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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

   

2

 
सुशीला बैठी थी। तभी एक पड़ोसिन ने आकर कहा, “तुम ही कविराइ बिहारी की घरवाली हो?"
पड़ोसिन और अपरिचिता! यह कैसे जानती है? शंका से उसका मन दहल गया। बोली, "हां, क्यों?"
"हां, हां," पड़ोसिन ने पास बैठते हुए कहा, "तो इतना घबराती क्यों हो? तुम तो बहुत बड़े आदमी की घरवाली ठहरीं।"
सुशीला समझी नहीं।
"शाहज़ादा खुर्रम तो बड़े खुश हुए उनकी कविता सुनकर!"
शाहज़ादा कुछ करे, उसकी खबर बिजली की तरह कौंध गई थी।
"बड़े भाग, दूधो नहाओ, पूतो फलो, का आशीर्वाद देकर वह चली गई।
परन्तु सुशीला का मन अब कल्पना-लोक में डूब गया। शाहज़ादा प्रसन्न हुआ!
कैसे? वह मन-ही-मन बिलबिला उठी कि उसने उस स्त्री से सब कुछ विस्तार से क्यों नहीं पूछा। न जाने उसको तब क्या हो गया था! क्या वह इतने बड़े व्यक्ति की पत्नी है?
उसे अपने ऊपर विश्वास नहीं हुआ। क्या यह हो सकता है? एक-एक करके अपनी मुसीबत के दिन उसकी आंखों के सामने से फिर गुजर गए। मायके में एक-एक चीज के लिए कैसे हाथ पसारना पड़ता था। कैसे खुशामदें करनी पड़ती थीं। पर यह सब क्या सच है?

वह उठी। उसने पति के कागज देखे। कविताएं पढ़ीं। आज उसे वे अक्षर असाधारण प्रतीत हुए। एक दिन बिहारी ने कहा था, 'मेरे पास यही है सुशीला। इसे अक्षर कहते हैं। अक्षर वह है जो कभी नष्ट नहीं होता। मैं दुनिया के किसी व्यवसाय में नहीं हूं, मेरे पास कोई भी अधिकार नहीं है। किसी का भी काम मेरे बिना रुका नहीं रहता। किन्तु मेरे पास जो है, वह कोई सीखकर नहीं कर सकता। यह दैवी धन है। मैं लिखता हूं, मुझे सुख होता है। क्या मैं इसे छोड़ दूं? सचमुच, इस दरिद्रता से तो सब कुछ छोड़ देना ही अच्छा है। मैं तुम्हारा दर्द नहीं देख सकता।

तब सुशीला ने आंखों में आंसू भरकर कहा था, "तुम्हें जिसमें सुख होता है, वही मेरा भी सुख है। मैं जानती हूं कि कविता करना बहुत ही कठिन काम है। मैं तुम्हारे रास्ते में अड़चन बनकर नहीं रहना चाहती। तुम वही करो जिसमें तुम्हें सुख मिलता हो।'

बिहारी ने उसे कितनी कृतज्ञ आंखों से देखा था।
उसे यह भी ज्ञात नहीं हुआ कि कब उसका पति भीतर आ गया।
उसने केवल सुना, “सुशीला!"
वही स्वर! वह चौंक उठी।
"कौन?"
"मैं आ गया हूं।"
उसके स्वर में कितना हर्ष था।
द्वार पर खड़ी हुई तो पहली दृष्टि पड़ी-मोतियों के भारी हार पर। पंचलड़ी!
चमकते मोती पानीदार! बड़े-बड़े। लाखों से कम के क्या होंगे?
वह ठिठकी खड़ी रह गई।
बिहारी ने बढ़कर हाथ पकड़ लिए। आज वह ऐसे सकुच गई, जैसे वह कोई बहुत छोटी चीज थी जो किसी महान के सामने आ गई थी।
बिहारी ने उसे अपने वक्ष से लगाकर कहा, “आज कष्टों का अन्त हो गया सुशील!"

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