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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


अफसर ने कहा, 'यह नहीं हो सकता, तुम्हे उतरना पडेगा, और न उतरे तो सिपाहीउतारेगा।'

मैंने कहा, 'तो फिर सिपाही भले उतारे मैं खुद तो नहीं उतरूँगा।'

सिपाही आया। उसने मेरा हाथ पकडा और मुझे धक्का देकर नीचे उतर दिया। मैंने दूसरेडिब्बे में जाने से इनकार कर दिया। ट्रेन चल दी। मैं वेटिंग रुम में बैठ गया। अपना 'हैण्ड बैग' साथ में रखा। बाकी सामान को हाथ न लगाया। रेलवेवालो ने उसे कहीँ रख दिया। सरदी का मौसम था। दक्षिण अफ्रीका की सरदी ऊँचाईवाले प्रदेशों में बहुत तेज होती हैं। मेंरित्सबर्ग इसी प्रदेश मेंथा। इससे ठंड खूब लगी। मेरा ओवर कोट मेरे सामान में था। पर सामान माँगने की हिम्मत न हुई। फिर से अपमान हो तो? ठंड से मैं काँपता रहा। कमरे मेंदीया न था। आधी रात के करीब एक यात्री आया। जान पड़ा कि वह कुछ बात करना चाहता हैं, पर मैं बात करने की मनःस्थिति में न था।

मैंने अपने धर्म का विचार किया, 'या तो मुझे अपने अधिकारो के लिए लडना चाहिये या लौटजाना चाहिये, नहीं तो जो अपमान हो उन्हे सहकर प्रिटोरिया पहुँचना चाहिये और मुदकमा खत्म करके देश लौट जाना चाहिये। मुकदमा अधूरा छोड़कर भागना तोनामर्दी होगी। मुझे जो कष्ट सहना पड़ा हैं, सो तो ऊपरी कष्ट हैं। वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण हैं। महारोग हैं रंग-द्वेष। यदि मुझमें इसगहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो तो उस शक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिये। ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़े सो सब सहने चाहिये और उनका विरोधरंग-द्वेष को मिटाने की दृष्टि से ही करना चाहिये।'

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