जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
'मैंइसका गूढार्थ नहीं जानता। इसे न पहनने से मेरा अकल्याण होगा, ऐसा मुझे प्रतीत नहीं होता। पर माता जी ने जो माला मुझे प्रेमपूर्वक पहनायी हैं,जिसे पहनाने में उन्होंने मेरा कल्याण माना हैं, उसके त्याग मैं बिना कारण नहीं करूँगा। समय पाकर यह जीर्ण हो जायेगी और टूट जायगी, तो दूसरी प्राप्तकरके पहनने का लोभ मुझे नहीं रहेगा। पर यह कठी टूट नहीं सकती।'
मि. कोट्स मेरी इस दलील की कद्र नहीं कर सके क्योंकि उन्हे तो मेरे धर्म केप्रति अनास्था थी। वे मुझे अज्ञान-कूप में से उबार लेने की आशा रखते थे। वे मुझे यह बताना चाहते थे कि दूसरे धर्मों में भले ही कुछ सत्य हो, परपूर्ण सत्यरुप ईसाई धर्म को स्वीकार किये बिना मोक्ष मिल ही नहीं सकता, ईसा की मध्यस्थता के बिना पाप धुल ही नहीं सकते और सारे पुण्यकर्म निरर्थकहो जाते हैं। मि. कोट्स ने जिस प्रकार मुझे पुस्तकों का परिचय कराया, उसी प्रकार जिन्हे वे धर्मप्राण ईसाई मानते थे उनसे भी मेरा परिचय कराया।
इन परिचयो में एक परिचय 'प्लीमथ ब्रदरन' से सम्बंधित कुटुम्ब का था। प्लीमथब्रदरन नाम का एक ईसाई सम्प्रदाय हैं। कोट्स के कराये हुए बहुत से परिचय मुझे अच्छे लगे। वे लोग मुझे ईश्वर से डरने वाले जान पड़े। पर इस कुटुम्बमें एक भाई ने मुझसे दलील की, 'आप हमारे धर्म की खूबी नहीं समझ सकते। आपकी बातो से हम देखते है कि आपको क्षण-क्षण में अपनी भूलो का विचार करना होताहैं। उन्हे सदा सुधारना होता हैं। न सुधारने पर आपको पश्चाताप करना पड़ता हैं, प्रायश्चित करन होता हैं। इस क्रियाकांड से आपको मुक्ति कब मिल सकतीहैं? शान्ति आपको मिल ही नहीं सकती। आप यह तो स्वीकार करते ही है कि हम पापी हैं। अब हमारे विश्वास की परिपूर्णता देखिये। हमारा प्रयत्न व्यर्थहैं। फिर भी मुक्ति की आवश्यकता तो है ही। पाप को बोझ कैसे उठे? हम उसे ईसा पर डाल दे। वह ईश्वर का एकमात्र पुत्र हैं। उसका वरदान है कि जो ईश्वरको मानते हो उनके पाप वह धो देता हैं। ईश्वर की यह अगाध उदारता हैं। ईसा की इस मुक्ति योजना को हमने स्वीकार किया हैं, इसलिए हमारे पाप हमसेचिपटते नहीं। पाप तो मनुष्य से होते ही हैं। इस दुनिया में निष्पाप कैसे रहा जा सकता हैं? इसी से ईसा ने सारे संसारो का प्रायश्चित एक ही बार मेंकर डाला। जो उनके महा बलिदान का स्वीकार करना चाहते हैं, वे वैसा करके शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। कहाँ आपकी अशान्ति और कहाँ हमारी शान्ति?'
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