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विविध उपन्यास >> एक इंच मुस्कान

एक इंच मुस्कान

राजेन्द्र यादव,मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1520
आईएसबीएन :9789350641620

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राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी द्वारा एक साथ मिल कर लिखा गया एक रोचक उपन्यास...

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी का सहयोगी रूप में लिखित उपन्यास जिसका पहला परिच्छेद राजेन्द्र यादव का है तो दूसरा मन्नू भंडारी का....और इसी प्रकार यह उपन्यास अपनी परिणति पर पहुंचता है। उपन्यास-विधा में एक सफल सशक्त प्रयोग। अंत में दोनों के अपने-अपने वक्तव्य भी...

एक

 

सब कहीं अन्धकार और बीच में कटा आयाताकार प्रकाश का चौखटा....
लौटते हुए, दूर से होटल की खिड़की का उद्भासित चौखटा देखकर एक बड़ी अजीब-सी बात अमर के मन में आई थी- मानो यह आयताकार चौखटा एक ऐसा चोर-दरवाजा है जिसकी राह वह प्रकाश के लोक में उतर जाएगा...
और अब भीतर खुली कलम लेकर खिड़की से बाहर अंधेरे की ओर देखते हुए भी एक वैसी ही बड़ी विचित्र अनुभूति की सिहरन उसे छू गई-लगा, जैसे सागर अपने रेतीले तट, आड़ी लेटी सड़क और नहाने वाले टैंक के मकानों को डूबाता हुआ ठीक खिड़की के नीचे तक चला आया है और लगातार दीवार से पछाड़ें खा-खाकर उसे बुला रहा है...अगर वह चाहे तो चौखटा लांघकर नीचे लहरों पर उतर जाए...और यह सागर पानी का नहीं तरल अंधकार का है...और यह तरल अन्धकार बाहर नहीं, भीतर ही कहीं दूर-दूर के क्षितिज बहाता चला आया है।
तो यह अपनी धरती का अन्त...अब इसके पार ?

वह खड़ा-खड़ा मुग्ध विस्मय के भाव से देखता रहा था-दाईं ओर मटमैला-सा अरब का समुद्र है, बाईं ओर शस्य-श्यामला हरियालियों से रंगा बंगाल का सागर...और इन दोनों को स्वीकारता-सा विशाल हिन्द महासागर, हल्का नीला और आसमानी। उसने फिर दुहराया...दोनों को स्वीकारती-समोती-सी विशाल तरल नीलिमा...दोनों को आत्मसात् करती-सी उद्वेलित व्यथाकुल नीलिमा..और लहरों से उठकर आता हुआ
एक अनिवार्य, अप्रतिरोध आमंत्रण...‘‘तीर पर कैसे रुकूं मैं, आज लहरों में निमंत्रण...’’
शायद ये पंक्तियां किसी ने उसे सुनाई थीं...
दोनों ओर के तट, और कन्याकुमारी के अन्तरीप का सिरा...खिंचे धनुष की तनी बांहों के बीच चढ़े तीर की नोक पर खड़ा-खड़ा अछोर, अथाह नीलिमा को गुहारता-सा अमर...लहरों के निमंत्रण को सारी चेतना से समर्पित होता-सा अमर..और दोनों किनारों से फिर-फिर उठती लहरें...
‘‘जाने क्यों, मैं जब-जब सागर की लहरें देखता हूं, मुझे लगता है कोई बांहें हिला-हिलाकर बुला रहा हो...’’ उसने मन्त्रमुग्ध की तरह अपने-आपसे कहा था। जुहू की सांझ सांवली हो आई थी और सूरज रबर की लाल गेंद-सा लहरों की उंगलियों पर नाच रहा था।

‘इनमें निमंत्रण कहां है...?’’ रंजना उसके सिगरेट के डिब्बे की चमकीली पन्नी नाखून पर लपेटकर बोली थी, ‘‘ये तो...बड़ी सरल सौम्य-सी लहरें हैं...नैवेद्य की तरह सागर के तट पर आकर समर्पित हो जाती हैं और फिर आंचल संभालकर लौट जाती हैं...संयत...शिष्ट। निमंत्रण...एक अप्रतिरोध्य निमंत्रण देखना हो तो पुरी जाइए। सुनते हैं...।’’
और पुरी की रेत में टखनों तक पांव गड़ाए तनी, अमला का भरा-भरा शरीर फहराती साड़ी में यों खड़ा था जैसे आसमान से उतरकर गंगा की धारा आ खड़ी हुई हो। जैसे हमेशा से वह यहीं खड़ी है...ज्योति-स्तम्भ बनी...लाइट हाउस की तरह दिशा दाता...।
पास बैठा अमर ठंडी-ठंडी रेत के गोले बनाते हुए बोला था, ‘‘ये लहरें....ये दुर्दान्त वेग से झपटती और किनारों पर टूट-टूटकर बिखर पड़ती लहरें, मुझे आंतकित भी करती हैं और मुग्ध भी....सुनते हैं, आतंक का भी अपना एक जादू होता है और आदमी उसके आगे बेबस हो जाता है।’’
बात काटकर अमला ने पूछा था, ‘‘सिर्फ आतंक ही है अमर...?’’

‘‘नहीं, आतंक सही शब्द नहीं है। सशक्त सौन्दर्य की..गतिशील रौद्र सौन्दर्य की भी एक सम्मोहिनी होती है...तब बस यही मान होता है कि किसी ऊँची चट्टान पर जाकर अपने को इन लहरों की गोद में डाल दें, और मन की सारी ऐंठन को इस दुर्द्धर्ष आलोड़न में एकाकार हो जाने दें....’’ आंखों पर फुहारों का कुहासा छा गया था।
छाती पर हाथ बांधे अमला वैसी ही खड़ी रही, ‘‘शायद यही सच्चे सौन्दर्य की सार्थकता है। सागर के सौन्दर्य की शक्ति और सम्मोहन तो यही है।’’ फिर मुंह बिचकाकर बोली थी, ‘‘वरना वह भी कोई सागर हुआ जैसा तुम्हारे जुहू में है..मरियल, निर्जीव...डरता-डरता धरती को छुएगा और रेतीले किनारे में खो जाएगा...’’
तब उस रंजना की बात याद हो आई थी...

और आज नहानेवाले टैंक के पास काली-काली ऊंची चट्टानों पर खड़े हुए, तीनों सागरों को यों सामने देखते हुए, उसे दोनों की बातें याद हो आईं। न पुरी है न जुहू...। मन्दिर के बाहर ‘मातृतीर्थ’ की अन्तिम सीढ़ी पर खड़े-खड़े भी उसे पल-भर को लगा था कि उसी चिरपरिचित मुस्कान की रेखा इस किनारे से उस किनारे तक कौंधकर खो गई। लगा, सामने की दोनों चट्टानें, हां सागर के व्याकुल उद्वेग में भीगती दोनों जुड़वां चट्टानें, उसने पहले भी कभी देखी हैं...जैसे चट्टानें उसकी जाने कब की परिचिता हैं।

एक साथ ही दो असंभव ख्याल उसके मन में उभरे। मानो रंजना आज भी उसके साथ है और उसे वह समझता जा रहा है, ‘देखो, यहां विवेकानन्द ने समाधि लगाई थी’; और दूसरा यह है कि मान लो, अचानक इस क्षण कहीं रंजना दीख जाए तो ? वह देखे कि कैमरा लटकाए हुए एक व्यक्ति से सट-सटकर चलती हुई रंजना डगमगाती चाल से किनारे पर खड़ी हो गई। तब क्या वह उसे जाकर याद दिलाएगा, ‘अमर, मैं तुमसे बोलूं, चाहे न बोलूं, लेकिन लगता उसे जाकर याद दिलाएगा, ‘अमर, मैं तुमसे बोलूं, चाहे न बोलूं, लेकिन लगता है जैसे सोते-जागते हमेशा तुमसे बातें करती रहती हूं...’
और अचानक होटल के कमरे में लेटे-लेटे उसे किवाड़ों की हल्की खट्-खट् के साथ सुनाई दिया था, ‘‘क्या है अमर, तुम यहां आकर भी यों लेटे हो भीतर ? बाहर जाओ न, देखो चांदनी में सागर कैसा उमड़ आया है ! कैसे लेखक हो तुम !’’ तो वह चौंककर सहसा सचमुच ही उठ बैठा था। नहीं, गलत नहीं है, यह अमला की आवाज है। फिर ध्यान आया कि यह तो शायद कोई ऊपर किसी से कह रहा है। सामने की दीवार की फोटो की तीनों बिल्लियां व्यंग्य से मुस्करा पड़ीं। लेकिन वह बाहर निकल आया।

नहीं, यहां का सागर खींचता नहीं है..मुक्त भी नहीं करता...वह तो बस अभिभूत कर देता है और अनछुई गहराइयों में उछाल देता है, और निराकार वायु में घुला देता है और गन्ध की तरह वापस भेज देता है....भीतर की ओर लौटा देता है और तब अमर पाता है कि बीती हुई राहों और पगडण्डियों के चक्रव्यूह फिर कहीं अंधेरे में आतिशाबाजी की जलती चक्रकार रेखाओं से नाच उठते हैं।

तपस्या-लीन अनन्त स्थिर-प्रतीक्षारता कन्याकुमारी..कुमारी आजीवन कन्या रही...शिव को वरण करने के लिए तपस्या करती रही-और उसे उसका सत्य नहीं मिला और तब से आज तक शायद हर जिज्ञासा कुमारी रही है-हर प्रतीक्षा अनब्याही रही है....अजन्मे वर का सत्य पाने के लिए...किसने पाया है सत्य ? कौन दावा कर सकता है ? विवेकानन्द ने ? जो इन अनधुली चट्टानों पर दौड़कर चढ़ गए थे और समाधि में लीन हो गए थे ? तब अनादि समाधिस्था कन्याकुमारी हंस पड़ी होगी...और तब एक बार उसने विवेकानन्द को भी अपनी तपस्या के आदि इतिहास की ओर लौटा दिया होगा।
तपस्या...साधना...सत्य-दर्शन...बहुत बड़े शब्द हैं। अमर को उनसे डर लगता है...लेकिन यहां खड़े होकर अपनी ओर खींचता हुआ सागर कहीं बहुत पीछे लौटता तो है ही...

केप होटल। अमर को आए दूसरा दिन हुआ है। बादल छाए हैं, इसलिए न सूर्यास्त दिखा है न सूर्योदय। शायद कल दीखेगा। अब तो घुमड़ते बादल हैं और चेतना के स्तर-स्तर पर एकरस ध्वनित-प्रतिध्वनित होती लहरों की गरज है। पहली रात को तो ऐसा लगा था जैसे अभी भी वह कोट्टालन फॉल्स के नीचे वाली धर्मशाला के कमरे में सो रहा है और दिग्दिगन्त को गुंजाता हुआ झरना, सैकड़ों फुट ऊंचे से लगातार गिरता चला जा रहा है या सुबह की तन्द्रिल खुमारी में कहीं से चक्की की ‘घुर्र-घुं’ घूम-घूमकर लहरा रही है और वह उम्मीद कर रहा है कि रंजना चाय के लिए उठाएगी।
यह सही है; स्मृति के अगले सिरे पर इन दिनों रंजना ही रही है, लेकिन जब-जब मुड़कर देखा है या उस स्मृति को समेटा है तो रंजना कभी अकेली नहीं आई। हमेशा पृष्ठभूमि में एक बड़ी-सी छायाकृति प्रक्षेपित रही-पर्दे के इस सिरे से उस सिरे तक छाई अमला की छाया...‘‘इस सब में अगर अमला नहीं होती तो शायद मैं बड़ी आसानी से इसे नाम दे देता। और नाम देकर, अर्थात् उसका एक रूप निश्चित करके निष्कर्म रूप से लोभ या क्षमा में से एक को चुन लेता।’’ उसने एक बार डायरी में लिखा था, ‘लेकिन....अमला....’

फिर भी अकेला, रंजना का ख्याल उसे कहां नहीं आया ? मीनाक्षी की उन सजीव प्रतिमाओं के पास खड़े होकर...या चिदम्बरम् में नटराज की नृत्य-मुद्रा को देखते हुए उसे अचानक ही तो लगा था कि वह पास खड़ी रंजना के कन्धे पर हाथ रखकर कह उठे, ‘‘देखो रंजना, हमारी कल्पना में नटराज की कितनी विराट मूर्ति बसी है, जबकि असली मूर्ति तो छोटे बच्चे के...’’ लेकिन चौंककर उसका हाथ अपनी जगह आ रहता। कोई कहता था कि रंजना अब एक बच्चे की मां...

पंख साधकर उतरती चिड़िया की तरह जब त्रिवेन्द्रम् से, डबल-डेकर बस, ऊँची-नीची, सुन्दर सड़क के फीते को लीलती-निगलती दौड़ चली तो चेतना की एक आँख से वह देखता कि पल-पल पर पुल आते हैं और दोनों ओर सुपारी, केले, कटहल के बगीचों वाले मकानों की कतार टूटने को ही नहीं आती, और जहां तक निगाह जाती है, झुकी-झुकी बदली के नीचे हरियाली का-धानों की हरियाली का खेतों के चारखानों में बँटा सागर लहरा रहा है। तब-तब चेतना का दूसरा टुकड़ा बोलता, ‘‘देखो रंजना, यह विस्तार, यह फैलाव...सँकरी नदियां ही सागर में आकर विराटता नहीं पातीं। संकीर्ण और घुटे-घुटे हृदय भी यहां आकर खुल जाते हैं, उदार और विराट हो जाते हैं...’
लेकिन रंजना नहीं थी। पास की सीट पर घुंघराले बालों वाला सांवला-सा मलयाली नौजवान धूप के चश्मे को शीशे की तरह सामने पकड़े छोटे-से कंघे से बाल संवार रहा था।

तब भीतर एक तटस्थ-सी तल्खी उभर आई थी, ‘‘झूठ है, प्यार एक सागर है और वह हृदय को उदार बनाता है, क्षमा देता है, प्यार खुली बांहों का निःसंकोच विनीत विस्तार है...। नहीं, नहीं, नहीं। सब रोमांटिक और आदर्शवादियों की हवाई बकवास है। प्यार संकीर्ण, स्वार्थी और निर्दय बना देता है...प्यार की सपनीली और मखमली नरमाहट के पीछे ईर्ष्या के नुकीले नाखून होते हैं...कोई दूसरा उस तरफ बढ़ता है कि शेर की गुर्राहट सुनाई देती है...नहीं, उधर मत आना। यह मेरा शिकार है, और इसे मैं अकेला ही खाऊंगा...सड़ जाने दूंगा, पर तुम्हें नहीं खाने दूंगा...’’

मगर नहीं, अब कड़वाहट नहीं। क्षमा भी नहीं। अमर अब क्षमा और क्षोभ से तटस्थ हो गया है। ऊपर उठने का अभिमान नहीं है...बस, दूर आ गया है। उसने अपने को नौकरी में ही फंसा लिया है कि अब उस सबको याद करने का अवकाश ही नहीं मिलता। और अगर कभी भूले-भटके ख्याल आया भी तो इस तरह, जैसे वह सब उसका नहीं, किसी दूसरे का अतीत है। दूसरे का तो है ही। निश्चय ही भोगने और जीनेवाला अमर दूसरा था। उसने सो इस अमर नाम के व्यक्ति को निहायत ही ‘कान्फिडेंस’ में लेकर बड़े मित्र भाव से अपने कुछ (सारे नहीं) अनुभव, गहन, आत्मीय अनुभूतियों के क्षण ज्यों के त्यों सौंप दिए हैं। तभी तो वह बस में बैठे-बैठे समान निर्लिप्त भाव से उस चिट और मित्र के पत्र की पंक्तियों को दुहराकर भी उनके प्रभाव से अछूता रह सकता है। चिट थी, ‘‘तुम्हारी साधना और प्यार के हित में मैं जा रही हूँ। कुछ भी कटु कहा किया हो तो माफ करना। यही समझना कि हमने एक-दूसरे को गलत समझा....और वह पत्रांश था, ‘‘हां, यहां बड़ी सनसनी है। अचानक ही तुम्हारी अमला जी की मृत्यु हो गई...सुनते हैं, रात को अच्छी-भली थीं और कोई ऐसी बात नहीं थी। जिस ढंग से वह सब हुआ उससे लगता है कि मामला अतिरिक्त सावधानी से दबा दिया गया।’’

हां, चिट और पत्रांश दोनों के जवाब में वह अक्सर अपने मन में दो ही बातें उठती हुई पाता है-‘‘रंजना अपने इस नये साथ पर सुखी है न...’’, ‘‘कभी मिलेगी तो दोनों किस तरह मिलेंगे ?’’ तथा ‘‘अमला की मृत्यु...हत्या...आत्महत्या...?’’ तभी आकाश से उतरी गंगा की तरह अमला की मूर्ति आ खड़ी होती है...वही अनेक रहस्य-गुंथी मुस्कान सहित...
निश्चेष्ट जड़ लेटा अमर...और उसकी छाती पर अधीर मुक्के मारती रंजना। तहों में लिपटी धधकती चिनगारी से उसके वे शब्द साकार हो आते हैं, ‘‘मैं पोटाशियम साइनाइड खा लूंगी और कह दूंगी कि तुमने मुझे मार डाला...’’ नहीं...नहीं...ये शब्द ‘उस’ रंजना के नहीं हो सकते। शायद इसलिए ‘उस’ अमर ने अपने को अपराधी महसूस नहीं किया था। अब ‘इस अमर’ को क्या अधिकार है कि वह अपराधी महसूस करे ? अगर कोई अपराध है तो सिर्फ इतना ही कि यह उस सबका मात्र दर्शक है, श्रोता है। पर यों मात्र दर्शक और श्रोता रह पाना क्या इतना आसान है ? अगर वहां कोई ऐसी विभीषिका नहीं है, तो क्यों उसे लगता रहा कि ‘उस अमर का भूत’ उसके पीछे-पीछे छाया की तरह लगा है....जरा मुड़ा कि वह सिर पर सवार हो जाएगा ? लेकिन अब सामने कहां भागोगे ? धरती के इस छोर पर आकर तो सामने एक निराधार नीलिमा ही रह जाती है...निराकार...नेति....

‘‘अरे, कैसे लेखक हो ? तुम भूत से डरते हो ?’’ और चेहरे से कपड़ा हटाकर अमला उसी संयत मुस्कराहट में खड़ी थी और वही महीन कपड़ा उसने अमर के मुंह पर डाल दिया था। कपड़े के पार अंधेरे-उजाले की झिलमिली में उसे अमला आधी यथार्थ लगी थी और आधी स्वप्न।
‘‘तुम्हारी आंखों पर मोहिनी का पर्दा पड़ा है।’’ यह वाक्य सचमुच ही रंजना ने कहा था ?

आज दोपहर को सीपियों और शंखों की माला बेचनेवालियों से दो-एक बातें पूछ-ताछकर वह पश्चिम की ओर रेतीले टीलों की ओर चलता रहा और पीछे हवा उसके पैरों के निशानों पर धूल की तहें बिखेरती रही। सामने लाइट हाउस था, उसी तरह रेत में पांव गड़ाए हुए। लौटकर होटल की बाउण्ड्री पार करते ही उसकी निगाहें ऊपर की तरफ उठ गईं तो अटकी ही रह गईं। देर तक खड़ा-ख़ड़ा देखता रहा...फिर खुद ही सहसा चौंककर इस तरह सकपका उठा मानो किसी को उघड़ा देख रहा हो। ऊपर बरामदा था। सिर्फ भीगे-भीगे लम्बे केशों को पूरी लम्बाई में ताने एक गोरा-गोरा हाथ था और दूसरे हाथ का कंघा उन्हें इस सिरे से उस सिरे तक सुलझाता चला जाता था...साथ ही एक लम्बी सिसकारी तैरती चली जाती, पता नहीं कंघे का स्वर था या सुलझने की खिंचावट का दर्द। केश हाथ की लम्बाई पार करके हथेली पर कई पतली-पतली लटों में फैले नीचे झूल आए थे। हर बार कंघा उठता और सांय करता हुआ लटों के सिर पर उतर आता। शेष शरीर और चेहरा खंभे की ओट में था। दृश्य में असाधारण कुछ भी नहीं था। लेकिन अमर ने पाया कि वह स्तब्ध रह गया है और बिजली की तरह पुरी के खुले सागर-तट पर अमला की फहराती केशराशि में उसकी उंगलियां कंघे की तरह तैरती चली गई हैं-‘‘बिखरते अलक दल-बादल....’’
तब इतनी देर से टुकड़ों-टुकड़ों में भटकती घुमड़न एक अर्थ पाने को मचलने लगी।

सांझ को देर तक सागर के किनारे-किनारे रेत में बैठा रहा, भटकता रहा....पांच साल हो गए...अमला और रंजना एक झटके से निकल गई हैं। आज उन सबको याद करके वह अपना दुख भुलाएगा ?-नहीं। तब फिर क्या किसी सत्य की उपलब्धि करेगा ? नहीं ? तो क्या उस ‘अमर के भूत’ से पीछा छुड़ाने के लिए प्रायश्चित्त करेगा ? नहीं...नहीं...नहीं। तो फिर क्यों उन सबको मुड़कर देखने को मन होता है ? क्या केवल इसलिए कि वह ‘उनसे’ दूर आ गया है और अब निर्वैयक्तिक भाव से देख सकता है ? उसे कोई उत्तर नहीं सूझा और वह यों ही लौट आया।
लौटा नहीं। कमरे में आया तो ऐसी बेचैनी होती रही जैसी किसी से कह आया हो, ‘जरा ठहरो, मैं कपड़े बदलकर अभी आता हूँ; और कपड़े बदलकर जब बदन तोड़ा तो फिर लगा कि कोई बाहर बुला रहा है, वहां जाना है। झुंझलाहट भी हुई-बाहर जाओ तो ऐसा लगता है जैसे कमरे में अकेला बैठा कोई उसकी राह देख रहा है, उसे जाना चाहिए; और यहां आओ तो ऐसा लगता है जैसे बाहर जाना है, बाहर जाना है। तस्वीर की तीनों बिल्लियां मुंह चिढ़ा कर हंस रही थीं और ऊपर खिलखिलाहटों के साथ कैरम का स्ट्राइकर गोटों को इधर-ऊधर भगा रहा था। शायद कुछ लोग वीक-एण्ड मनाने आए हैं...कौन है वह सुकेशिनी ? मन हुआ, इस समय बैठकर पुरी वाली डायरी पढ़े। तभी कोई बोला-पढ़ी तो थी रंजना ने, आखिर उसमें ऐसा क्या था ? आज पांच साल बाद उसे एक खत रंजना के नाम लिखना हो तो क्या लिखेगा ? ‘‘ रंजना, शायद तुम इस पत्र को पाकर चौंकोगी।’’

पुकार अनसुनी करते नहीं बनी, और पत्र की इस आधी लिखी लाइन को काटकर यों ही पेन खुला छोड़कर वह बाहर निकल आया। रोशनी जलती रही, खिड़की खुली रही।
सागर की गरज और सांय-सांय चलती हवा...सड़क पर हवा में नाचती धूल के सांप लोट रहे होंगे। चदरा कसकर लपेट लिया।
आकर फिर उसी चट्टान पर बैठ गया। बीच में जब लहरें टकरातीं तो सफेद-सफेद झाग चमक उठते। शायद ज्वार आ रहा था-बाग-टूटे घोड़ों की सेना की तरह पानी का रेला किनारे पर पछाड़ें खाता और इस सिरे से उस सिरे तक छपाक् का स्वर फैल जाता-उसने गिनने की भी कोशिश की कि एक बार में कितनी लहरें पानी के बीच में और किनारों से एक साथ टकराती हैं। लेकिन जब कई ओर एक साथ टकराहटें सुनाई दीं और फिर सब मिलकर बादलों में लुढ़कती चली जाने वाली कई गरज के रूप में हो गई तो उसने यह प्रयत्न छोड़ दिया और चुपचाप बहुत, दूर कहीं रह-रहकर हल्की-सी बत्ती को झिलमिलाते देखता रहा-मछुओं की कोई नाव है या जहाज़....भीतर से कोई गीत उसकी इस स्तब्ध मनःस्थिति को वाणी दे सकेगा। एक साथ चेतनाहीन और सचेत, भरा-भरा और नियाहत खाली, बहुत भारी-भारी और एकदम हल्का-कुछ अजब-सी तन्द्रा में घुला वह बैठा रहा और फुहारे का खारापन होंठों को फड़फड़ाता रहा।

उड़ते हुए चादरे को संभाले जब डगमगाता-सा लौटा तो सागर के उस सुनसान में ऐसा लगा जैसे इस तट पर जाने किन युगों से यों ही अकेला भटक रहा है। न वहां कोई होटल है और न लाल-सफेद धारियों वाला मन्दिर है-बस एक सीमाहीन सागर और उसके रेतीले किनारे पर भुनगे-सा भटकता वह। और भटकने वाला ‘वह’ मानो उसके साथ-साथ छाया की तरह होटल की सीढ़ियां चढ़कर आया। ‘उसकी’ उपस्थिति एकाध बार तो इतनी निश्चित लगी कि सहसा वह सीढ़ी पर ठिठक गया-हो सकता है होटल में ठहरा उसी जैसा कोई कविनुमा प्राणी हो और इस समय लौट रहा हो। लेकिन कोई न था। उसे किसकी उपस्थिति लगी थी अपने साथ ? अमर की ? रंजना की ? या अमला की ? या तीनों की एक साथ ?...तब मानो सहारे के लिए उसने सामने देखा। ऊपर बरामदे में एकदम अंधेरा था। बस, उसी के कमरे की खिड़की खुली थी और सारे अंधेरे वातावरण में उद्भासित चौखटा दीख रहा था। चौखटे के आसपास अंधेरा और भी गाढ़ा हो गया था।

अकारण ही एक झटके से उसे याद आया, अमला का पहला पत्र मिला था-‘‘ मेरे अनेक मित्र हैं अमर जी, किसी से ब्रिज के क्लब-स्पेड की बातें होती हैं, किसी से साड़ियों और सिनेमाओं की। आप आज्ञा दें तो आपसे समय-समय पर लिखने-पढ़ने की बातें कर लिया करूं ?...लेकिन शर्त रहेगी हमारी दोस्ती की। हममें से कोई भी जब ऊब जाएगा तो चुपचाप परिधि से निकल जाएगा और दूसरा उसका कारण नहीं पूछेगा...रेल के मुसाफिरों जैसी नियति मानकर ही हम लोग निकट आएंगे’’ आज कहां है अमला... कि पूछना चाहे तब भी पूछ ले ? जवाब तो नहीं, लेकिन किसी ने ठीक इसकी उल्टी बात कही थी, ‘‘मैं बहुत-बहुत अकेली हूँ अमर, मेरा कोई नहीं है। जो भी समझो वह...तु...तुम ही हो..’’

अच्छा मान लो, आज वह अमला, रंजना और ‘उस अमर’ को दूर खड़े व्यक्ति की तटस्थता से देखे तो ?...उन ‘तीनों में से एक’ नहीं, केवल दूर खड़ा हुआ एक व्यक्ति। जिस सम्पूर्णता की अनुभूति वह तब नहीं कर पाया था, क्या उसकी झलक आज पा सकेगा ? मान लो, आज वह फैसला देने के मोह को रोककर, समान निर्वैयक्तिक भाव से, समान निष्पक्षता से सिर्फ देखता रहे, और तीनों उसके सामने स्वयं अपना-अपना व्यक्तित्व उद्घाटित करें....? नहीं, नहीं, किसी और के लिए नहीं, केवल अपने लिए। ‘आत्म-साक्षात्कार’ भी नहीं, मात्र अपने  सामने ‘कन्फेशन...’

उसने कलम उठाकर निब जोर से कागज़ पर दबाया। स्याही सूख गई थी। नाखून पर चलाकर एकाध बार यों ही उलटी-सीधी लाइनें खींचीं, कहीं आगे से और कहीं पीछे से टूटी और छूटी हुई अनुभूतियों और मंडराती हुई पंक्तियों को पकड़ना चाहा। बीच-बीच में लहरें और चौखटे बनाए। ऐसा लगा जैसे इसी में उसने गहरी सार्थकता खोज ली है। लेकिन होश आया तो देखा कि कलम का स्याही से प्रवाह आ गया है और आंखों में झलमलाती छायाकृतियों के रूप खुद बखुद अधिक उजले और साफ हो आए हैं...
ठीक यही क्षण था जब उसे लगा था कि सागर का शेषनाग अपनी झलमल-झलमल गुंजलक खोलकर एकदम उसकी खिड़की के नीचे तक सरक आया है और दीवारों पर लहरों के फन पटक रहा है....

दो

 

 

‘इसी मुस्कान से वह अमर का स्वागत करेगी।’ अमला ने सोचा। वह जितना ही इस बात को भूलना चाह रही है कि आज अमर आ रहा है, उतनी ही यह उसकी चेतना के रेशे-रेशे पर छाए चली जा रही है। एकाएक ही अमला ने शरीर पर पड़े रेशमी लिहाफ को झटककर यों अलग कर दिया मानो लिहाफ के साथ ही यह बात भी दूर जा पड़ेगी। पलंग के चारों ओर बंधी हुई मकड़ी के बड़े-बड़े जालों वाले डिज़ाइन की मसहरी ने एक क्षण को जैसे उसकी नज़र को बांध लिया। फिर धीरे-धीरे उन जालों के पार बड़े-बड़े शीशों वाला दरवाजा और शीशों के पार कुहरे और भोर के हल्के प्रकाश की मिली-जुली धुन्ध में खड़े वृक्षों के अस्पष्ट-से चित्र काले-काले धब्बों की तरह उसकी आंखों के आगे उभरने लगे। बाहर का सभी कुछ बड़ा धुंधला-धुंधला, अस्पष्ट-सा था, फिर भी मसहरी के कटघरे में बन्द अमला को वहां की उन्मुक्तता ने जैसे खींचा। बड़ी लापरवाही से कन्धे पर पश्मीने का शॉल डाल, वह मसहरी से निकली, पर जैसे ही उसने दरवाजा खोला, सर्द हवा का एक झोंका उसे ऊपर से नीचे तक सिहरा गया। शॉल को उसने अच्छी तरह कन्धे पर लपेटा और बरामदा पार करके सीढ़ियां उतरती हुई वह लॉन पर आ खड़ी हुई। ओस में भीगी घास की ठण्डक को उसने जैसे चप्पलों के पार भी महसूस किया। पर तन को सिहराने वाली यह ठण्डक मन को जाने किस पुलक में डुबो रही थी कि वह आगे बढ़ गई। दोनों ओर क्यारियों में खिले हुए डालिया के बड़े-बड़े फूल इठला रहे थे। उसने बाईं ओर देखा, उधर के ब्लॉक में सन्नाटा छाया हुआ था। तो भैया-भाभी अभी सो रहे हैं। वही कौन रोज इतनी जल्दी उठती है, पर आज तो जैसे उसे नींद ही नहीं आई। लॉन के दूसरे सिरे पर माली को फूल तोड़ते देख उसने अनुमान लगाया कि पिताजी पूजा में बैठने ही वाले होंगे....और फिर यों ही दायें-बायें देखती धीरे-धीरे वह सारा लॉन पार कर गई और फिर एक पेड़ के नीचे जाकर घूम पड़ी तो तीन टुकड़ों में बंटी हुई पूरी की पूरी कोठी उसके सामने थी।

‘‘बड़े शहरों में स्थान का इतना अभाव रहता था कि लोग निकटतम मेहमानों को भी बोझ की तरह लेते हैं, फिर मैं तो एक से निकट होते हुए भी अपरिचित ही हूं। यह भी नहीं जानता, तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं, और वे मुझे किस रूप में लेंगे, इसलिए तुम्हारे साथ ठहरते हुए बड़ी हिचक लग रही है। जो भी हो, कम से कम तुम मुझे निःसंकोच भाव से बता देना या स्टेशन ही मत आना, मैं कहीं भी ठहरकर तुमसे मिलने आ जाऊंगा।’’

‘स्थान का अभाव’ और एक ही बार में उस विराट कोठी को अपनी नज़रों में समेटते हुए अमला मुस्करा पड़ी। ‘निकट होते हुए भी अपरिचित।’ सच ही तो है, एक साल के इस पत्र-व्यवहार से हम निकट से निकटतम और घनिष्ठ से घनिष्टतम हुए हैं, फिर भी एक-दूसरे के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते, कुछ भी तो नहीं जानते। क्या सोचता होगा अमर मेरे बारे में...यही न कि एक मध्यम वर्ग की पढ़ी-लिखी लड़की है, जो साहित्य में रुचि रखती है और वह...वह क्या सोचती है ? उसने तो कभी कुछ नहीं सोचा। वह जानती है कि हिन्दी का एक लेखक जिस तरह का होता है उससे भिन्न अमर में कुछ नहीं होगा। हां वह लिखता अच्छा है, उसमें प्रतिभा है, उसके विचारों में आग है, भावों में गहराई और अनुभूतिजन्य टीस है। और पत्र-पत्र तो वह सचमुच ऐसे लिखता है कि मन बंध जाए, डूब जाए।

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