आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन भाग-11 मानस प्रवचन भाग-11श्रीरामकिंकर जी महाराज
|
0 |
प्रस्तुत है मानस प्रवचन माला का ग्यारहवाँ पुष्प - मंत्र राजु नित जपहिं तुम्हारा...
काम कोह मद मान न मोहा।।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया।
तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया॥ २/१२६/२
भगवान् श्रीराम वन यात्रा में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में जाते हैं। महर्षि के चरणों में प्रभु ने नमन किया। महर्षि उनका स्वागत करते हैं। उस स्वागत के पश्चात प्रभु उनसे पूछते हैं कि मुनिराज! आप मुझे ऐसे स्थान की ओर संकेत करें जहाँ मैं निवास करूं। प्रश्न सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने इसे केवल स्थूल अर्थों में ही नहीं लिया। क्योंकि स्थूल अर्थ तो इतना ही था कि भगवान् को चौदह वर्षों के लिये वन में रहने का आदेश दिया गया था, और प्रभु महर्षि से यह जानना चाहते हैं कि इस चौदह वर्षों की अवधि के लिये उन्हें कहाँ रहना चाहिये। महर्षि वाल्मीकि अगर भगवान् राम को केवल एक राजकुमार के रूप में देखते होते तो इसका उत्तर देना अत्यन्त सरल था। पर वे जानते थे कि उनके समक्ष राजकुमार के रूप में जो विद्यमान हैं वे साक्षात् ब्रह्म हैं। अतः महर्षि ने उनके प्रश्नों (जिज्ञासा) को साधारण अर्थों में नहीं लिया इसीलिये जो उत्तर उन्होंने दिया वह मात्र स्थूल नहीं था। यद्यपि वे स्थूल दृष्टि से भी यह कहते हैं कि आप चित्रकूट में निवास कीजिये, पर उससे पहले उन्होंने भगवान् श्रीराम से एक व्यंग्य भरा प्रश्न कर दिया।
महर्षि वाल्मीकि ने कहा कि आपने तो निःसंकोच मुझसे पूछ दिया कि मैं कहाँ रहूँ, पर मुझे तो पूछते हुए संकोच हो रहा है, क्योंकि मेरे प्रश्न को सुनकर आपको लगेगा कि मैं आपके प्रश्नों को काटने की चेष्टा कर रहा हूँ पर आपका प्रश्न इतना अटपटा है कि उस प्रश्न के बदले में मैं प्रश्न ही कर सकता हूँ। तब मुनिराज ने पूछा कि आप कृपा करके पहले यह बताइये कि आप कहाँ निवास नहीं करते? और जब आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर दे देंगे तो मैं भी कह दूंगा कि आप यहाँ रहिये।
|