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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


'क्यों रविशंकर (उसका नाम रविशंकर था), तुम रसोई बनाना तो जानते नहीं, परसन्ध्या आदि का क्या हाल हैं?'

'क्या बताऊँ भाईसाहब, हल मेरा सन्ध्या-तर्पण हैं और कुदाल खट-करम हैं। अपने रामतो ऐसे ही बाम्हन हैं। कोई आप जैसा निबाह ले तो निभ जाये, नहीं तो आखिर खेती तो अपनी हैं ही।'

मैं समझ गया। मुझे रविशंकर का शिक्षक बनना था। आधी रसोई रविशंकर बनाता और आधी मैं। मैं विलायत की अन्नाहार वालीखुराक के प्रयोग यहाँ शुरू किये। एक स्टोव खरीदा। मैं स्वयं तो पंक्ति-भेद का मानता ही न था। रविशंकर को भी उसका आग्रह न था। इसलिए हमारी पटरी ठीकजम गयी। शर्त या मुसीबत, जो कहो सो यह थी कि रविशंकर ने मैंल से नाता न तोड़ने और रसोई साफ रखनें की सौगन्ध ले रखी थी !

लेकिन मैं चार-पाँच महीने से अधिक बम्बई में रह ही न सकता था, क्योंकि खर्च बढ़ताजाता था और आमदनी कुछ भी न थी। इस तरह मैंने संसार में प्रवेश किया। बारिस्टरी मुझे अखरने लगी। आडम्बर अधिक, कुशलता कम। जवाबदारी का ख्यालमुझे दबोच रहा था।

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