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लेख-निबंध >> लगता है बेकार गये हम

लगता है बेकार गये हम

कुँवर पाल सिंह

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14751
आईएसबीएन :9788170556619

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"शायरी और कथानक में, मैं हिंदी का ग़ालिब और प्रेमचंद; उर्दू सिर्फ एक लिपि है, साहित्य नहीं।"

मैं तो एक ग़ालिब की तरह हिन्दी का शायर और प्रेमचन्द की तरह हिन्दी का कथाकार हूँ। उर्दू केवल एक लिपि है। और लिपि साहित्य का आधार नहीं होती। लिपि केवल वस्त्र है। भाषा भी मनुष्य ही की तरह कपड़े पहनकर पैदा नहीं होती। चोंचले में माँएँ बच्चों को फ्राक पहना दें तो बच्चे जात के अंग्रेज़ नहीं हो जाते। पर यदि आप यह नहीं मानते और। लिपि ही को सबकुछ समझते हैं तो मलिक मुहम्मद जायसी को उर्दू का शायर मानियें क्योंकि पद्मावत फारसी लिपि में लिखी गयी थी। कुतुबन, ताज़ और उस्मान से भी हाथ धो लीजिए कि यह लोग भी देवनागरी में नहीं लिखते थे।

आत्महत्या के कई आसान तरीक़े भी हैं, तो हम गले में किसी लिपि का पत्थर बाँधकर डूबने क्यों जायें ?

मैं हिन्दी का लेखक हूँ और मैं अपनी हिन्दी उर्दू लिपि में भी लिखता हूँ और देवनागरी में भी और ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने पर, दिनकरजी मैं आपको हिन्दी के एक गुमनाम साहित्यकार की हैसियत से बधाई देता हूँ।

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