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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...

पहला आघात


बम्बई से निराश होकर मैं राजकोट पहुँचा। वहाँ अलग दफ्तर खोला। गाड़ी कुछ चली।अर्जियाँ लिखने का काम लगा औरहर महीने औसत रु. 300 की आमदनी होने लगी। अर्जी-दावे लिखने का यह काम मुझे अपनी होशियारी के कारण नहीं मिलने लगाथा, कारण था वसीला। बड़े भाई के साथ काम करने वाले वकील की वकालत जमी हई थी। उनके पास जो बहुत महत्त्व के अर्जी-दावे अथवा वे महत्त्व का मानते,उसके काम तो बड़े बारिस्टर के पास ही जाता था। उनके गरीब मुवक्किल के अर्जी-दावे लिखने का काम मुझे मिलता था।

बम्बई में कमीशन नहीं देने की मेरी जो टेक था, मानना होगा कि यहाँ कायम न रहीं। मुझे दोनोस्थितियों का भेद समझाया गया था। वह यों था: बम्बई में सिर्फ दलाल को पैसे देने की बात थी ; यहाँ वकील को देने हैं। मुझसे कहा गया था कि बम्बई कीतरह यहाँ भी सब बारिस्टर बिना अपवाद के अमुक कमीशन देते हैं। अपने भाई की इस दलील का कोई जवाब मेरे पास न था: 'तुम देखते हो कि मैं दूसरे वकील कासाझेदार हूँ। हमारे पास आने वाले मुकदमों में से जो तुम्हें देने लायक होते हैं, वे तुम्हें देने की मेरी वृत्ति तो रहती हैं। पर यदि तुम मेरेमेंहनताने का हिस्सा मेरे साझी को न दो, तो मेरी स्थिति कितनी विषम हो जाए? हम साथ रहते हैं इसलिए तुम्हारे मेंहनताने का लाभ मुझे तो मिल हीजाता हैं। पर मेरे साझी का क्या हो? अगर वही मुकदमा वे दूसरे को दे, तो उसके मेंहनताने में उन्हें जरूर हिस्सा मिलेगा।' मैं इस दलील के भुलावेमें आ गया और मैंने अनुभव किया कि अगर मैंने बारिस्टरी करनी हैं तो ऐसे मामलों में कमीशन न देने का आग्रह मुझे नहीं रखना चाहिये। मैं ढीला पड़ा।मैंने अपने मन को मना लिया, अथवा स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो धोखा दिया। पर इसके सिवा दूसरे किसी भी मामले में कमीशन देने की बात मुझे याद नहीं हैं।

यद्दपि मेरा आर्थिक व्यवहार चल निकला, पर इन्हीं दिनों मुझे अपने जीवन का पहलाआघात पहुँचा। अंग्रेज अधिकारी कैसे होते हैं, इसे मैं कानों से सुनता था, पर आँखों से देखने का मौका मुझे अब मिला।

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