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पौराणिक कथाएँ >> सरल रामायण

सरल रामायण

सत्यकाम विद्यालंकार

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1494
आईएसबीएन :9788170283089

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प्रस्तुत है सरल रामायण...

Saral Ramayana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राम-जन्म

कई हज़ार वर्ष पूर्व की बात है। सूर्यवंश के पराक्रमी राजा दशरथ अयोध्या में राज्य करते थे। उनका यश देश-विदेश में फैला हुआ था। वे इन्द्र के समान तेजस्वी, कुबेर के सदृश्य दानी और मनु की भांति न्यायप्रिय थे। उनकी प्रजा सुखी थी। पिता की भांति वे प्रजा का पालन करते थे। प्रजा भी उनसे प्रेम करती थी।
सरयू नदी के तट पर अयोध्या नगरी में उनका राजमहल था। नगर में सुख था, वैभव था और ग़रीब-अमीर सभी संतोष से रहे थे।

किन्तु राजा दशरथ का हृदय एक दुःख से सदा व्याकुल रहता था। संतान का अभाव उनके हृदय में घोर संताप की आग बनकर जला करता था। संतान की इच्छा से उन्होंने तीन विवाह किए थे, फिर भी उन्हें पुत्र-मुख देखने का सौभाग्य नहीं मिला था। तीनों रानियों में से एक को भी संतान नहीं हुई थी।
अनेक वर्षों तक भाग्य-कृपा की प्रतीक्षा करने के बाद अन्त में महाराज ने अपने कुलगुरु ब्रह्मर्षि वसिष्ठ से कहा :
‘‘गुरुदेव ! इस जीवन में मुझे संसार का बड़े से बड़ा वैभव प्राप्त है। सम्पूर्ण प्रजा को मैं अपनी ही संतान मानता हूं, किन्तु हृदय में शांति नहीं होती। पुत्र की इच्छा हृदय को व्याकुल किए रहती है। जीवन की यात्रा बहुत पार कर चुका हूं, न जाने कब काल की पुकार आ जाए। मृत्यु से मैं डरता नहीं; किन्तु मृत्यु से पूर्व अपने पुत्र का मुख देखना चाहता हूं। इसका कोई उपाय बतलाइए।’’

गुरुदेव ने कहा, ‘‘राजन् ! चिन्ता न करो। पुरुषार्थ मनुष्य के अधीन है, फल भगवान देंगे। ईश्वर की इच्छा होगी तो तुम्हारे पुत्र अवश्य होगा। मैं यज्ञ का प्रबन्ध करता हूं; आप निराश न हों।’’
ऋषि वशिष्ठ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ की आयोजना की। महर्षि श्रृंगी को यज्ञ के लिए बुलाया गया। यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ। यज्ञ का प्रसाद रानियों को खाने के लिए दिया गया। ऋषि ने प्रसाद देते समय रानियों से कहा, ‘‘इसका श्रद्धापूर्वक सेवन करो। यज्ञ के प्रसाद की बड़ी महिमा है। विश्वास के साथ इसका सेवन करोगी तो तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा।’’
यह औषधि का फल था या विश्वास का चमत्कार कि यथासमय तीनों रानियां गर्भवती हुईं। सबसे पहले कौशल्या ने पुत्र को जन्म दिया। चौत्र शुक्लपक्ष की नवमी को श्रीराम का जन्म हुआ। कैकेयी ने भरत को जन्म दिया। सुमित्रा के दो पुत्र हुए-लक्ष्मण और शत्रुघ्न।

श्रीराम का जन्म होते ही अयोध्या में आनन्द का प्रकाश फैल गया। राजा दशरथ के हृदय का अन्धकार दूर हो गया। कहते हैं कि उस समय सूर्य का रथ मानो अस्ताचल की ओर जाना भूल गया। अयोध्या में एक मास तक निरन्तर आमोद-प्रमोद होते रहे। चारों तेजस्वी बालक चन्द्रकला की भांति बढ़ने लगे। अयोध्या का राजमहल उनकी किलकारियों से गूंज उठा। यथासमय उनका यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ और गुरुदेव की देख-रेख में उनकी शिक्षा हुई। विद्याभ्यास के साथ अस्त्र-शस्त्र संचालन का भी उन्हें अभ्यास कराया गया।

 

शस्त्र-संचालन

 

 

विद्याभ्यास अभी चल ही रहा था कि एक दिन राजर्षि विश्वामित्र अपने वन के आश्रम को संकट से बचाने की प्रार्थना लेकर राजा दशरथ के दरबार में आए। विश्वामित्र पहले राजकार्य करते थे। बाद में विरक्त होकर बन में चले गए थे। उन्होंने राजपाट छोड़ दिया था और शस्त्रों को भी त्याग दिया था। जन्म से क्षत्रिय होते हुए भी वे वनवासी साधुओं की भांति रहते थे।

कुछ दिनों से उनके आश्रम में कुछ राक्षसों ने उपद्रव मचा रखा था। ये राक्षस लंकाधिपति रावण के भेजे हुए दूत थे। रावण ईश्वर पर विश्वास नहीं करता था। उसकी आज्ञा थी कि उसके सैनिक, जहां कहीं ईश्वर-भजन होता हो, यज्ञ होता हो, वहां पहुंच यज्ञ को नष्ट कर दें और ईश्वर का नाम लेने वाले को दण्ड दें। रावण के सिपाही उत्तर भारत में भी फैल गए थे। इन अधर्मी राक्षसों का काम धर्म के कामों में बाधाएं डालना था। वन के आश्रम में पहुंचकर वे आश्रमवासियों को परेशान करते थे। उनके धर्मकार्यों में विघ्न डालते थे और लूट-मार करते थे।

ऋषि विश्वामित्र इन्हीं आश्रमवासियों की पुकार लेकर दशरथ के पास गए थे।
राजा दशरथ ने विश्वामित्र को आश्वासन देते हुए कहा कि मैं आपके साथ पर्याप्त सेना भेजता हूं। मेरे पराक्रमी सैनिक इन अधर्मी राक्षसों का अन्त करने में अवश्य सफल होंगे। विश्वामित्र बोले, ‘‘राजन् ! मुझे सैनिकों की वीरता में सन्देह नहीं, किन्तु आपके पुत्र राम और लक्ष्मण तो अकेले ही सैकड़ों का काम कर देंगे। मेरी प्रार्थना है कि आप राम औऐर लक्ष्मण को मेरे साथ भेज दें।’’

दशरथ ने चिन्तित होकर कहा, ‘‘महाराज ! राम और लक्ष्मण तो अभी बालक हैं। उन्हें मैं राक्षसों से युद्ध करने के लिए जंगल में कैसे भेज सकता हूँ ? आप कहें तो मैं स्वयं सेना के साथ चल सकता हूँ।’’
विश्वामित्र का यही आग्रह था कि राम और लक्ष्मण ही उनके साथ वन में चलें। राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु वशिष्ठ से परामर्श किया। वशिष्ठ ने समझाया कि विश्वामित्र का आग्रह कभी अकारण नहीं होता। इसमें कोई रहस्य अवश्य होगा। विश्वामित्र स्वयं अस्त्र-संचालन में बड़े निपुण हैं। उनकी दीक्षा में राम और लक्ष्मण धनुष-संचालन में अद्वितीय बन जाएंगे।
अस्त्र-विद्या में विश्वामित्र-सा गुरु पाकर राजा को धन्य मानना चाहिए। उनके संरक्षण में राम और लक्ष्मण का कभी अमंगल नहीं हो सकता।

गुरु वशिष्ठ के आदेश का पालन करते हुए राजा दशरथ ने राम और लक्ष्मण को वन में भेजना स्वीकार कर लिया। दोनों भाई महलों का सुख छोड़कर ऋषि विश्वामित्र के साथ वन की ओर चल दिए। कौशल्या और सुमित्रा ने हृदय पर पत्थर रखकर अपने लाड़ले बच्चों को विदा दी।
आश्रम तक पहुंचने से पूर्व ही राक्षसों का कोलाहल सुनाई देने लगा। घनें जंगलों में ताड़का नाम की राक्षसी रहती थी। उसके मुख में मनुष्य के रक्त का स्वाद लग गया था। ग्रामवासी उसके उत्पात से परेशान थे। छोटे-छोटे बच्चों के प्राण सुरक्षित नहीं थे। विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम ने उसको अपने बाणों का निशाना बनाया। इससे पूर्व अनेक बार राज्य के सिपाही उसे वश में करने का विफल यत्न कर चुके थे।

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