जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...
उस समय तो मुझे जानपड़ा कि मेरी मर्दानगी को बट्टा लगा और मैंने चाहा कि घरती जगह दे तो मैं उसमें समा जाऊँ। पर इस तरह बचने के लिए मैंने सदा ही भगवान का आभार मानाहैं। मेरे जीवन में ऐसे ही दुसरे चार प्रसंग और आये हैं। कहना होगा कि उनमें से अनेकों में, अपने प्रयत्न के बिना, केवल परिस्थिति के कारण मैंबचा हूँ। विशुद्ध दृष्टि से तो इल प्रसंगों में मेरा पतन ही माना जायेगा। चूँकि विषय की इच्छा की, इसलिए मैं उसे भोग ही चुका। फिर भी लौकिक दृष्टिसे, इच्छा करने पर भी जो प्रत्यक्ष कर्म से बचता हैं, उसे हम बचा हुआ मानते हैं ; और इन प्रसंगो में मैं इसी तरह, इतनी ही हद तक, बचा हुआ मानाजाऊँगा। फिर कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हे करने से बचना व्यक्ति के लिए और उसके संपर्क में आने वालों के लिए बहुत लाभदायक होता हैं, और जब विचार शुद्धिहो जाती हैं तब उस कार्य में से बच जाने कि लिए वब ईश्वर का अनुगृहित होता हैं। जिस तरह हम यह अनुभव करते है कि पतल से बचने का प्रयत्न करते हूए भीमनुष्य पतित बनता हैं, उसी तरह यह भी एक अमुभव-सिद्ध बात हैं कि गिरना चाहते हुए भी अनेक संयोगों के कारण मनुष्य गिरने से बच जाता हैं। इसमेंपुरुषार्थ कहाँ हैं, दैव कहाँ हैं, अय़वा किन नियमों के वश होकर मनुष्य आखिर गिरता या बचता हैं, यो सारे गूढ़ प्रश्न हैं। इसका हल आज तक हुआ नहींऔर कहना कठिन हैं कि अंतिम निर्णय कभी हो सकेगा या नहीं।
पर हम आगे बढ़े। मुझे अभी तक इस बात का होश नहीं हुआ कि इन मित्र की मित्रताअनिष्ट हैं। वैसा होने से पहले मुझे अभी कुछ और कड़वे अनुभव प्राफ्त करने थे। इसका बोध तो मुझे तभी हुआ जब मैंने उनके अकल्पित दोषों का प्रत्यक्षदर्शन किया। लेकिन मैं यथा संभव समय के क्रम के अनुसार अपने अनुभव लिख रहा हूँ, इसलिए दुसरे अनुभव आगें आवेंगे।
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