उपन्यास >> विज़न विज़नमैत्रेयी पुष्पा
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विज़न
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक के दौरान हिन्दी कथा-जगत् में मैत्रेयी पुष्पा का आगमन एक 'घटना' की तरह हुआ। मध्यवर्गीय शहरी ड्रॉइंग रूमों तक सीमित स्त्री-लेखन से हट कर मैत्रेयी ने गाँव-जवार की कहानियाँ लिख कर सबको चौंका दिया और जैसा कि हर नयी असुविधाजनक प्रवृत्ति के साथ होता है, उसे भी उपेक्षा, चुप्पी, कलाहीनता के आरोपों और मज़ाक उड़ाने की अनिवार्यता से गुज़रना पड़ा, उसे 'ग्राम्य-जीवन' की नहीं 'गँवार' कथाकार की 'प्रतिष्ठा' दी गयी । और शायद यह वही 'गँवारू' ज़िद और ग्रामीण जिजीविषा ही थी कि मैत्रेयी एक के बाद एक 'इदन्नमम,' 'चाक,' 'अल्मा कबूतरी,' 'झूला नट,' 'अगनपाखी,' जैसे उपन्यास लिखती चली गयीं। कहानियाँ हों या उपन्यास न मैत्रेयी ने गाँव का दामन छोड़ा, न गाँव ने मैत्रेयी का ।
लेकिन 'विजन' स्वयं मैत्रेयी के लेखन की ऐसी 'घटना' है जो एक साथ चौंकाती और झटका देती है; क्या यह वही मैत्रेयी है? कहाँ खेत-खलिहान, बैलगाड़ी और रेत-भरे दगरे और कहाँ महानगर के पॉश हस्पतालों के चमकते कॉरीडोर, जीन्स और ऍप्रन पहने, स्टेथोस्कोप लटकाये डॉक्टर-डॉक्टरनियाँ... मोबाइल फोन और ए.सी. गाड़ियाँ...इस बार 'विजन' में मैत्रेयी ने तीस-बत्तीस साल दिल्ली में गुज़ारी अपनी शहरी ज़िन्दगी को ही नहीं लिया, नेत्र-चिकित्सा के एक विशेष क्षेत्र को चुना है... शायद इस तरह के प्रोफेशन-केन्द्रित उपन्यास हमारे यहाँ दो-एक से ज़्यादा नहीं हैं।
विज्ञान-तकनीक और मानवीय भावना की रोज़मर्रा द्वन्द्वात्मकता के बीच 'विजन' सिर्फ-दष्टि की ही नहीं 'दृष्टिकोण' की भी तलाश है...
'विज़न' स्त्री-शक्ति के नये डाइमेंशन्स (आयाम) खोजने और खोलने का एक साहसिक प्रयोग है...
तो आइए, चलते हैं रोशनी के लिए भटकती आँखों के नवीनतम ऑपरेशन थियेटर में... जिसका नाम है 'विजन'...
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