आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन भाग-12 मानस प्रवचन भाग-12श्रीरामकिंकर जी महाराज
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प्रस्तुत है मानस प्रवचन माला का बारहवाँ पुष्प - काम क्रोध मद मान न मोहा...
काम कोह मद मान न मोहा।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह के कपट द भ नहि माया।
तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया॥ २/१२६/१
महर्षि वाल्मीकि कहते हैं कि जिनके हृदय में न काम है, न क्रोध है, न मद है, न मोह है, न मान है और न ही लोभ है तथा जिनका हृदय कपट, दम्भ और माया से शून्य है, आप ऐसे भक्तों के हृदय में निवास कीजिये। जिन पाँच स्थानों की चर्चा पिछले वर्षों में की जा चुकी है उनमें तथा इसमें आपको एक भिन्नता की अनुभूति होगी। उन पाँच स्थानों में यह बताया गया कि भगवान् के निवास के लिये हमारे हृदय में किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता है, हमारा हृदय कैसा हो, उसमें क्या-क्या वस्तुएँ हों, तब भगवान् का निवास होगा, परन्तु छठवें स्थान की विशेषता यह है कि इसमें यह नहीं बताया गया कि क्या चाहिये अपितु यह कहा गया है कि क्या नहीं चाहिये। हमारे हृदय में क्या नहीं होने पर भगवान् निवास करेंगे यही छठवें स्थान में महर्षि वाल्मीकि का सन्देश है। इस छठवें स्थान में विकारों की (दोषों की) गणना करने का अभिप्राय है कि जब हमारा अन्तःकरण सब विकारों से शून्य हो जाता है तो हमारे हृदय में भगवान् निवास करते हैं। परन्तु समस्त विकारों से शून्य हो जाता है इसका मूल सूत्र क्या है?
सारे शास्त्रों तथा सन्तों की मान्यता है कि ईश्वर अन्तर्यामी है उसे कहीं से लाना नहीं है अपितु वह तो प्रत्येक के हृदय में बैठा हुआ ही है। पर जीवन की विचित्र विडम्बना यह है कि हमारे अन्तःकरण में जिसे सक्रिय होना चाहिये वह निष्क्रिय है और जिन्हें निष्क्रिय होना चाहिये वे सक्रिय हैं। अन्तःकरण में ईश्वर का निवास है तो हमारे जीवन में ईश्वर का नियन्त्रण होना चाहिये पर विचित्र विडम्बना यह है कि हमारे अन्तःकरण में जो दुर्गुण-दुर्विचार बैठे हैं उन्हीं के द्वारा हमारा जीवन संचालित हो रहा है और ईश्वर की सत्ता का बोध नहीं हो रहा।
वस्तुतः महर्षि वाल्मीकि ने यह कहा कि भगवान् के निवास के लिये किसी वस्तु को लाने की आवश्यकता नहीं है अपितु जिन्होंने अनधिकृत रूप से हृदय में प्रवेश पा लिया है उन तत्त्वों को निकालने की आवश्यकता है। इसका तात्पर्य क्या है? इसे यों कह सकते हैं कि जैसे कई बार व्यवहार में तथा समाचार पत्रों से आपको पता चलता है कि किसी के मकान या स्थान पर कुछ लोगों ने अधिकार न होते हुए भी अधिकार कर लिया है। भले ही इस तरह की घटनाएँ बाहर के जीवन में आजकल बढ़ रही हैं पर अन्तःकरण के सन्दर्भ में विनयपत्रिका में, गोस्वामीजी ने इस सत्य की ओर भगवान् का ध्यान आकृष्ट किया है। विनय-पत्रिका के एक पद में वे प्रभु से कहते हैं कि-
मैं केहि कहीं बिपति अति भारी।
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