आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन भाग-13 मानस प्रवचन भाग-13श्रीरामकिंकर जी महाराज
|
0 |
प्रस्तुत है मानस प्रवचन माला का तेरहवाँ पुष्प - लोभ न छोभ न राग न द्रोहा...
काम कोह मद मान न मोहा।
लोभ न छोभ न रोग न द्रोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया।
तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया। २/१२६/२
भगवान् श्रीरामभद्र की महती अनुकम्पा से इस वर्ष पुनः यह सुअवसर मिला है कि हम सब इस पवित्र प्रांगण में एकत्रित होकर भगवद्चरित्र का आनन्द ले सकें। हमारे स्नेहास्पद श्री रमणलाल जी बिन्नानी ने प्रवचन सत्र के सन्दर्भ में एक अनोखी गणना बतायी कि पिलानी में आठ वर्ष हुए हैं, दिल्ली में सोलह तथा कलकत्ता में बत्तीस वर्ष। सचमुच ये अंक ऐसे लगते हैं कि जैसे एक दूसरे से जुड़े हुए हों! यद्यपि लगता तो है कि पिलानी का अंक छोटा है पर यों कह लीजिये कि मूल तो संक्षिप्त ही होता है। यह प्रभु की ही अनुकम्पा है कि यह लाभ हमें इतने वर्षों से अनवरत मिल रहा है और इसके पीछे प्रभु ने जिन्हें निमित्त बनाया है वे हैं हमारे बिरला दम्पति श्री बसन्त कुमार जी बिरला तथा सौजन्यमयी श्रीमती सरला जी बिरला। वे इसके उपयुक्त पात्र हैं, उनकी श्रद्धा, उनकी भावना और उनकी सेवावृत्ति सराहनीय है। आइये! अब प्रस्तुत प्रसंग पर एक दृष्टि डालें।
महर्षि बाल्मीकि से प्रभु ने जब यह प्रश्न किया कि मैं कहाँ रहूँ? तो उसके उत्तर में महर्षि ने चौदह प्रकार के भक्तों के हृदय को प्रभु के निवासस्थान के रूप में बताया। अभी आपके समक्ष जो पंक्तियाँ पढ़ी गयीं वे पिछले वर्ष से ही प्रारंभ हुई थीं पर पूरी नहीं हो पायीं। मैं जब उन पूरी पंक्तियों पर ध्यान देता हूँ तो ऐसा लगता है कि इस प्रसंग में न जाने कितने वर्ष लग जायँगे। आज अभी थोड़ी देर पहले सौजन्यमयी श्रीमती सरला जी बिरला ने कहा कि प्रसंग पूर्ण करने की कोई जल्दी नहीं है। तो भई! मैं तो स्वयं भी धीमी गति से चलने का अभ्यस्त हूँ और जब यजमान भी उसी मत का हो तो यदि विलम्ब हो तो भी मुझे विश्वास है कि आप लोगों को प्रसन्नता की ही अनुभूति होगी।
ये जो दो पंक्तियाँ हैं वे वर्णित चौदह स्थानों में सबसे संक्षिप्त हैं। किन्तु इन दो पंक्तियों में जो बातें कही गयी हैं, जब उन पर दृष्टि जाती है तो ऐसा लगने लगता है कि संसार में क्या कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है जिसके अन्तःकरण में इन विकारों में से कोई विकार न हो। महर्षि वाल्मीकि कहते हैं कि जिनके हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग, क्षोभ आदि की वृत्तियों का अभाव है, आप उनके हृदय में निवास कीजिये! यद्यपि गणना में ये अंक बड़े संक्षिप्त से हैं किन्तु कठिनाई का अनुभव तो तब होता है कि जब इस पर दृष्टि जाती है। कि इन दोषों का जो निराकरण है, क्या वह सम्भव है? और यदि सम्भव है तो उसका उपाय क्या है? गोस्वामीजी ने इस सन्दर्भ में रामचरितमानस में अनोखे संकेत सूत्र दिये हैं। आइये! संक्षेप में उन पर दृष्टि डालने की चेष्टा करें।
तुलसीदास जी ने एक पंक्ति लिखी है जिसमें उन्होंने यह बताया है कि ब्रह्मा ने जिस सृष्टि का निर्माण किया है वह गुण तथा दोषों के मिश्रण से बनी है -
कहहिं बेद इतिहास पुराना।
बिधि प्रपंच गुन-अवगुन साना॥ १/५/४
सानने का तात्पर्य होता है कि जब दो वस्तुओं को मिलाकर इस रूप में परिवर्तित कर दिया जाय कि उन दोनों को अलग-अलग करना कठिन हो जाय या असंभव जैसा हो जाय। किन्तु प्रश्न यह है
|