प्रस्थान।
    दार्शनिक लौटकर मंच पर आता है। फिर मंच के ऊपरी हिस्से में सिर पकड़ बैठ
    जाता है।)
    
    वि.दा. : खाली पीने से पेट नहीं भरता।
        
    (अन्य स्त्री का बायीं विंग्स के पहले हिस्से से प्रवेश।)
    
    अ. स्त्री : खाली हो ?
     वि.दा.: हाँ। 
    
        (पुरुष का बायीं विंग्स के दूसरे हिस्से
    से प्रवेश।)
    
    पुरुष : ज़रूरतमंद हो ?
    वि.दा : हाँ।
    
        (स्त्री का दायीं विंग्स के दूसरे हिस्से
    से प्रवेश)
    
    स्त्री : किसका इन्तज़ार है ?
    वि.दा : ज़रूरतमंद का।
        
    (अन्य पुरुष का दायीं विंग्स के पहले हिस्से से प्रवेश।)
    
    अ.पु. : मैं एक ज़रूरतमंद हूँ। मेरे साथ आओ।
        
    (चारों पात्र दार्शनिक को चारो ओर से घेर लेते हैं।)
    			
						
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