आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन भाग-4 अन्तर दर्पण मानस प्रवचन भाग-4 अन्तर दर्पणश्रीरामकिंकर जी महाराज
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प्रस्तुत है मानस प्रवचन माला का चौथा पुष्प - अन्तर दर्पण...
श्री रामः शरणं मम
द्वितीय प्रवचन
कल आपके समक्ष यह चर्चा चल रही थी कि जिस समय गोस्वामीजी अपने गुरुदेव से प्रार्थना करते हुए यह कहते हैं कि आप मेरी दृष्टि और मेरे दर्पण के दोष दूर कीजिये। उस समय वे दृष्टि की तुलना तो करते हैं विवेक से, तथा दर्पण की व्यक्ति के मन से। गोस्वामीजी का तात्पर्य यह है कि जब हम और आप दर्पण के सामने खड़े होकर उस पर दृष्टि डालते हैं तो दर्पण हमारी वास्तविक आकृति पर आयी हुई मलिनता को प्रतिबिम्बित कर देता है तथा उस मलिनता को हम देख भी सकते हैं। और फिर उस कमी को दूर करने की चेष्टा करते हैं। इसी प्रकार से जब हम मन के दर्पण में विवेक की आँखों से देखने की चेष्टा करेंगे। तो हमें अपने अन्तर्जीवन की दुर्बलता तथा अपनी कमियों का भान होगा। और जब अपनी बुद्धि से हम अपने अन्तर्मन में निहित दोषों को देखेंगे तो स्वभावतः एक साधक के रूप में उन्हें दूर करने की चेष्टा भी करेंगे। इसीलिये अयोध्याकाण्ड के प्रारंभ में गोस्वामीजी गुरुदेव से दर्पण की स्वच्छता की प्रार्थना करते हैं। तथा उस दृष्टि एवं दर्पण का सन्तुलित उपयोग वे महाराजश्री दशरथ के जीवन में प्रस्तुत करते हैं। महाराजश्री दशरथ के पास दृष्टि भी है, और दर्पण भी। लेकिन इन दोनों (दृष्टि और दर्पण) का उपयोग उन्होंने जिस पृष्ठभूमि में किया वह बड़ी महत्त्वपूर्ण
है।
कल यह संकेत किया जा रहा था कि महाराज श्री दशरथ अयोध्या की राज्यसभा में विराजमान हैं। तथा अयोध्या के सभी प्रमुख नागरिक, विशिष्टजन एवं विद्वान् वहाँ पर एकत्र होकर जब महाराज श्रीदशरथ की ओर दृष्टि डालते हैं तो सभी लोगों के अन्तःकरण में उनके प्रति इतनी आदर-भक्ति का उदय होता है कि वे अपने हृदय की भावनाओं को प्रकट करते हुए प्रशंसा के स्वर में एक दूसरे से यह कहते हैं कि विश्व के इतिहास में महाराज श्री दशरथ के समान भाग्यवान् व्यक्ति न तो कोई हुआ है और न ही भविष्य में होने की सम्भावना है। इस प्रकार जब चारों ओर से प्रशंसा का स्वर पूँज रहा था तो उसी क्षण अचानक महाराज श्री दशरथ हाथ दर्पण लेकर स्वयं अपने को देखने लग जाते हैं। अगर विचार करके देखें तो हमें ऐसा प्रतीत होगा कि महाराज श्री दशरथ ने दर्पण देखने का जो समय चुना वह बड़ा उपयुक्त एवं आध्यात्मिक रहस्य से ओत-प्रोत था। इस प्रसंग को स्पष्ट करने के लिये हम आपका ध्यान किष्किन्धाकाण्ड की ओर आकृष्ट करना चाहेंगे जिसमें भगवान् श्रीराम ने श्रीलक्ष्मणजी के समक्ष किसानों की विशेषता का वर्णन करते हुए कहा कि -
कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।। 4/14/8
बोले, लक्ष्मण! चतुर किसान कृषि को उसी प्रकार से निरा रहे हैं। जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का परित्याग कर देते हैं। तो आइये! इस पंक्ति की गम्भीरता पर भी थोड़ा विचार करें। जो लोग कृषि की शैली से परिचित होंगे, वे यह जानते होंगे कि सर्व-प्रथम किसान बड़े परिश्रम से भूमि तैयार करके उस भूमि में वह उस वस्तु के बीज डालता है जिसको वह परिणाम के रूप में पाना चाहता है। यदि वह गेहूँ पाना चाहता है गेहूँ का बीज बोता है। यदि चना पाना चाहता है तो उसका बीज बोता है और वही बीज अंकुरित हो जाता है तथा किसान की खेती लहलहाने लगती है। लेकिन किसान का कार्य इतने से ही नहीं समाप्त हो जाता अपितु अब किसान के सामने एक अत्यन्त कठिन काम आ जाता है। यद्यपि खेत में वे वस्तुएँ भी निकलती हैं जिन्हें वह बीज के रूप में बोता है लेकिन उसके साथ-साथ खेत में एक वस्तु ऐसी भी उपजती है जिसको उपजाने की चेष्टा किसान ने नहीं की। और वह वस्तु है घास। किसान चाहे कितना भी बढ़िया क्यों न हो परन्तु यह सम्भव नहीं है कि उसके खेत में धान के साथ-साथ घास न उगी हो। और सचमुच कितनी बिचित्र भी स्थिति है कि व्यक्ति उपजाना चाहता है है धान अथवा गेहूं, लेकिन बिना चाहते हुए भी उसको उन्हीं खेतों के बीच तथा देखने में बिल्कुल धान के समान ही हरी-भरी घास भी बढ़ती हुई दिखती है...
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