हास्य-व्यंग्य >> सब से बड़ा सत्य सब से बड़ा सत्यनरेन्द्र कोहली
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नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य, न केवल बहुत गहरी मार मारने वाले हैं बल्कि इस विधा में बिल्कुल नई जमीन भी तोड़ते हैं-
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आयोग
चोर ने खिड़की की शलाकाएं काटीं और शीशा तोड़ कर कमरे में घुस गया। सामने
एक व्यक्ति पड़ा सो रहा था। आसपास कोई नहीं था। उसकी पत्नी उसके निकट कहीं
नहीं थी। कमरे में एक ही पलंग था, जिसका अर्थ था कि पति-पत्नी अलग-अलग
कमरों में सोते थे। उनमें कोई मतभेद रहा होगा।
चोर ने सोचा, अच्छा अवसर है। वह कुछ भी चुरा सकता था। कुछ भी....जो कुछ दृष्टि के सम्मुख था, उनमें से कुछ भी उठाया जा सकता था। आज भूल हो गई थी, वह अपने साथ ट्रक या टैंपो जैसी कोई सवारी नहीं लाया था, नहीं तो इस घर का सारा सामान, यहां तक कि इस व्यक्ति समेत इसका पलंग भी वह उठाकर ले जा सकता था।
उसने टी.वी. उठा लिया। पर अंधेरे में पलंग के ही एक पाए से ठोकर लग गई। सोया हुआ आदमी हिला। चोर ने निकट से देखा, वह हिला ही था, अभी जागा नहीं था। फिर भी चोर को क्रोध आ गया। वह हिला क्यों ? उसे नहीं मालूम कि घर के लोग इस प्रकर हिलते-डुलते रहें तो चोरों की एकाग्रता भंग होती है। किसी की साधना को इस प्रकार बाधित करना कोई न्याय है क्या ?....
चोर ने अपने क्रोध को बहलाना चाहा किंतु वह नहीं बहला। क्रोध साधारण क्रोध नहीं था, कलयुगी क्रोध था। रक्तबीज के समान बढ़ता गया।
चोर ने एक शलाका उठा ली और सोए व्यक्ति को जोर से दे मारी। यह भी नहीं देखा कि उसका सिर-मुंह किधर था। उसका सिर तो नहीं फट जाएगा। वह मर तो नहीं जाएगा।...मर जाएगा तो मर जाए साला, पर वह हिला क्यों ?
वह व्यक्ति मरा नहीं। इस बार जोर से हिला। संयोग से शलाका की चोट तकिए पर पड़ी थी और उससे व्यक्ति की नींद उचट गई थी। उसने खतरे को भांप लिया था और वह उचक कर खड़ा हो गया था।
चोर ने चाकू निकाला। अच्छा था कि वह व्यक्ति को समाप्त ही कर डाले। फिर आराम से सुबह तक चीज़ें बटोरता और बांधता रहेगा।
पर व्यक्ति भी कुछ कम नहीं था। उसने चोर के हाथ में चाकू देखा, तो तकिए के नीचे से पिस्तौल निकाल ली। चोर जब तक उस पर वार करता, उसने गोली चला दी थी। गोली चोर के पैर में लगी। व्यक्ति ने गोली पैर में ही मारी थी। चोर भूमि पर गिर पड़ा था। चोर के हाथ से चाकू खिसक गया और वह अपना पैर पकड़ कर बैठ गया। व्यक्ति ने आवाज़ें देकर घर के अन्य लोगों को भी बुला लिया और रस्सी मंगा ली। चोर के हाथ-पैर बांध दिए गए।
‘‘अरे, पुलिस को तो बुलाओ।’’ व्यक्ति की पत्नी ने कहा।
‘‘पुलिस क्या करेगी ?’’ व्यक्ति झल्लाया, ‘‘मैंने उसे पकड़ लिया है और उसे बांध भी दिया है। अब पुलिस का अचार डालना है क्या ?’’
‘‘तो उसे जेल में तुम ही रखोगे ?’’ पत्नी झल्लाई, ‘‘तुम्हारे पास जेल है क्या ? अपने तकिए के नीचे तो नहीं छुपा रखी ?’’
‘‘यह घर जेल ही तो है।’’ व्यक्ति बोला, ‘‘तुमने आज तक मुझे बंदी ही तो बना रखा है।’’
पत्नी का मूड बिगड़ गया, ‘‘स्वयं ही तो कहा करते थे कि तुम मेरी अलकों के बंदी बने रहना चाहते हो और अब रात को जगाकर बकवास कर रहे हो। सारी यही सब सुना है मैंने, पर आज नहीं सुनूंगी।’’ वह रुकी और फिर झपट कर उसने दुगने वेग से आक्रमण किया, ‘‘पुलिस बुलाओगे या चप्पल उठाऊं ?’’
व्यक्ति ने फोन कर दिया और चकित खड़ा रह गया, क्योंकि पुलिस सचमुच आ गई। इंस्पैक्टर ने चोर को उसके कालर से पकड़ा तो चोर दहाड़ उठा, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ लगाया।’’
‘‘तो पांव लगाएं ?’’ इंस्पैक्टर ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।
‘‘नहीं ! कोई आवश्यकता नहीं।’’ चोर ने खड़े होने का प्रयत्न किया, ‘‘मैं जा रहा हूं, मानवा आयोग में तुम्हारी शिकायत करुंगा।’’
‘‘थाने नहीं चलोगे ?’’ इंस्पैक्टर ने रोक कर पूछा।
‘‘नहीं ! मानवाधाकिर आयोग में जाऊंगा।’’ चोर ने कहा।
‘‘क्यों ? वहां क्या है ? तुम कोई खास चीज़ हो कि थाने न जाकर मानवाधिकार आयोग जाओगे ?’’
‘‘हां ! मैं मानव हूं। मानव के कुछ अधिकार होते हैं, और उनकी रक्षा के लिए सरकार ने एक आयोग बनाया है। वह इसलिए नहीं बनाया गया कि वहां उल्लू बोलते रहें। वह बना है कि हम जैसे मानव वहां जाएं और वह हमारी रक्षा करे। वह कवच है हमारा।’’
‘‘क्या कारण है तुम्हारा वहां जाने का ? मानव तो यह भी है।’’ इंस्पैक्टर ने कहा। इसने मुझे गोली मारी है। मेरे साथ, एक मानव के साथ अमानवीय व्यवहार किया है। अब पुलिस इसका साथ देगी तो, तो मैं पुलिस की भी शिकायत करूंगा और अपनी गवाही के लिए डॉक्टर को बुला लूंगा।’’
पुलिस इंस्पैक्टर डर गया, ‘‘चलो, तुम्हें अस्पताल ले चलें। मरहम-पट्टी तो करवा लो।’’
‘‘नहीं ! नहीं जाऊंगा अस्पताल। तुम मामले को रफा-दफा करना चाहते हो।’’
‘‘तो चल, तुझे मानवाधाकिर आयोग ही ले चलूं।’’ इंस्पैक्टर को भी क्रोध आ गया, ‘‘मैं तुम्हें भागने नहीं दूंगा।’’
चोर ने मानवाधिकार आयोग में, एक शांतिप्रिय नागरिक द्वारा अपने मानवीय अधिकारों के हनन की शिकायत कर दी।
‘‘तुम इनके घर में क्यों घुसे थे ?’’ आयुक्त ने चोर से पूछा।
‘‘चोरी करने और यदि चोरी न करने दे तो इसकी हत्या करने।’’
‘‘क्यों ? हत्या करना तो अपराध है।’’ आयुक्त ने चोर से कहा।
‘‘होगा, किंतु यह प्रतिदिन अपनी पत्नी से मार खाता था। मुझसे इसकी पीड़ा देखी नहीं जाती थी। मैं इसे इसके यातनामय जीवन से मुक्ति दिलाना चाहता था।’’ चोर बोला, ‘‘मैं इसका शुभचिंतक हूं। मैं मानवता का त्राता हूं।’’
‘‘आपकी पत्नी आपको रोज पीटती थी ?’’ आयुक्त ने व्यक्ति से पूछा।
‘‘जी !’’
‘‘क्यों पीटती थी ?’’
‘‘जी ! हम दोनों में कुछ मतभेद हैं।’’
‘‘कैसे मतभेद, जो मारपीट तक जा पहुंचते हैं ?’’
‘‘जी ! वह ज़रा गंभीर विचारों की है। हर बात को बहुत गंभीरता से ग्रहण करती है।’’
‘‘और आप ?’’
‘‘मैं कुछ हल्का-फुल्का, विनोदी आदमी हूं। जीवन को कभी मैंने उस प्रकार गंभीर दृष्टि से नहीं देखा।’’
‘‘यह क्या मतभेद हुआ ?’’
‘‘जी ! इससे अधिक मुंह खोलूंगा, तो नारी अधिकारों का हनन हो जाएगा और नारी आंदोलन की सदस्याएं, मुझे भरे बाजार में जूते से मारेंगी।’’
‘‘तो आपने प्रतिकार क्यों नहीं किया ?’’
‘‘जी ! प्रतिकार करता तो वह महिला आयोग में चली जाती।’’
‘‘तो आप मार खाते रहे ?’’
‘‘तो आप क्या करते हैं ? आपकी पत्नी आपको मारती नहीं, या धिक्कारती नहीं, या अपमानित नहीं करती ? आपने कभी प्रतिकार किया ?’’
‘‘बात तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की है।’’ आयुक्त ने बुरा-सा मुंह बनाया, ‘‘मुझे क्यों बीच में घसीटते हो ?’’
‘‘मैंने उदाहरण दिया है, श्रीमन् !’’
‘‘ऐसे घटिया उदाहरण मत दिया करो, इससे मानव के अधिकारों का हनन होता है।’’ आयुक्त बोले, ‘‘तो तुम अपना दोष स्वीकार करते हो। तुम पर दोहरे आरोप हैं।’’
‘‘जी ! क्या-क्या ?’’
‘‘तुम अपने पत्नी से पिटते रहे और कुछ नहीं बोले। उससे मानव के अधिकारों का हनन हुआ।’’ आयुक्त ने कहा, ‘‘दूसरा, तुमने अपने घर में तुम्हारी हत्या के उद्देश्य से घुस आए इस चोर को गोली मारी। चोरों और हत्यारों के साथ ऐसा अमानवीय दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए।’’
‘‘जी सरकार ! माई बाप !’’
‘‘अपना अपराध स्वीकार करते हो ?’’
‘‘जी ! माई बाप। स्वीकार करता हूं।’’
‘‘तो फिर उसका दंड भी स्वीकार करो।’’ आयुक्त उसका दंड लिखने में व्यस्त हो गए।
चोर ने सोचा, अच्छा अवसर है। वह कुछ भी चुरा सकता था। कुछ भी....जो कुछ दृष्टि के सम्मुख था, उनमें से कुछ भी उठाया जा सकता था। आज भूल हो गई थी, वह अपने साथ ट्रक या टैंपो जैसी कोई सवारी नहीं लाया था, नहीं तो इस घर का सारा सामान, यहां तक कि इस व्यक्ति समेत इसका पलंग भी वह उठाकर ले जा सकता था।
उसने टी.वी. उठा लिया। पर अंधेरे में पलंग के ही एक पाए से ठोकर लग गई। सोया हुआ आदमी हिला। चोर ने निकट से देखा, वह हिला ही था, अभी जागा नहीं था। फिर भी चोर को क्रोध आ गया। वह हिला क्यों ? उसे नहीं मालूम कि घर के लोग इस प्रकर हिलते-डुलते रहें तो चोरों की एकाग्रता भंग होती है। किसी की साधना को इस प्रकार बाधित करना कोई न्याय है क्या ?....
चोर ने अपने क्रोध को बहलाना चाहा किंतु वह नहीं बहला। क्रोध साधारण क्रोध नहीं था, कलयुगी क्रोध था। रक्तबीज के समान बढ़ता गया।
चोर ने एक शलाका उठा ली और सोए व्यक्ति को जोर से दे मारी। यह भी नहीं देखा कि उसका सिर-मुंह किधर था। उसका सिर तो नहीं फट जाएगा। वह मर तो नहीं जाएगा।...मर जाएगा तो मर जाए साला, पर वह हिला क्यों ?
वह व्यक्ति मरा नहीं। इस बार जोर से हिला। संयोग से शलाका की चोट तकिए पर पड़ी थी और उससे व्यक्ति की नींद उचट गई थी। उसने खतरे को भांप लिया था और वह उचक कर खड़ा हो गया था।
चोर ने चाकू निकाला। अच्छा था कि वह व्यक्ति को समाप्त ही कर डाले। फिर आराम से सुबह तक चीज़ें बटोरता और बांधता रहेगा।
पर व्यक्ति भी कुछ कम नहीं था। उसने चोर के हाथ में चाकू देखा, तो तकिए के नीचे से पिस्तौल निकाल ली। चोर जब तक उस पर वार करता, उसने गोली चला दी थी। गोली चोर के पैर में लगी। व्यक्ति ने गोली पैर में ही मारी थी। चोर भूमि पर गिर पड़ा था। चोर के हाथ से चाकू खिसक गया और वह अपना पैर पकड़ कर बैठ गया। व्यक्ति ने आवाज़ें देकर घर के अन्य लोगों को भी बुला लिया और रस्सी मंगा ली। चोर के हाथ-पैर बांध दिए गए।
‘‘अरे, पुलिस को तो बुलाओ।’’ व्यक्ति की पत्नी ने कहा।
‘‘पुलिस क्या करेगी ?’’ व्यक्ति झल्लाया, ‘‘मैंने उसे पकड़ लिया है और उसे बांध भी दिया है। अब पुलिस का अचार डालना है क्या ?’’
‘‘तो उसे जेल में तुम ही रखोगे ?’’ पत्नी झल्लाई, ‘‘तुम्हारे पास जेल है क्या ? अपने तकिए के नीचे तो नहीं छुपा रखी ?’’
‘‘यह घर जेल ही तो है।’’ व्यक्ति बोला, ‘‘तुमने आज तक मुझे बंदी ही तो बना रखा है।’’
पत्नी का मूड बिगड़ गया, ‘‘स्वयं ही तो कहा करते थे कि तुम मेरी अलकों के बंदी बने रहना चाहते हो और अब रात को जगाकर बकवास कर रहे हो। सारी यही सब सुना है मैंने, पर आज नहीं सुनूंगी।’’ वह रुकी और फिर झपट कर उसने दुगने वेग से आक्रमण किया, ‘‘पुलिस बुलाओगे या चप्पल उठाऊं ?’’
व्यक्ति ने फोन कर दिया और चकित खड़ा रह गया, क्योंकि पुलिस सचमुच आ गई। इंस्पैक्टर ने चोर को उसके कालर से पकड़ा तो चोर दहाड़ उठा, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ लगाया।’’
‘‘तो पांव लगाएं ?’’ इंस्पैक्टर ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।
‘‘नहीं ! कोई आवश्यकता नहीं।’’ चोर ने खड़े होने का प्रयत्न किया, ‘‘मैं जा रहा हूं, मानवा आयोग में तुम्हारी शिकायत करुंगा।’’
‘‘थाने नहीं चलोगे ?’’ इंस्पैक्टर ने रोक कर पूछा।
‘‘नहीं ! मानवाधाकिर आयोग में जाऊंगा।’’ चोर ने कहा।
‘‘क्यों ? वहां क्या है ? तुम कोई खास चीज़ हो कि थाने न जाकर मानवाधिकार आयोग जाओगे ?’’
‘‘हां ! मैं मानव हूं। मानव के कुछ अधिकार होते हैं, और उनकी रक्षा के लिए सरकार ने एक आयोग बनाया है। वह इसलिए नहीं बनाया गया कि वहां उल्लू बोलते रहें। वह बना है कि हम जैसे मानव वहां जाएं और वह हमारी रक्षा करे। वह कवच है हमारा।’’
‘‘क्या कारण है तुम्हारा वहां जाने का ? मानव तो यह भी है।’’ इंस्पैक्टर ने कहा। इसने मुझे गोली मारी है। मेरे साथ, एक मानव के साथ अमानवीय व्यवहार किया है। अब पुलिस इसका साथ देगी तो, तो मैं पुलिस की भी शिकायत करूंगा और अपनी गवाही के लिए डॉक्टर को बुला लूंगा।’’
पुलिस इंस्पैक्टर डर गया, ‘‘चलो, तुम्हें अस्पताल ले चलें। मरहम-पट्टी तो करवा लो।’’
‘‘नहीं ! नहीं जाऊंगा अस्पताल। तुम मामले को रफा-दफा करना चाहते हो।’’
‘‘तो चल, तुझे मानवाधाकिर आयोग ही ले चलूं।’’ इंस्पैक्टर को भी क्रोध आ गया, ‘‘मैं तुम्हें भागने नहीं दूंगा।’’
चोर ने मानवाधिकार आयोग में, एक शांतिप्रिय नागरिक द्वारा अपने मानवीय अधिकारों के हनन की शिकायत कर दी।
‘‘तुम इनके घर में क्यों घुसे थे ?’’ आयुक्त ने चोर से पूछा।
‘‘चोरी करने और यदि चोरी न करने दे तो इसकी हत्या करने।’’
‘‘क्यों ? हत्या करना तो अपराध है।’’ आयुक्त ने चोर से कहा।
‘‘होगा, किंतु यह प्रतिदिन अपनी पत्नी से मार खाता था। मुझसे इसकी पीड़ा देखी नहीं जाती थी। मैं इसे इसके यातनामय जीवन से मुक्ति दिलाना चाहता था।’’ चोर बोला, ‘‘मैं इसका शुभचिंतक हूं। मैं मानवता का त्राता हूं।’’
‘‘आपकी पत्नी आपको रोज पीटती थी ?’’ आयुक्त ने व्यक्ति से पूछा।
‘‘जी !’’
‘‘क्यों पीटती थी ?’’
‘‘जी ! हम दोनों में कुछ मतभेद हैं।’’
‘‘कैसे मतभेद, जो मारपीट तक जा पहुंचते हैं ?’’
‘‘जी ! वह ज़रा गंभीर विचारों की है। हर बात को बहुत गंभीरता से ग्रहण करती है।’’
‘‘और आप ?’’
‘‘मैं कुछ हल्का-फुल्का, विनोदी आदमी हूं। जीवन को कभी मैंने उस प्रकार गंभीर दृष्टि से नहीं देखा।’’
‘‘यह क्या मतभेद हुआ ?’’
‘‘जी ! इससे अधिक मुंह खोलूंगा, तो नारी अधिकारों का हनन हो जाएगा और नारी आंदोलन की सदस्याएं, मुझे भरे बाजार में जूते से मारेंगी।’’
‘‘तो आपने प्रतिकार क्यों नहीं किया ?’’
‘‘जी ! प्रतिकार करता तो वह महिला आयोग में चली जाती।’’
‘‘तो आप मार खाते रहे ?’’
‘‘तो आप क्या करते हैं ? आपकी पत्नी आपको मारती नहीं, या धिक्कारती नहीं, या अपमानित नहीं करती ? आपने कभी प्रतिकार किया ?’’
‘‘बात तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की है।’’ आयुक्त ने बुरा-सा मुंह बनाया, ‘‘मुझे क्यों बीच में घसीटते हो ?’’
‘‘मैंने उदाहरण दिया है, श्रीमन् !’’
‘‘ऐसे घटिया उदाहरण मत दिया करो, इससे मानव के अधिकारों का हनन होता है।’’ आयुक्त बोले, ‘‘तो तुम अपना दोष स्वीकार करते हो। तुम पर दोहरे आरोप हैं।’’
‘‘जी ! क्या-क्या ?’’
‘‘तुम अपने पत्नी से पिटते रहे और कुछ नहीं बोले। उससे मानव के अधिकारों का हनन हुआ।’’ आयुक्त ने कहा, ‘‘दूसरा, तुमने अपने घर में तुम्हारी हत्या के उद्देश्य से घुस आए इस चोर को गोली मारी। चोरों और हत्यारों के साथ ऐसा अमानवीय दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए।’’
‘‘जी सरकार ! माई बाप !’’
‘‘अपना अपराध स्वीकार करते हो ?’’
‘‘जी ! माई बाप। स्वीकार करता हूं।’’
‘‘तो फिर उसका दंड भी स्वीकार करो।’’ आयुक्त उसका दंड लिखने में व्यस्त हो गए।
(28-11-2002)
अभिव्यक्ति
‘‘इस देश का क्या होगा ?’’
रामभुलाया बहुत घबराया हुआ था।
मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि वह तो छिपकली के दीवार से गिर जाने पर भी ऐसा घबराता था, जैसे आकाश ही धरती पर आ गिरा हो। फिर भी मैंने पूछ लिया, ‘‘क्यों, क्या हो गया ?’’
‘‘अरे, यहां कोई फिल्म नहीं बन सकेगी। किसी नाटक का मंचन नहीं हो पाएगा। कोई साहित्यिक रचना नहीं हो पाएगी।’’
मैं भी डर गया ! वह कैसा देश होगा जिसमें सृजन नहीं हो पाएगा ?
‘‘पर तुम यह भविष्यवाणी कैसे कर सकते हो ?’’
‘‘अरे वे लोग एक फिल्म की शूटिंग नहीं होने दे रहे।’’ वह बोला।
‘‘कौन लोग ?’’
‘‘वे ही जो सब जगह दंगा करते हैं।’’
‘‘उसका नाम लेने से तुम्हारा मुंह अपवित्र हो जाएगा ?’’
‘‘हां !’’
‘‘क्या वे विदेशी, भाड़े के आतंकवादियों से भी बुरे हैं ? आतंकवादी संगठनों का नाम लेने से तो तुम्हारा मुंह अपवित्र नहीं होता।’’ मैंने कहा।
‘‘वह सब छोड़ो।’’ रामलुभाया बोला, ‘‘समझ लो ये ही संघ वाले।’’
‘‘पता नहीं, वे संघ वाले हैं भी या नहीं, क्यों तुम्हें सारी बुराइयों के मूल में संघ वाले ही देखने का रोग है।’’ मैंने कहा, ‘‘किंतु वे फिल्म की शूटिंग क्यों नहीं होने दे रहे हैं ?’’
‘‘कहते हैं उस फिल्म् के माध्यम से हिंदू धर्म का अपमान किया जा रहा है।’’
रामभुलाया बोला।
‘‘तो यह कहो कि वे लोग हिंदू धर्म का अपमान करने की अनुमति नहीं दे रहे।’’ मैंने कहा, ‘‘फिल्म से उनका क्या विरोध है।’’
‘‘वही सही।’’ रामभुलाया बोला, ‘‘पर यह ठीक नहीं है’’
‘‘तुम कहना चाहते हो कि हिंदू धर्म का अपमान करने की अनुमति दी जानी चाहिए ?’’
‘‘आज तक तो दे रहे थे।’’ वह ठंडी सांस भर कर बोला, ‘‘यह तो हमारी परंपरा है। हम उस परंपरा का विरोध कैसे कर सकते हैं। ऐसे तो हमारी कोई परंपरा जीवित ही नहीं बचेगी।’’
‘‘जूते खाने की परंपरा कोई परंपरा नहीं होती—रामभुलाया !’’ मैंने कहा, ‘‘वह दुर्बलता होती है और उससे जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए, उतना ही अच्छा।’’
‘‘पर उससे अभिव्यक्ति का संकट तो हो जाएगा न।’’ वह तड़पकर बोला।
‘‘तुम किसी का अपमान न कर सको तो तुम्हारी अभिव्यक्ति का संकट हो जाता है ?’’ मैं चकित दृष्टि से उसे देखता रहा, ‘‘अर्थात् तुम्हारे पास कहने को और कुछ है ही नहीं।’’
‘‘पर ये सब सामाजिक बुराइयां हैं।’’ वह बोली, ‘‘उनका चित्रण तो होना ही चाहिए।’’
‘‘सामाजिक बुराइयों का तो कोई विरोध नहीं करता।’’ मैंने कहा, ‘‘हमारी सारी फिल्मों में सामाजिक बुराइयों को उजागर किया जाता है। पर तुम सामाजिक बुराइयों के कारण धर्म और संस्कृति का अपमान करने की अनुमति मांग रहे हो। उसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।’’
‘‘पर धर्म में वे बुराइयां हैं। आज भी हैं।’’
‘‘हिंदू धर्म तो वही था, जिसमें ईसाई पादरी रोज दोषदर्शन कर रहे थे और उनको सुनकर माइकल मधुसूदन दत्त जैसे विद्वान व्यक्ति ईसाई हो गए थे।’’ मैंने कहा, ‘‘और वही हिंदू धर्म था, जिसके स्वरूप का बखान कर स्वामी विवेकानन्द ने सारे विश्व में इस धर्म के श्रेष्ठ होने का डंका पीट दिया था। यह तो देखने वाले की दृष्टि का अंतर है।
तुम बुद्धि का प्रयोग करो। दुर्बुद्धि का प्रयोग कर दोषदर्शन क्यों करते हो ?’’
‘‘आज बहुत शेर बने हो,’’ उसने फूत्कार किया, ‘‘कल जब तुम्हारी भी किसी रचना पर दंगा होगा तो क्या करोगे ? उनको आदत पड़ गई तो वे किसी को नहीं छोड़ेंगे।’’
मुझे एक पुरानी घटना याद हो आई। हमारे कॉलेज में एक अध्यापक आठ वर्षों से नहीं आ रहे थे। उन्होंने कहीं और नौकरी कर ली थी किंतु कॉलेज से त्यागपत्र वे देना नहीं चाहते थे। आठ वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात अंत में हार कर कॉलेज की प्रबंध समिति ने उनकी नौकरी समाप्त करने का निश्चय किया। हमारे एक सहयोगी बहुत तड़प रहे थे और चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे, ‘‘प्रबंध समिति को कोई अधिकार नहीं है कि वे किसी की नौकरी समाप्त करें। वे आज उसकी नौकरी समाप्त कर रहे हैं, उन्हें अधिकार मिल गया तो कल वे तुम्हारी नौकरी भी समाप्त कर देंगे।’’
मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि वह तो छिपकली के दीवार से गिर जाने पर भी ऐसा घबराता था, जैसे आकाश ही धरती पर आ गिरा हो। फिर भी मैंने पूछ लिया, ‘‘क्यों, क्या हो गया ?’’
‘‘अरे, यहां कोई फिल्म नहीं बन सकेगी। किसी नाटक का मंचन नहीं हो पाएगा। कोई साहित्यिक रचना नहीं हो पाएगी।’’
मैं भी डर गया ! वह कैसा देश होगा जिसमें सृजन नहीं हो पाएगा ?
‘‘पर तुम यह भविष्यवाणी कैसे कर सकते हो ?’’
‘‘अरे वे लोग एक फिल्म की शूटिंग नहीं होने दे रहे।’’ वह बोला।
‘‘कौन लोग ?’’
‘‘वे ही जो सब जगह दंगा करते हैं।’’
‘‘उसका नाम लेने से तुम्हारा मुंह अपवित्र हो जाएगा ?’’
‘‘हां !’’
‘‘क्या वे विदेशी, भाड़े के आतंकवादियों से भी बुरे हैं ? आतंकवादी संगठनों का नाम लेने से तो तुम्हारा मुंह अपवित्र नहीं होता।’’ मैंने कहा।
‘‘वह सब छोड़ो।’’ रामलुभाया बोला, ‘‘समझ लो ये ही संघ वाले।’’
‘‘पता नहीं, वे संघ वाले हैं भी या नहीं, क्यों तुम्हें सारी बुराइयों के मूल में संघ वाले ही देखने का रोग है।’’ मैंने कहा, ‘‘किंतु वे फिल्म की शूटिंग क्यों नहीं होने दे रहे हैं ?’’
‘‘कहते हैं उस फिल्म् के माध्यम से हिंदू धर्म का अपमान किया जा रहा है।’’
रामभुलाया बोला।
‘‘तो यह कहो कि वे लोग हिंदू धर्म का अपमान करने की अनुमति नहीं दे रहे।’’ मैंने कहा, ‘‘फिल्म से उनका क्या विरोध है।’’
‘‘वही सही।’’ रामभुलाया बोला, ‘‘पर यह ठीक नहीं है’’
‘‘तुम कहना चाहते हो कि हिंदू धर्म का अपमान करने की अनुमति दी जानी चाहिए ?’’
‘‘आज तक तो दे रहे थे।’’ वह ठंडी सांस भर कर बोला, ‘‘यह तो हमारी परंपरा है। हम उस परंपरा का विरोध कैसे कर सकते हैं। ऐसे तो हमारी कोई परंपरा जीवित ही नहीं बचेगी।’’
‘‘जूते खाने की परंपरा कोई परंपरा नहीं होती—रामभुलाया !’’ मैंने कहा, ‘‘वह दुर्बलता होती है और उससे जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए, उतना ही अच्छा।’’
‘‘पर उससे अभिव्यक्ति का संकट तो हो जाएगा न।’’ वह तड़पकर बोला।
‘‘तुम किसी का अपमान न कर सको तो तुम्हारी अभिव्यक्ति का संकट हो जाता है ?’’ मैं चकित दृष्टि से उसे देखता रहा, ‘‘अर्थात् तुम्हारे पास कहने को और कुछ है ही नहीं।’’
‘‘पर ये सब सामाजिक बुराइयां हैं।’’ वह बोली, ‘‘उनका चित्रण तो होना ही चाहिए।’’
‘‘सामाजिक बुराइयों का तो कोई विरोध नहीं करता।’’ मैंने कहा, ‘‘हमारी सारी फिल्मों में सामाजिक बुराइयों को उजागर किया जाता है। पर तुम सामाजिक बुराइयों के कारण धर्म और संस्कृति का अपमान करने की अनुमति मांग रहे हो। उसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।’’
‘‘पर धर्म में वे बुराइयां हैं। आज भी हैं।’’
‘‘हिंदू धर्म तो वही था, जिसमें ईसाई पादरी रोज दोषदर्शन कर रहे थे और उनको सुनकर माइकल मधुसूदन दत्त जैसे विद्वान व्यक्ति ईसाई हो गए थे।’’ मैंने कहा, ‘‘और वही हिंदू धर्म था, जिसके स्वरूप का बखान कर स्वामी विवेकानन्द ने सारे विश्व में इस धर्म के श्रेष्ठ होने का डंका पीट दिया था। यह तो देखने वाले की दृष्टि का अंतर है।
तुम बुद्धि का प्रयोग करो। दुर्बुद्धि का प्रयोग कर दोषदर्शन क्यों करते हो ?’’
‘‘आज बहुत शेर बने हो,’’ उसने फूत्कार किया, ‘‘कल जब तुम्हारी भी किसी रचना पर दंगा होगा तो क्या करोगे ? उनको आदत पड़ गई तो वे किसी को नहीं छोड़ेंगे।’’
मुझे एक पुरानी घटना याद हो आई। हमारे कॉलेज में एक अध्यापक आठ वर्षों से नहीं आ रहे थे। उन्होंने कहीं और नौकरी कर ली थी किंतु कॉलेज से त्यागपत्र वे देना नहीं चाहते थे। आठ वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात अंत में हार कर कॉलेज की प्रबंध समिति ने उनकी नौकरी समाप्त करने का निश्चय किया। हमारे एक सहयोगी बहुत तड़प रहे थे और चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे, ‘‘प्रबंध समिति को कोई अधिकार नहीं है कि वे किसी की नौकरी समाप्त करें। वे आज उसकी नौकरी समाप्त कर रहे हैं, उन्हें अधिकार मिल गया तो कल वे तुम्हारी नौकरी भी समाप्त कर देंगे।’’
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