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चित्रप्रिया

अखिलन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :311
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1512
आईएसबीएन :9788170283454

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

Chitrapriya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चित्रप्रिया की प्रेरणा और दर्शन के सम्बन्ध में श्री अखिलन का कहना है एक बार मेरे पास एक युवती का टेलीफोन आया उसके किसी मित्र ने उसके नाम पर कर्जा ले रखा था और अब वह उसको चुका नहीं पा रहा था। इसलिए वह युवती बहुत परेशान थी और रो रही थी, बस सूत्र में तो यहीं इस उपन्यास की प्रेरणा है। आज का सामाजिक जीवन धन-लोलपुता से ग्रस्त है और उसमें नैतिक मूल्यों का ह्रास हो गया है।

भूमिका

तिरुवल्लुवर ने जहां यह कहा है कि धनहीन मनुष्य के लिए इस संसार में कोई जीवन नहीं है, वहीं इस बात की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया है कि अपनी योग्यता के बल पर और न्यायपूर्ण ढंग से कमाए हुए धन से ही धर्म और आनन्द को प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन आज बहुत से लोग धर्म और आनन्द की परवाह किए बिना बड़ी तीव्रता से अर्थ रूपी स्वर्ण-मृग को अपने वश में करने में लगे हुए हैं।

मैं पिछले दस वर्षों से मद्रास शहर में रह रहा हूँ। मेरा विचार है कि स्वर्णमृग के आखेट की दिशा में यह शहर तमिलनाडु के अन्य भागों का दिशा निर्देशन कर रहा है। आज हमारा समाज एक ओर नैतिकता और सामाजिक चेतना से हीन कपटी व्यक्तियों को देश की जनता का उपकार करके धन इकट्ठा करने और दूसरी ओर चतुर एवं सद्विचारों से पूर्ण सदाचारी व्यक्तियों को अच्छे काम करके सुरक्षित जीवन न बिता सकने के कारण दुःखी होने का अच्छा अवसर प्रदान कर रहा है। आज से दो सहस्त्र वर्षों पूर्व तिरुवल्लुवर ने ‘नीच व्यक्ति भी सज्जनों की तरह ही दिखालाई पड़ते हैं’ कहकर सज्जनों का-सा अभिनय करने वाले नीच व्यक्तियों के विषय में हमें चेता दिया था। इतने पर भी हम इन नीच लोगों को आसानी से नहीं पहचान पाते।

मुझे यह देखकर बहुत दुःख होता है कि इन नीच, कपटी लोगों के प्रयत्नों से हमारे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी तेजी से छल-कपट की भावना का समावेश होता जा रहा है। मैं देख रहा हूं कि हमारे देश में परोक्ष रूप से जो अनेक परिवर्तन हो रहे हैं वे इन कपटियों को एक खोखले समाज का निर्माण करने का अच्छा अवसर प्रदान करेंगे। आज बहुत से लोगों पर आसान तरीकों से धन कमाने और धन से पाए जा सकने वाले अधिकारों को पा लेने की धुन सवार है।
धन को पारिवारिक जीवन की शान्ति और आनन्द से बढ़कर मानने  वाले इन मूर्खों का एक प्रतिनिधि है माणिक्कम। अण्णामलै, आनन्दी आदि पात्र उस जैसे लोगों का शिकार बनने वाली नादान जनता के अंग हैं।
कुछ पाठकों ने मुझसे शिकायत की थी कि मैंने कथा के अन्त में माणिक्कम को उचित दण्ड नहीं दिया। पाठकों ने जिस दण्ड की ओर संकेत किया है वह दण्ड स्वयं समाज उस जैसे व्यक्तियों को नहीं दे पाया है। लेकिन उससे बहुत बड़ा दण्ड जिसकी चर्चा स्वयं तिरुवल्लुवर ने की है, उसे कथा के अन्त में मिल गया है। कथा को ध्यान से पढ़ने वाले इस बात को अवश्य ही जान जाएंगे।

कुछ लोग शायद अब भी माणिक्कम को मनुष्य समझते हैं। अन्यथा आनन्दी की प्रतिक्रिया देखकर उसकी निन्दा करते हुए इतने कठोर शब्दों में मुझे पत्र नहीं लिखते। कुछ लोगों ने मुझसे शिकायत की है कि मैंने युगो-युगों से मानव समाज में प्राप्त एक गहन विश्वास के विरोध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। इस उपन्यास द्वारा मैंने जिन विचारों की अभिव्यक्ति की है उसके लिए कुछ लोगों ने अत्यधिक निन्दा भी की। मैं प्रशंसा और निन्दा को समान भाव से ग्रहण करता हूं। जिसे मैंने ठीक समझा उसी की अभिव्यक्ति मैंने की है। मैं सोचता हूँ कि आज जीवन के अन्तःबाह्य पक्षों को भला प्रकार छानबीन करके भविष्य के अनुकूल पाठकों की मनःस्थिति का निर्माण करना मेरा दायित्व है। पाठक क्या चाहते हैं इसकी चिन्ता मैंने नहीं की। उन्हें जिसे पाने की इच्छा करनी चाहिए उसी को मैंने यहां प्रस्तुत किया है। आज का साहित्य कल समाज का पथ-प्रदर्शक बनेगा। यह आवश्यक नहीं कि इस उपन्यास में मैंने आनन्दी के बारे में जो विचार व्यक्त किए हैं उनसे सभी सहमत हों। लोग इस दिशा में चिन्तन करें, यही काफी है। कल यदि समाज में माणिक्कम जैसे नीच व्यक्ति अण्णामलै और आनन्दी जैसे पात्रों को धोखा दें और उन्हें जीने न दें तो इस स्थिति में यह कृति उन्हें कुछ करने की प्रेरणा दे सके—यही मेरा उद्देश्य है।

मैंने लगभग चालीस वर्षों से साहित्य सर्जना को ही अपना मूल लक्ष्य बनाया है। तमिलनाडु के अधिकांश पाठकों को आज भी किताबें खरीदकर पढ़ने की आदत नहीं पड़ी है। युवा पीढ़ी को वर्तमान तमिल साहित्य के अध्ययन की दिशा में जो प्रेरणा दी जानी चाहिए उसे हमारे विश्वविद्यालय और महाविद्यालय नहीं दे पाए। अतः सर्वप्रथम पत्र-पत्रिकाओं द्वारा ही मेरा अपने पाठकों से सम्पर्क स्थापित हुआ। इस दृष्टि से इस उपन्यास को पहले पहल प्रकाशित करने वाले ‘आनन्द विकटन’ पत्रिका के सम्पादक स्वर्गीय श्री एस.एस. वासन को धन्यवाद देना मेरा पहला कर्तव्य है। उन्होंने 19-3-1967 से 14-1 1968 तक इस उपन्यास को अपनी पत्रिका में छापकर लाखों पाठकों तक पहुंचाया।
मैंने चित्रकार अण्णामलै को इस उपन्यास का नायक बनाया है। इस कला सम्बन्धित आवश्यक विवरण पाने के लिए मैं कुछ प्रमुख चित्रकारों से मिला। चित्रकला महाविद्यालय और चित्रकारों की बस्ती में गया। इस सम्बन्ध में सारी जानकारी प्राप्त करने में चित्रकार मित्रों ने मेरी बहुत सहायता की।

इस उपन्यास पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हो जाने के उपरान्त यह अपने सम्पूर्ण रूप में हिन्दी पाठकों के सम्मुख आ रहा है, मैं प्रकाशकों का धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने इस उपन्यास के हिन्दी रूपान्तर को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया है। मैं डॉ कुमारी के.ए.जमुना को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होंने बड़ी लगन से हिन्दी में इस उपन्यास का अनुवाद किया है।

अखिलन

खण्ड-1


उस दिन शाम के समाचार पत्र में यह समाचार छपा था कि अगले दिन प्रातः परीक्षा परिणाम घोषित कर दिया जाएगा।
हाथ में समाचार पत्र और खाने का डिब्बा लिए हुए मिस्त्री चिदम्बरम सबसे पहले बस से उतरे। उनके पीछे-पीछे माणिक्कम चल रहा था। वह बस एग्मूर से मयिलापुर के मन्दिर के तालाब तक आती थी। उनका घर मयिलापुर में ही था।
नीचे उतरकर वे तालाब के किनारे खड़े हो गए। उन्होंने माणिक्कम को पैसे देते हुए कहा, ‘‘जाकर दूसरा समाचारपत्र खरीद ला। देखें, उसमें भी यह खबर छपी है कि नहीं।’’ माणिक्कम मन ही मन हंस दिया। उसने पास की एक छोटी सी दुकान से दूसरा समाचारपत्र खरीदकर उनके हाथ में थमा दिया। चश्मा पहनकर चिदम्बरम समाचारपत्र में छपी हुई खबरों पर  नज़र मारने लगे। एक कोने में छपी दो पंक्तियों को उस खबर को पढ़कर उन्होंने चैन की साँस ली। पर उनका सन्देह अब भी दूर नहीं हुआ था।

‘‘कल सुबह अवश्य ही परिणाम घोषित कर दिया जाएगा न ?’’
‘‘हां पिताजी।’’
‘‘क्या तू अण्णामलै का रोल नम्बर जानता है।
माणिक्कम ने उत्तर दिया, ‘‘घर पर एक जगह लिख रखा है।’’
मिस्त्री चिदम्बरम अण्णामलै का रोल नम्बर दुहराकर हंस पड़े। वह नम्बर उन्हें न जाने कब से याद आया था।
चिदम्बरम ने चिन्तित स्वर में पूछा, वह इस बार पास हो जाएगा न ?’’
माणिक्कम ने उन्हें आश्वसान देते हुए कहा, ‘‘हां, पास हो जाएगा। इस बार उसने बहुत मेहनत की है।’’ वह मन ही मन डर रहा था कि किसी और तरह से उत्तर देने पर वे नाराज होकर उसे मन्दिर के तालाब में धकेल देंगे।
‘‘यदि वह पास हो गया तो कल रात तुझे और तेरी मां को अपने घर भोजन खिलाऊंगा...दावत दूंगा।’’
मिस्त्री चिदम्बरम बड़ी तेजी से अपने घर की ओर चल दिए। तेईस साल के माणिक्कम को उस साठ साल के जवान के साथ चलना काफी कठिन लग रहा था। माणिक्कम भी उनके साथ चल रहा है शायद वे भूल गए थे, इसी से तेज़ी से कदम बढ़ाते जा रहे थे।

साठ साल की आयु में भी मिस्त्री जी का शरीर काफी गठा हुआ था। उनकी आन्तरिक शक्ति शरीर पर झलक रही थी। आंखों पर लगा चश्मा और रुई की तरह सफेद बाल ही उनके बुढ़ापे का संकेत दे रहे थे। उनका चेहरा तनिक लम्बा, कद ऊंचा और रंग गेहुंआ था। वे बिना कालर वाली आधी बांह की कमीज पहने हुए थे। कमर पर धोती, कंधे पर तौलिया और पैरों में पुरानी-सी चप्पल थी।
माणिक्कम भी हट्टा-कट्टा था। ऊंचाई में वह मिस्त्री जी के कन्धों तक भी नहीं पहुंचता था। उनका चेहरा चौकोर, माथा चौड़ा और दुष्ट पैनी थी। वह बेर के रंग की कमीज, पैण्ट और जूते पहने हुए था। उसके हाथ पर लटकते थैले में खाने का एक डिब्बा था।
माणिक्कम चिदम्बरम के मकान के ऊपर वाले हिस्से में रहता था। उनकी सहायता से ही उसने मकान बनाने का काम सीखकर एल.सी.ई. की डिग्री ली थी। उन्होंने अपने मालिक से कहकर उसे एक नौकरी भी दिला दी थी। वे दोनों एक बहुत बड़ी ‘इंजीनियरिंग कान्ट्रैक्टर कम्पनी’ में नौकरी करते थे। उनकी कम्पनी वालों का हमेशा किसी न किसी जगह काम चलता रहता था। चिदम्बरम वहां मिस्त्री थे। माणिक्कम उनके ऊपर सुपरवाइजर लगा हुआ था। कम्पनी के बाहर और घर में माणिक्कम उनसे बड़ी नम्रता से पेश आता था।

मन्दिर के तालाब और कपालीश्वर मन्दिर को पार वे पूर्व की तरफ वाली एक छोटी-सी गली के भीतर गए। इसके बाद दोनों अपने मकान का बाहरी दरवाजा खोलकर अन्दर चले गए। वह दरवाजा पश्चिम की ओर खुलता था। भीतर सीमेंट का बना एक छोटा-सा रास्ता था जिसके दोनों ओर फूलों के पौधे लगे हुए थे। घर के दरवाजे खुले हुए थे। दरवाजे के पास की भीतर की ओर जाने वाली सीढ़ियों के सहारे माणिक्कम ऊपर चढ़ गया। घर के भीतर जाते हुए मिस्त्री ने पूछा, ‘‘अण्णामलै घर में है ?’’ भीतर जाकर उन्होंने कमीज़ उतारकर, झाड़कर खूंटी पर टांग दी।
घर के भीतर बिजली बल्ब जल रहे थे। मिस्त्री जी की आवाज सुनकर उनकी पत्नी मीनाक्षी अम्माल रसोईघर से बाहर निकली और बोली, ‘‘उसके आने का समय हो गया है, बस आता ही होगा।

उनकी आयु पचास वर्ष के लगभग थी, शरीर दुबला-पतला था। चेहरे पर हल्दी का पीलापन और माथे पर कुंकुम की बिन्दी बहुत शोभा दे रही थी। उनका रंग चन्दन का-सा था। चेहरे पर छलकती हुई पसीने की बूंदें उनके चेहरे की शोभा बढ़ रही थीं। उन्हें देखकर लगता था कि युवावस्था में इतनी सुन्दर रही होंगी जैसी प्रायः चित्रों में अंकित युवतियां हुआ करती हैं।
घर में नल लगा हुआ था, फिर भी चिदम्बरम अपनी आदत के अनुसार पिछवाड़े गए और उन्होंने कुएं से पानी खींचकर मुंह-हाथ, पैर आदि धोए। तौलिए से मुंह पोंछते हुए चिदम्बरम जैसे ही पीछे मुड़े, उन्होने देखा कि मीनाक्षी ने भगवान नटराज की तस्वीर के पास दीया जलाकर रख दिया है। भगवान की मूर्ति या तस्वीर आदि के सामने सिर झुकाने की आदत उनमें न थी। वे सोचते थे कि मीनाक्षी ही उनके बदले भगवान की पूजा कर ले तो काफी है। उस दिन जाने क्यों उनके मन में भगवान की तस्वीर के सामने सिर झुकाने की इच्छा जागी। दीये के पास रखी कटोरी में से विभूति लेकर उन्होंने अपने माथे पर लगा ली और भगवान को साष्टांग प्रणाम किया। पर उनका मन भगवान नटराज की तस्वीर या दीये पर नहीं टिका। तस्वीर और दीये के पास पड़े उनके बगीचे के फूल महक रहे थे। वह महक उनकी नाक तक नहीं पहुंची। उनकी आँखें जैसे उन रंग-बिरंगे फूलों को नहीं देख पा रही थीं।

उन्होंने मन ही मन भगवान से प्रार्थना की, ‘‘अण्णामलै पिछली बार की तरह फेल न हो। वह इस बार अवश्य पास हो जाए।’’ और इसके साथ ही उनकी पूजा समाप्त हो गई।
मीनाक्षी अम्माल ने आवाज लगाई, ‘‘खाना खाने आ जाइए।’’
मैं ऊपर जा रहा हूं। अण्णामलै आए तो मुझे बुला लेना।’’ यह कहकर वे सीढ़ियों पर चढ़ते हुए माणिक्कम को पुकारने लगे। चलते-चलते उन्होंने समाचारपत्र में छपी वह खबर अपनी पत्नी को बता दी।
माणिक्कम जानता था कि उस दिन वे उसका पीछा नहीं छोड़ेंगे। उसने उठकर अपनी कुर्सी उनकी ओर खिसका दी और स्वयं पास पड़े लोहे के सन्दूक पर बैठ गया। ऊपर वाला दूसरा कमरा ही उनका रसोईघर था। वहां उसकी मां कुछ काम कर रही थी। दो कमरों वाले उस मकान में उनके लिए सुख-सुविधा की कोई कमी न थी। कमी क्यों होती ? वह मकान तो मिस्त्री जी ने स्वयं अपने लिए बनवाया था।

चिदम्बरम ने बात शुरू की, ‘‘मैं अण्णामलै को इंजीनियर बनाना चाहता हूं। इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला मिलना मुश्किल है, परन्तु अपने मालिक की सिफारिश से शायद जगह मिल जाएगी।’’
‘‘आपका कहना ठीक है,’’ माणिक्कम ने उत्तर दिया। वे अपने लड़के को उससे ऊंची शिक्षा देने जा रहे हैं यह सोचकर उनका मन उदास हो गया, पर मन की भावना को उसने बाहर प्रकट नहीं होने दिया।
‘‘मैंने अनपढ़ बेवकूफ की तरह दिन काटे, किन्तु तुम लोग ऐसा नहीं कर सकते। आज का ज़माना पढ़े-लिखे बेवकूफों का जमाना है।’’
उनकी इस बात पर माणिक्कम जोर से हंस पड़ा।
मिस्त्री ने पूछा, ‘‘तुम क्यों हंस रहे हो ? क्या पढ़े-लिखे सभी लोग हमारे मालिक की जगह ले सकेंगे ? उनके पास किताबी ज्ञान है, व्यावसायिक ज्ञान है और सांसारिक अनुभव भी है। वे जिस चीज तो छूते हैं, वही सोना बन जाती है। यदि हमें फट्टी पकड़ना नहीं आता और हम बड़ी-बड़ी डिग्रियां ले लें तो इससे कोई फायदा नहीं। मैं चाहता हूं कि अण्णामलै और तुम दोनों उनकी तरह ऊपर उठो। शहर में यदि तुम्हारे पास अपना मकान, कार और दिखावे की दूसरी चीजें नहीं होंगी तो कोई तुम्हारी टके बराबर भी इज्जत नहीं करेगा।’’

उस समय माणिक्कम की नज़र में उनकी कीमत लाख गुना बढ़ गई थी।
कई वर्ष पहले वे कंधे पर खाली अंगोछा लटकाए, हाथ में फट्टी, करणी आदि लिए हुए चेट्टिनाडु से चलकर मद्रास के एग्मूर स्टेशन पर आ पहुंचे थे। किसी समय चेट्टिनाडु में महलों की तरह विशाल भवन ही बनाए जाते थे। अब वहां बने-बनाए मकानों को तोड़कर जमीन बेचे जाने का जमाना आ गया था।य़ मद्रास आकर कई बार उन्हें भूखे रहना पड़ा। कई बार नौकरी की तलाश में वे दूसरे राज और मजदूरों के साथ सड़कों पर भटकते रहे और नौकरी न मिलने पर मन मसोसकर रह गए। ईंट बनाई जाने वाली भट्टी के लिए पत्थर कूटने का काम लेने के लिए भी लोगों में होड़ थी। राज का काम न मिलने पर वे आधे वेतन पर मजदूरों के समान ईंट ढोने का काम करने में भी नहीं हिचके। उस समय जिन लोगों की मजदूरी करने में हिचकी हुई थी, वे लोग आज झोपड़ियों में रह रहे थे, जबकि चिदम्बरम ने मयिलापुर में अपना पक्का मकान बनवा लिया था। तंजावूर के पास एक एकड़ उपजाऊ जमीन भी खरीद ली थी।

माणिक्कम ! नौकरी ने मेरा पीछा नहीं किया, मुझे ही उसकी खोज में मुझे भटकना पड़ा था। नौकरी मिलने के बाद भी जितनी मजूरी मिलती थी, उससे कई गुना अधिक काम मैंने किया। यदि मैं काम से जी चुराकर साथियों के साथ मिलकर गुलछर्रे उड़ाकर, बिना मेहनत के लिए मजूरी पाने इच्छा करता तो शायद आज इस तरह अपने मकान में बैठकर तुझसे बात नहीं कर रहा होता। बाहर जाकर कॉफी शराब पीना, सिनेमा देखना मुझे अच्छा नहीं लगता था। मालिक ने मुझे अच्छी तरह समझ लिया। मैंने स्वयं अनपढ़ मूर्ख होते हुए भी तुम लोगों को अच्ची शिक्षा दी है।’’
माणिक्कम उन्हें पिताजी कहकर ही सम्बोधित करता था। वह बोल उठा, ‘‘पिताजी, ऐसा मत कहिए। आप अनपढ़ होते हुए भी ज्ञानी हैं, बुद्धिमान हैं। हम भी आपकी तरह हो जाएं तो काफी हैं।’’
उन्होंने भीतर ही भीतर गर्व का अनुभव किया।
‘‘जीवन में तुम लोग उन्नति करो, इतना काफी नहीं है। तुम्हें हमारे मालिक की तरह उन्नति करनी चाहिए।’’
‘‘अच्छा, पिताजी !’’
तभी नीचे से मीनाक्षी अम्माल ने आवाज दी, ‘‘अण्णामलै आ गया है। क्या आप खाना खाने आ रहे हैं ?’’
चिदम्बरम शीघ्र ही नीचे उतर आए।

अण्णामलै अपने कमरे में बैठा हुआ पिता द्वारा लाए गए अखबारों को पलट रहा था। तभी उसे सहसा परीक्षा-परिणाम की याद हो आई। दो साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद गत वर्ष उसने इण्टर की परीक्षा दी थी।
तमिल और अंग्रेजी में उसने प्रथम श्रेणी के अंक पाए थे, परन्तु गणित ने उसका साथ नहीं दिया। गणित में तेज होने पर ही उसे इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला मिल सकता था। पिता ने उसे जबरदस्ती गणित का पण्डित बनाना चाहते थे। स्वयं अनपढ़ होते हुए भी मिस्त्री जी ने लोगों से बातचीत करके बहुत-सी बातें जान ली थीं।
मिस्त्री जी ने पूछा,  ‘‘कहा गया था। ?’’
‘‘लाइब्रेरी....वहीं से ज़रा समुद्र-तट की ओर चला गया था।’’
‘‘अच्छा....आ, खाना खा लें।’’

अण्णामलै की शक्ल अपनी मां मीनाक्षी अम्माल से मिलती जुड़ती थी। वह उनका एकमात्र लड़का था और विवाह के वर्षों बाद पैदा हुआ था। उनका डील-डौल आयु के अनुरूप था। घुंघराले बाल, घनी भौंहें, लम्बी नाक, स्वप्नों में खोई रहने वाली आँखें। लम्बी बांहों की कमीज़ धोती में वह कुछ अधिक लम्बा रास्ता दिखाई दे रहा था।
दोनों खाना खाने बैठे। खाना खाते हुए मिस्त्री जी ने अपने बेटे से वही बातें कहीं, जो कि वे पहले माणिक्कम से कह चुके थे। उन्हें अत्यधिक उत्तेजित देखकर अण्णामलै को तनिक घबराहट हुई। भोजन समाप्त कर चिदम्बरम अण्णामलै के पीछे-पीछे उस कमरे में पहुंच गए। उसके पलंग पर बैठकर वे उसे इस तरह उपदेश देने लगे , मानो वह बहुत बड़ा इंजीनियर या ठेकेदार बन गया हो।

‘‘देखो, आज माणिक्कम मुझसे ऊंची पदवी पर है। मैं चाहता हूं कि तुम मुझसे भी ऊंची पदवी पाओ।’’
अण्णामलै नहीं समझ पाया कि यह सब उनके अपार वात्सल्य, उच्च आकांक्षा और अशिक्षा का परिणाम है। परन्तु वह अपने पिता का बहुत आदर सम्मान करता था। दस वर्ष बाद उसे जो बातें कहनी चाहिए थीं, उन्हें पिताजी उससे आज कह रहे थे। यह उसे अच्छा नहीं लग रहा था। क्या अच्छा नहीं होता कि वे दस घंटे बाद, परीक्षा-परीणाम जानने के बाद उससे ये बातें कहते ?

परन्तु वे उसे छोड़ने को तैयार न थे। ‘‘हमारे चेट्टिनाडु में आज जिधर देखो, उधर टूटी-फूटी दीवारें और मलबे का ढेर दिखाई देता हैं, किन्तु इस शहर की टूटी-फूटी दीवारें और मलबे का ढेर बड़ी-बड़ी इमारतों में बदलता जा रहा है। जब मैं इस शहर में आया था, तब यहां सवारी के रूप में आदमियों द्वारा खींची जाने वाली रिक्शा और ट्राम के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। आज पैदल चलने वालों के लिए सड़क पर या प्लेटफार्म पर बिल्कुल जगह नहीं रही है। सड़क पार करते हुए लगता है कि वौ गाड़ियां आकर तुमसे आकर टकरा जाएंगी। यदि शहर में अमीरों की संख्या अधिक हो जाए तो यह हम जैसे व्यवसायियों के लिए सौभाग्य की बात है। आज ही हमारे माणिक की यह दशा है कि वे ठेकेदार का नया काम अपने हाथ में न ले सकने के कारण परेशान हैं।’’

 

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