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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...

दुखद प्रसंग-2


निश्चित दिन आया। अपनी स्थिति का सम्पूर्ण वर्णन करना मेरे लिए कठिन हैं। एक तरफसुधार का उत्साह था, जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने का कुतूहल था, और दूसरी ओर चोर की तरह छिपकर काम करने की शरम थी। मुझे याद नहीं पड़ता किइसमें मुख्य वस्तु क्या थी। हम नदीं की तरफ एकान्त की खोज में चलें। दूर जाकर ऐसा कोना खोजा, जहाँ कोई देख न सके और कभी न देखी हुई वस्तु -- माँस-- देखी ! साथ में भटियार खाने की डबल रोटी थी। दोनों में से एक भी चीज मुझे भाती नहीं थी। माँस चमड़े-जैसा लगता था। खाना असम्भव हो गया। मुझे कैहोने लगी। खाना छोड़ देना पड़ा। मेरी वह रात बहुत बुरी बीती। नींद नहीं आई। सपने में ऐसा भास होता था, मानो शरीर के अन्दर बकरा जिन्दा हो और रोरहा हैं। मैं चौंक उठता, पछताता और फिर सोचता कि मुझे तो माँसाहार करना ही हैं, हिम्मत नहीं हारनी हैं ! मित्र भी हार खाने वाले नहीं थे। उन्होंनेअब माँस को अलग-अलग ढंग से पकाने, सजाने और ढंकने का प्रबन्ध किया।

नदी किनारे ले जाने के बदले किसी बावरची के साथ बातचीत करके छिपे-छिपे एकसरकारी डाक-बंगले पर ले जाने की व्यवस्था की और वहाँ कुर्सी, मेंज बगैरा सामान के प्रलोभन में मुझे डाला। इसका असर हुआ। डबल रोटी की नफरत कुछ कमपड़ी, बकरे की दया छूटी और माँस का तो कह नहीं सकता, पर माँसवाले पदार्थों में स्वाद आने लगा। इस तरह एक साल बीता होगा और इस बीच पाँच-छह बार माँसखाने को मिला होगा, क्योंकि डाक-बंगला सदा सुलभ न रहता था और माँस के स्वादिष्ट माने जाने वाले बढ़िया पदार्थ भी सदा तैयार नहीं हो सकते थे।फिर ऐसे भोजनो पर पैसा भी खर्च होता था। मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी, इसलिए मैं कुछ दे नहीं सकता था। इस खर्च की व्यवस्था उन मित्रो को हीकरनी होती थी, कैसे व्यवस्था की, इसका मुझे आज तक पता नहीं हैं। उनका इरादा को मुझे माँस की आदत लगा देने का -- भ्रष्ट करने का -- था, इसळिए वेअपना पैसा खर्च करते थे। पर उनके पास भी कोई अखूट खजाना नहीं था, इसलिए ऐसी दावते कभी-कभी ही हो सकती थी।

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