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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस दर्पण भाग-1 शक्ति शान्ति भक्ति

मानस दर्पण भाग-1 शक्ति शान्ति भक्ति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15253
आईएसबीएन :0

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प्रस्तुत है मानस दर्पण माला का प्रथम पुष्प - शक्ति, शान्ति और भक्ति की खोज

जनक सुता कइ सुधि भामिनी।
जानहि कहु करिबरगामिनी।।
पंपा सरहि जाहु रघुराई।
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।।
सो सब कहिहि देव रघुबीरा।
जानतहूँ पूछहु मतिधीरा।।
बार बार प्रभु पद सिरु नाई।
प्रेम सहित सब कथा सुनाई।।

कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे।।
तजि योग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू।।
जाति हीन अघ जन्म महि, मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहि बिसारि।। ३.३६

भगवती श्री सीता के अन्वेषण के इस प्रसंग के माध्यम से जनकनन्दिनी के अन्वेषण की गाथा तथा उसका हम-सबके जीवन से जो बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है, उस पर हम कुछ विचार करेंगे। अभी आपके सामने जो पंक्तियाँ पढ़ी गयीं, वे भक्तिमती शबरी तथा भगवान् श्रीराम के मध्य हुए वार्तालाप के प्रसंग की हैं।

दण्डकारण्य में रावण के द्वारा श्री सीताजी चुरा ली गयी हैं और विदेहनन्दिनी की खोज में प्रभु दण्डकारण्य से आगे की ओर बढ़ रहे हैं। इस यात्रा क्रम में वे शबरी के आश्रम में जाते हैं तथा उनके समक्ष नवधा भक्ति का उपदेश देने के बाद प्रभु उनसे एक अनोखा प्रश्न करते हुए दिखायी देते हैं। भगवान् श्री राम ने शबरी जी से पूछा कि “हे भामिनी ! हे करिवर गामिनी ! आप कृपा करके यह बतादें कि आपको जनकनन्दिनी का कोई समाचार ज्ञात है क्या ? तथा श्री सीताजी को पाने का कौनसा मार्ग है, इसका भी आप हमें संकेत दें ? प्रभु का प्रश्न सुनकर शबरीजी संकोच में पड़ जाती हैं। किन्तु भगवान् श्री राघवेन्द्र के अनुरोध पर वे उनसे कहती हैं कि आप तो सर्वज्ञ तथा अन्तर्यामी हैं, आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी यदि आपने मुझसे प्रश्न किया है तो मैं आपसे अनुरोध करूंगी कि आप पंपासर की यात्रा करें और उस यात्रा में आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी तथा उसके पश्चात् विदेहनन्दिनी की खोज का मार्ग प्रशस्त होगा। शबरीजी के अनुरोध को स्वीकार करके प्रभु पंपासर की यात्रा करते हैं। वहाँ पर सुग्रीव से मित्रता होने के पश्चात् विदेहनन्दिनी के अन्वेषण का जो क्रम प्रारम्भ होता है उसका बड़ा विस्तृत वर्णन श्री रामचरितमानस में आप पढ़ते हैं। सारे बन्दर दशों दिशाओं में सीताजी को खोजने के लिये भेजे जाते हैं। इन बन्दरों में जो सर्वश्रेष्ठ योग्य तथा बुद्धिमान् योद्धा थे, वे दक्षिण दिशा की ओर भेजे गये और अन्त में सभी बन्दर समुद्र के किनारे रुक जाते हैं किन्तु उनमें से एक मात्र हनुमान्जी ही ऐसे हैं जो उस विशाल समुद्र को पार करने के पश्चात् अशोक वाटिका में जाकर जनकनन्दिनी के चरणों का साक्षात्कार करते हैं। श्री सीताजी के समक्ष पहुँचकर हनुमान्जी अपने अन्त:करण में ऐसी विलक्षण तृप्ति का अनुभव करते हैं जिसके लिये उन्होने एक बड़ा अनोखा सा वाक्य कहा। हनुमान्जी ने श्री सीताजी से निवेदन करते हुए कहा कि :
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता ५.१६.६
माँ ! अब मैं कृतकृत्य हो गया। यह बात तो ऐसी बड़ी अटपटी सी प्रतीत होती है क्योंकि शास्त्रों की मान्यता तो यह है कि ईश्वर का साक्षात्कार करने के बाद जीवन में पूर्णता आ जाती है और हनुमानजी ने तो भगवान् श्री राम का साक्षात्कार कर हीं लिया था। किन्तु श्री सीताजी का आशीर्वाद पाने के बाद ही हनुमानजी के मुख से यह वाक्य निकलता है कि “अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता'। इस तरह इस प्रसंग का समापन होता है श्री हनुमानजी की कृतकृत्यता से।।

इस प्रसंग के अन्तराल में क्या तात्पर्य है?
आइये ! थोड़ा सा इस पर भी विचार करें...

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