नई पुस्तकें >> मानस चिन्तन भाग-1 मानस चिन्तन भाग-1श्रीरामकिंकर जी महाराज
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प्रस्तुत है मानस चिंतन माला का प्रथम पुष्प - भगवान के अवतार का रहस्य...
मानस चिन्तन का उद्देश्य रामचरितमानस को वर्तमान युग के सन्दर्भ में देखना है। विज्ञान की चामत्कारिक उन्नति ने मनुष्य के मस्तिष्क को इतना अभिभूत कर लिया है कि वह प्रत्येक वस्तु को उसके प्रकाश में देखना चाहता है। वस्तुतः यह भी एक अतिवादी दृष्टिकोण है। स्वयं भौतिक विज्ञान या वैज्ञानिकों ने कभी यह दावा नहीं किया कि वे सृष्टि के सारे रहस्यों को जान चुके हैं। अतः उचित दृष्टि यही हो सकती है। कि हम विज्ञान का उपयोग वहीं करें जिसे वह जानने का दावा करता है। पर होता यह है कि विज्ञान के उत्साही भक्त कुछ इसी प्रकार की मनोवृत्ति से पीड़ित हो जाते हैं जैसा कि वे पुरातनवादियों पर आरोप लगाते हैं कि वे तो ‘अन्धविश्वासी होते हैं। स्वयं वे भी विज्ञान के अन्धविश्वासी समर्थक को छोड़ और कुछ नहीं होते हैं।
विज्ञान का विषय भौतिक पदार्थ है। उस दिशा में उसकी खोज आश्चर्यजनक हो सकती है, पर जहाँ तक मानव-मन के जटिल रहस्यों का सम्बन्ध है, उसका ज्ञान उसे न के बराबर है। आधिभौतिक पदार्थों के निर्माण में वह चाहे जितना सहायक हो पर मानव-मन के निर्माण में उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। इसे कौन अस्वीकार कर सकता है कि केवल बाह्य उन्नति ही व्यक्ति और समाज को पूर्णता की ओर नहीं ले जा सकता। अतः व्यक्ति की सर्वागीण उन्नति के लिये ‘मन’ पर उससे कहीं अधिक ध्यान देने की अपेक्षा है, जितना बाह्य वैभव और विलास की सामग्रियों पर दिया जा रहा है।
महात्मा तुलसीदास ने अपने महान् ग्रन्थ 'रामचरितमानस' के द्वारा हमारी इसी समस्या का समाधान प्रस्तुत किया है। उन्होंने पूर्ण व्यक्ति और समाज का जो रूप ‘रामराज्य' के वर्णन में अंकित किया है, किसी भी युग में किसी समाज या व्यक्ति के लिये उसे पुराना नहीं माना जा सकता। उनके रामराज्य में बाह्य वैभव और आन्तरिक शान्ति का पूरी तरह सामंजस्य है। रामराज्य में सोने के महल हैं, मणिदीप हैं, दरिद्रता का कहीं लेश नहीं है। सभी स्वस्थ और सुन्दर हैं। सारा नगर वाटिका, उपवन और राजमार्गों से सुशोभित है। राज्य पूरी तरह सुव्यवस्थित है पर बस इतना ही तो रामराज्य नहीं है। यह सब तो रावण की लंका में भी उपलब्ध है। रावण की निन्दा करते हुए भी उन्होंने लंका के वैभव वर्णन में कोई कृपणता नहीं की है। समुद्र पार करने के बाद श्री हनुमानजी ने शिखर से लंका का जो रूप देखा, वह चामत्कारिक था
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुन्दरायतना घना।
चउहटुट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधिबना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बने।।
बन बाग उपबन बाटिका सरकूप बाप सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल से ल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।। ५/२-छ द
वैभव, व्यवस्था, सौन्दर्य, स्वास्थ्य और सेना, लंका में क्या नहीं हैं? फिर भी वह रामराज्य नहीं है? क्योंकि वहा रहने वाले व्यक्ति मानसिक रूप में दरिद्र हैं ? उनका मन कुरूप और आन्तरिक रोगों से ग्रस्त है। गोस्वामी तुलसीदासजी लंका का वर्णन करने के लिये उस अवसर को चुनते हैं, जब हनुमानजी ने उसको देखा। उनका अभिप्राय बड़ा सांकेतिक है। हनुमानजी ने ही लंका को प्रारम्भ में पूरी तरह से देखा और फिर उसको अन्त में जला डाला। इस घटना को किसी एक नगर के जलाये जाने व बदले की भावना से प्रेरित के रूप में देखना तुलसीदासजी को पूरी तरह से न समझने के कारण ही सम्भव है।
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- अनुवचन
- महाराजश्री : एक परिचय
- लेखक की ओर से
- भूमिका
- शाश्वत राम
- अगुण-सगुण
- जय-विजय प्रसंग
- जालन्धर प्रसंग
- नारद प्रसंग
- मनु-शतरूपा प्रसंग
- प्रतापभानु प्रसंग
- अवतार हेतु
- राम का व्यक्तित्व
- सौन्दर्योपासक तुलसी और उनके राम
- राम का शील
- नीति-प्रीति
- साहित्य-सूची